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लालू यादव इन चार वजहों से न करें अपने बेटों को प्रमोट

चार वजहें जिनकी वजह से लालू यादव को अपने दोनों बेटों को प्रमोट करने से बचना चाहिए. जानिए क्या हैं ये चार कारण

नीना चौधरी
पॉलिटिक्स
Updated:
बिहार के हाजीपुर में 5 अक्टूबर, 2015 को एक रैली के दौरान अपने दोनों बेटों के साथ राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव. (फोटो: PTI)
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बिहार के हाजीपुर में 5 अक्टूबर, 2015 को एक रैली के दौरान अपने दोनों बेटों के साथ राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव. (फोटो: PTI)
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बिहार के विधानसभा चुनाव में शानदार जीत के बाद अब सबकी नजरें इस बात पर टिकी हुईं हैं कि लालू यादव राजद के विधायक दल का नेता किसे चुनेंगे.

क्या लालू अपने दोनों बेटों तेज प्रताप और तेजस्वी यादव में से किसी एक को चुनेंगे या अपने पुराने साथी और पार्टी के सबसे प्रमुख मुस्लिम चेहरे अब्दुल बारी सिद्दीकी को तरजीह देंगे?

राजद के विधायक दल की पहली मीटिंग में 80 नवनिर्वाचित विधायकों ने लालू के दोनों बेटों में से किसी का भी नाम आगे नहीं बढ़ाया. उन्होंने राजद के विधायक दल के नेता को चुनने का फैसला लालू यादव पर छोड़ दिया है.

भले ही लालू यह बात सार्वजनिक रूप से स्वीकार न करें, लेकिन वह इस बात को लेकर दुविधा में लग रहे हैं कि नेता के रूप में किसी विश्वसनीय मुस्लिम चेहरे को चुनें या फिर अपने ही यादव समुदाय के किसी युवा को. और जब यदि यादव को ही चुनना पड़े तो फिर वह अपने बेटे को क्यों न चुनें?

मुस्लिम और यादव फैक्टर

आरजेडी के अब्दुल बारी सिद्दीकी के साथ जनता दल (युनाइटेड) के नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार. (फोटो: PTI)

लालू जैसे अनुभवी राजनीतिज्ञ को किसी भी नतीजे पर पहुंचने से पहले इस हकीकत को ध्यान में रखना होगा कि उनके 80 विधायकों में से 42 यादव हैं और 12 मुसलमान. ये दोनों ही समुदाय (मुस्लिम और यादव) 1990 से लेकर 2005 तक लालू का बराबर साथ देते रहे थे और कोई भी उन्हें डिगा नहीं पाया था.

साल 2015 के विधानसभा चुनाव में इन दोनों समुदायों के समर्थन ने ही राजद को बिहार की 243-सदस्यीय विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर आने में मदद की है. इसलिए लालू के लिए यह समय व्यावहारिकता दिखाने का है और उन्हें राजद के विधायक दल के नेता के रूप में अपने बेटों तेजस्वी या तेज प्रताप में से किसी एक का नाम आगे बढ़ाने से परहेज करना चाहिए. उन्हें दोनों में से किसी को भी उप मुख्यमंत्री बनाने के लिए पैरवी भी नहीं करनी चाहिए.

ऐसा करने से लालू का राजनीतिक कद तो बढ़ेगा ही और साथ ही ये संदेश भी जाएगा कि वह सिर्फ अपने परिवार के बारे में नहीं सोचते हैं. इस बात को अभी तक कोई नहीं भूल पाया है कि चारा घोटाला मामले में जेल जाने से पहले कैसे उन्होंने 1997 में अपनी पत्नी राबड़ी देवी को रसोईघर से खींचकर सीधे बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया था.

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घर में भी नहीं होगा असंतोष

एक रैली को संबोधित करतीं मीसा भारती. (फोटो: Facebook/Misa Bharti)

यदि लालू अपने बेटे को अपनी पार्टी के विधायक दल का नेता नहीं बनाते हैं तो वह आंतरिक असंतोष से भी बच सकते हैं. एक बेटे का नाम आगे बढ़ाने की वजह से उनके दो अन्य उत्तराधिकारी दूसरा बेटा और बेटी मीसा भारती नाराज हो सकते हैं. लालू यादव की बेटी मीसा भारती की राजनीतिक सूझबूझ दोनों बेटों से कहीं बेहतर मानी जाती है.

यह समय है संतुष्ट होने का

बिहार चुनावों में वोट डालने के लिए कतार में खड़े मतदाता. (फोटो: PTI)

बीजेपी के प्रमुख विपक्षी दल बनने से पहले नीतीश के मुख्यमंत्रित्व काल में अब्दुल बारी सिद्दीकी बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता थे. यदि, लालू सिद्दीकी को अपनी पार्टी के विधायक दल का नेता चुनते हैं तो ये एक तरह से राज्य के उन 16.5% मुस्लिम मतदाताओं के प्रति अपना आभार व्यक्त करने जैसा होगा जिन्होंने इन विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी का साथ दिया है.

नीतीश के लिए आसान होगा सरकार चलाना

राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव के साथ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार. (फोटो: PTI)

अब्दुल बारी सिद्दीकी के साथ नीतीश के संबंध हमेशा से अच्छे रहे हैं. इसलिए, लालू यदि इस सीनियर मुस्लिम नेता को राजद के विधायक दल का नेता चुनते हैं तो नीतीश के लिए काम करना आसान होगा.

इस तरह परिवारवाद के खिलाफ रहे नीतीश के ऊपर ये आरोप भी नहीं लगेगा कि वह बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में अपनी नई पारी शुरू करते ही भाई-भतीजावाद को समर्थन दे रहे हैं. तब तक लालू के दोनों बेटे जोकि पहली बार ही विधायक बने हैं, विधानसभा में समय बिता सकते हैं और अपनी अगली छलांग के लिए खुद को तैयार कर सकते हैं.

(लेखिका बिहार में पत्रकार हैं)

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Published: 15 Nov 2015,01:42 PM IST

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