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बीजेपी और शिरोमणि अकाली दल का गठबंधन दिल्ली में टूटा, तो एक अजीब बात सामने आयी - कि यह बीजेपी के सिख नेता हरदीप पुरी की निगरानी में हुआ है. पुरी एक केंद्रीय मंत्री हैं और दिल्ली चुनाव के लिए बीजेपी के जॉइंट इंचार्ज भी. और यह वही हरदीप पुरी हैं जिन्होंने पिछले साल अकाली दल की मदद लेकर अमृतसर से लोकसभा का चुनाव लड़ा, लेकिन हार गए.
तो फिर क्या वजह रही कि पुरी ने दिल्ली में अकाली दल से नाता तोड़ा? जैसे एक शेर है, "कुछ तो मजबूरियां रही होंगी, यूं ही कोई बेवफा नहीं होता" लेकिन इस विलय के पीछे कोई मजबूरियां नहीं हैं, बल्कि यह बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कि एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा है. और इस रणनीति का एक बड़ा मकसद है : अकाल तख्त और संघ के बीच चल रहे तनाव में हिंदुत्व की बात करने वाले सिख नुमाइंदे तैयार करना.
पश्चिमी दिल्ली की राजिंदर नगर सीट से बीजेपी के उम्मीदवार हैं आरपी सिंह, जो 2013 में विधायक रहे हैं. कहा जाता है कि यह संघ से जुड़े राष्ट्रीय सिख संगत का हिस्सा रह चुके हैं. इन पर कुछ मामलो में पंथ-विरोधी होने का इलजाम लगा है. मिसाल के तौर पर 2019 में जब दिल्ली पुलिस ने एक सिख ऑटो चलाने वाले को पीटा तब सिखों ने मुखर्जी नगर पुलिस स्टेशन के सामने विरोध प्रदर्शन किया. लेकिन आरपी सिंह ने इन पर "खालिस्तानी" होने का इलजाम लगाया.
ऐसे ही एक और कैंडिडेट हैं हरी नगर से तजिंदर बग्गा जो एक स्वयंसेवक होने का दावा करते हैं. उन्होंने दीवाली पर पटाखों से लेकर अमरतनाथ यात्रा पर एनजीटी के आदेश को "हिन्दू विरोधी" बताकर शोर मचाया, लेकिन सिखों से जुड़े मुद्दों पर ज्यादा कुछ नहीं कहते. एक पंजाबी चैनल में तो इन्होने पंथ की बात करने वाले एक बुज़ुर्ग की टांगे तोड़ने की भी धमकी दी.
हिंदुत्व समर्थक सिखों को टिकट देना दिल्ली में बीजेपी के लिए नई बात नहीं है. 1990 और 2000 के दशक में दिल्ली बीजेपी के सबसे बड़े सिख नेता थे हरशरण सिंह बल्ली, जो हरी नगर सीट से जीत कर आते थे. बल्ली खुलेआम खुद को राम मंदिर का कारसेवक कहते थे. लेकिन बाद में उन्हें बीजेपी में दरकिनार किया गया और वो कुछ वक्त के लिए कांग्रेस में भी शामिल हो गए थे. इस बीच बीजेपी ने दिल्ली में अकाली दल की मदद लेना भी शुरू किया.
लेकन अब बीजेपी ने अकाली दल से नाता तोड़ पूरा जोर हिंदुत्ववादी सिखों के पीछे लगा दिया है. और इसकी वजह है संघ. काफी सालों से एक तरफ संघ और दूसरी तरफ अकाल तख्त और एसजीपीसी जैसी सर्वोच सिख संस्थाओं के बीच में टकराव रहा है. दोनों के बीच में बुनियादी मतभेद है कि संघ की राय में सिख "केशधारी हिन्दू" हैं, एक अलग कौम नहीं.
2001 में आरएसएस के तात्कालीन सरसंघचालक के एस सुदर्शन ने सिखों को एक "हिन्दू पंथ" बताया.यह बात अकाल तख्त और शिरोमणि गुरद्वारा प्रबंधक कमिटी को बिलकुल पसंद नहीं आई. इस बीच में संघ ने सिखों के बीच अपनी विचारधारा फैलाने के लिए राष्ट्रीय सिख संगत को बढ़ावा दिया. 2004 में अकाल तख्त ने एक हुकमनामाजारी किया जिसमे सिख संगत को "सिख विरोधी" और "पंथ विरोधी" करार दिया गया और सिखों को इसमें शामिल होने से साफ मना किया गया. कहा जाता है कि संघ इस अपमान को कभी भूल नहीं पाया.
2019 में संघ के जख्म फिर ताजा हो गए जब अकाल तख्त के नए जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह ने आरएसएस और मोदी सरकार दोनों को आड़े हाथ लेना शुरू किया. धारा 370 हटाए जाने के बाद जत्थेदार साहब ने बीजेपी के नेताओं कि आलोचना की और कहा कि कश्मीरी औरतों की हिफाजत करना हर सिख का फर्ज है. एक बयान में तो उन्होंने यह तक कह दिया कि आरएसएस को बैन कर देना चाहिए क्यूंकि वो समाज को बांटने का काम कर रहे है.
संघ की राय में बादल न सिर्फ सिखों को हिंदुत्व की तरफ लाने में नाकाम रहे हैं, उनसे गठबंधन के बावजूद, संघ और सिखों के बीच दूरियां बढ़ती जा रही हैं.
इसलिए संघ और बीजेपी कम से कम दिल्ली में अकालियों को हटाकर हिंदुत्ववादी सिखों को आगे कर रहे है. अगर यहां सफल हुए तो यही रणनीति पंजाब में भी अपनायी जा सकती है. अब देखना यह है कि सिख समाज का इन हिंदुत्व-समर्थकों के तरफ क्या रुख रहता है.
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Published: 24 Jan 2020,07:30 PM IST