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BJP के हाथ से क्यों निकला कैराना? ये रही हार की 5 वजह

बीजेपी को नहीं मिल पाया मौका, गठबंधन की इस रणनीति का बीजेपी नहीं निकाल पाई काट

अंशुल तिवारी
पॉलिटिक्स
Published:
2019 आम चुनाव के मद्देनजर ये हार बीजेपी के लिए बड़ा झटका है
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2019 आम चुनाव के मद्देनजर ये हार बीजेपी के लिए बड़ा झटका है
(फोटोः @bjp4india)

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उत्तर प्रदेश में बीजेपी बनाम महागठबंधन की जंग का नतीजा आ चुका है. मैदान था कैराना का, जहां आरएलडी की तबस्सुम हसन ने बीजेपी की मृगांका सिंह को बड़े अंतर से मात दे दी. 2014 में बीजेपी ने ये सीट 2 लाख से ज्यादा वोटों से जीती थी. 2019 आम चुनाव के मद्देनजर ये हार बीजेपी के लिए बड़ा झटका है. पिछले उपचुनावों में गोरखपुर और फूलपुर जैसी हाई प्रोफाइल सीटें गंवा चुकी बीजेपी के लिए ये सीट ‘नाक’ की लड़ाई थी.

आइए जानते हैं वो पांच कारण, जिनके चलते कैराना ने बीजेपी को ‘ना’ कहा.

1. विपक्षी एकजुटता

कैराना में बीजेपी की हार का सबसे बड़ा कारण बनी समाजवादी पार्टी, आरएलडी, बीएसपी और कांग्रेस का एक साथ आना. 2014 के लोकसभा चुनावों और 2017 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी की बड़ी जीत ही मतभेद रखने वाले क्षेत्रीय दलों को एक साथ लाने का कारण बनी.

साल की शुरुआत में फूलपुर और गोरखपुर सीट पर हुए उपचुनाव के लिए बीएसपी और एसपी जैसे एक दूसरे के धुरविरोधी दल एक साथ आए. दोनों सीटों पर समाजवादी पार्टी ने अपना उम्मीदवार उतारा और बीएसपी ने उसका समर्थन किया. इस चुनाव में कांग्रेस ने भी अपना उम्मीदवार उतारा था.

लेकिन कैराना सीट पर हुए उपचुनाव में नए सियासी समीकरण तैयार हुए. समाजवादी पार्टी की नेता को आरएलडी के टिकट पर इलेक्शन लड़ाया गया. इस दावेदारी को बीएसपी ने हरी झंडी दिखाई और कांग्रेस ने इसका समर्थन किया. यूपी में मुस्लिमों के बीच मजबूत पैठ रखने वाली समाजवादी पार्टी ने अपनी नेता तबस्सुम हसन को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों के बीच पैठ रखने वाली आरएलडी के टिकट पर चुनाव लड़ाया. बीजेपी के खिलाफ इस जंग में बीएसपी, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने आरएलडी उम्मीदवार का साथ दिया और सबने मिलकर कैराना में बीजेपी के किले को ढहा दिया.

2. नहीं चला ध्रुवीकरण का दांव

मुजफ्फरनगर दंगों की वजह से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों और मुसलमानों के बीच दूरियां पैदा हुईं, जिसका बीजेपी को फायदा मिला. बीजेपी पर पहले भी ध्रुवीकरण के जरिए वोट हासिल करने के आरोप लगते रहे हैं. कैराना से सांसद रहे हुकुम सिंह ने भी हिंदुओं के पलायन का मुद्दा जोर-शोर से उठाया था, जिसका फायदा बीजेपी को 2017 के विधानसभा चुनावों में हुआ.

