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19 मई को नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने दो प्रमुख घोषणाएं कीं:
इसने दिल्ली के उपराज्यपाल को दिल्ली में अधिकारियों की पोस्टिंग और ट्रांसफर में अंतिम निर्णय देने के लिए एक अध्यादेश पेश किया. वास्तव में, यह सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश के खिलाफ गया, जिसने दिल्ली की चुनी हुई सरकार को ये अधिकार दिए थे.
भारतीय रिजर्व बैंक ने 2000 रुपये के नोट को वापस लेने की घोषणा की जिसे उसने 2016 के विमुद्रीकरण (Demonetisation) के समय जारी किया था.
ये दोनों उपाय पूरी तरह से अलग डोमेन से हैं और इनमें से प्रत्येक पर पॉलिसी पॉइंट ऑफ व्यू बहुत कुछ है. लेकिन राजनीतिक रूप से, यह दोनों प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की लीडरशिप के मुताबिक हैं. हम इन कदमों के लिए चार राजनीतिक एंगल्स को बताते हैं.
विपक्ष ने हाल ही में दो महत्वपूर्ण जीत हासिल की थी. पहला सुप्रीम कोर्ट का 11 मई का फैसला था जिसमें कहा गया था कि "दिल्ली में प्रशासन की वास्तविक शक्ति राज्य की निर्वाचित शाखा के पास है" यह दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार के लिए एक बड़ा समर्थन था.
दूसरी, और बहुत बड़ी जीत, कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत थी.
उदाहरण के लिए आप सरकार पिछले कुछ समय से लगातार घेराबंदी की स्थिति में है. इसके दो वरिष्ठ नेता मनीष सिसोदिया और सत्येंद्र जैन कथित शराब घोटाले के सिलसिले में जेल में हैं. दिल्ली में प्रशासन पर नियंत्रण लगातार विवाद का विषय रहा है.
11 मई के फैसले के बाद इसने बमुश्किल नियंत्रण हासिल करना शुरू किया था. अब अध्यादेश कुछ समय के लिए इसके लाभ को कम कर देगा, हालांकि दिल्ली सरकार की अपील के लिए जाने की संभावना है.
2000 रुपये के नोट को बंद करना विपक्षी दलों के लिए भी चुनौती बन सकता है. यह कोई सीक्रेट नहीं है कि पार्टियां और व्यक्तिगत नेता राजनीतिक गतिविधियों के लिए नकद भुगतान पर काफी हद तक भरोसा करते हैं.
2000 रुपये के नोटों को वापस लेने से विशेष रूप से छोटे दलों और व्यक्तिगत नेताओं के लिए मामला मुश्किल हो सकता है. क्या सरकार ने इस कदम की जानकारी सत्तारूढ़ पार्टी के पदाधिकारियों और नेताओं के साथ शेयर नहीं की, कोई भी इसका अनुमान लगा सकता है.
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) अध्यादेश 2023 कहता है, "राष्ट्रीय राजधानी पूरे देश की है और पूरे देश की राष्ट्रीय राजधानी के शासन में महत्वपूर्ण रुचि है. यह बड़े राष्ट्रीय हित में है कि पूरे देश के लोगों की, देश की लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई केंद्र सरकार के माध्यम से राष्ट्रीय राजधानी के प्रशासन में कुछ भूमिका हो."
इसके लिए दिया गया तर्क वास्तव में मोदी सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर के लिए अनुच्छेद 370 को हटाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली भाषा के समान है. इसने 'जम्मू और कश्मीर के लोगों की इच्छा' पर केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तुत 'राष्ट्र की इच्छा' को महत्त्व दिया. विडंबना यह है कि आप ने जम्मू-कश्मीर पर सरकार के कदम का समर्थन किया था.
2000 रुपये के नोट को वापस लेने का कदम भी लोगों, विशेषकर व्यापारियों के लिए एक संदेश है कि केंद्र सरकार के पास ऐसे कदम उठाने के लिए पर्याप्त शक्ति है जो उनके दैनिक जीवन को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित कर सकती है.
इन दोनों कदमों का उद्देश्य मोदी सरकार की ताकत पर जोर देना है. और इस दावे के मूल में एक हद तक मनमानी है.
2000 रुपये के नोट बंद करने के संबंध में, न तो समय और न ही इस कदम का उद्देश्य स्पष्ट है. आरबीआई के सभी सर्कुलर में कहा गया है कि नोट को 2016 में मुद्रा की आवश्यकताओं से निपटने के लिए पेश किया गया था और 2018-19 से इसे छापना बंद कर दिया गया था. अब इसे वापस क्यों लिया जा रहा है, यह स्पष्ट नहीं है.
जीएनसीटीडी (GNCTD) अध्यादेश मनमानी का और भी गंभीर मामला है. जैसा कि यह मूल रूप से सुप्रीम कोर्ट के 11 मई के फैसले को पलट देता है. यह संकेत भेजता है कि केंद्र के विरोधी पक्ष के लिए शीर्ष अदालत के फैसले की भी कोई गारंटी नहीं हैं और अगर सरकार चाहे तो ऐसे फैसलों को अध्यादेश के जरिए पलटा जा सकता है. बेशक, मोदी सरकार ऐसा करने वाली पहली सरकार नहीं है और न ही आखिरी होगी.
कर्नाटक चुनाव के परिणाम बीजेपी विरोधी ताकतों के लिए एक उत्साह के रूप में आए थे. पिछले कुछ दिनों से ध्यान बीजेपी की विफलताओं के अलावा कांग्रेस की रणनीति के रंग लाने और जीत में पार्टी के राज्य और राष्ट्रीय नेतृत्व द्वारा निभाई गई महत्वपूर्ण भूमिका पर था.
ये दोनों कदम कर्नाटक में नई सरकार के शपथ ग्रहण समारोह की पूर्व संध्या पर आए. इन दोनों कदमों की चर्चा अगले एक दो हफ्तों तक इस शपथग्रहण पर भारी रहने की उम्मीद है.
कर्नाटक चुनाव अभियान पिछले नौ वर्षों में उन कुछ दुर्लभ अवसरों में से एक था, जिसमें बीजेपी सिर्फ रियेक्ट कर रही थी और कांग्रेस नैरेटिव सेट कर रही थी.
दिल्ली और 2000 रुपये के नोटों पर अपने कदमों के जरिए, बीजेपी नैरेटिव को फिर से स्थापित करना चाहती है.
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