बीजेपी के इसी फॉर्मूले की विपक्ष ने काट खोज ली. यही वजह रही कि समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी के किसी भी बड़े नेता ने नूरपुर और कैराना में कोई रैली नहीं की. इसकी वजह ये थी कि महागठबंधन बनाने वाले ये दल बीजेपी को वोटों के ध्रुवीकरण करने का कोई मौका नहीं देना चाहते थे. यही वजह रही है कि चुनाव प्रचार के दौरान हिंदू-मुस्लिम का मुद्दा तूल नहीं पकड़ पाया.

सूबे के सीएम और हिंदूवादी नेता की छवि रखने वाले योगी आदित्यनाथ ने भी कैराना में दो रैलियां की. लेकिन विपक्ष के ‘मौन’ ने बीजेपी को ध्रुवीकरण का कोई मौका नहीं दिया.

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3. जाट, दलित और मुसलमान नाखुश

पिछले कुछ महीनों में हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट आरक्षण की मांग खूब जोर-शोर से उठी. जाटों ने आंदोलन किए, हिंसा के लिए जाट समुदाय के कई युवाओं के खिलाफ केस भी दर्ज किए गए. लेकिन आरक्षण की मांग पूरी नहीं हुई.

उधर, देश के अलग-अलग हिस्सों में दलितों के खिलाफ हिंसा ने भी दलित समुदाय में बीजेपी के प्रति गुस्सा भर दिया. जोकि इलेक्शन में बीजेपी के खिलाफ वोट के रूप में बाहर निकला.

मुस्लिम समुदाय की बीजेपी के प्रति नाराजगी जगजाहिर है. इस पर भी 2014 के बाद से गौरक्षा के नाम पर मुस्लिम समुदाय के लोगों को निशाना बनाए जाने से यह नाराजगी और भी बढ़ी है.

कैराना में जाट, मुस्लिम और दलित तीनों का ही दबदबा है, और तीनों ही बीजेपी से खफा है. ये वजह भी बीजेपी की हार का बड़ा कारण बनी.

4. गन्ना किसानों की नाराजगी

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जब भी कोई चुनाव होता है तो गन्ना किसानों का मुद्दा केंद्र में रहता है. साल 2017 के चुनाव में भी बीजेपी ने चुनाव प्रचार के दौरान गन्ना किसानों के मुद्दे को खूब उछाला था. बीजेपी ने गन्ना किसानों से तय समय पर बकाया का भुगतान करने का वादा कर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों में पैठ बनाई थी.

लेकिन गन्ना किसान उचित दाम और बकाया रकम न मिलने से खुश नहीं हैं. यही वजह रही कि बीजेपी को गन्ना किसानों की नाराजगी का सामना करना पड़ा.

5. बीजेपी का गिरता ग्राफ

साल 2014 में बीजेपी ने भले ही प्रचंड बहुमत के साथ जीत हासिल की हो. लेकिन साल 2014 के आम चुनावों के बाद बीजेपी का ग्राफ लगातार गिरा है. इसका सबसे बड़ा प्रमाण उपचुनावों में बीजेपी की हार है. साल 2014 में उड़ीसा की कंधमाल लोकसभा सीट के लिए उपचुनाव हुआ था, जिसमें बीजेडी उम्मीदवार ने बीजेपी को हराया था. इसके बाद तेलंगाना की मेढक सीट पर हुए उप-चुनाव में टीआरएस ने बीजेपी को हराया. इसी साल उत्तर प्रदेश के मैनपुरी में हुए उप-चुनाव में समाजवादी पार्टी ने बीजेपी को हराया.

तब से लेकर अब तक उपचुनावों में बीजेपी की हार का सिलसिला लगातार जारी है. मध्य प्रदेश के रतलाम-झबुआ लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में बीजेपी को कांग्रेस से हार मिली थी, वहीं पंजाब की गुरुदासपुर, राज्यस्थान की अजमेर और अलवर सीट पर भी बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा था.

इस साल की शुरुआत में उत्तर प्रदेश की फूलपुर और गोरखपुर सीट पर भी बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा था.

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