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गुजरात विधानसभा चुनावों (Gujarat Elections) के सबसे बड़े सवालों में से एक सवाल यह है कि क्या कांग्रेस आम आदमी पार्टी से शिकस्त खाने वाली है, और अगर ऐसा है तो किस हद तक. तीन महीने पहले यह धारणा बनाई गई थी कि आम आदमी पार्टी के चलते कांग्रेस गुजरात में मुख्य विपक्षी पार्टी का दर्जा गंवा सकती है.
लेकिन जैसे-जैसे चुनाव अभियान तेज हुआ और उम्मीदवारों के नामों की घोषणा हुई, कहा जाने लगा कि कांग्रेस में नई जान आ गई है और गुजरात में उसका मुख्य विपक्षी पार्टी का दर्जा बरकरार रहने वाला है. हां, उसका प्रदर्शन 2017 जैसा रहने की उम्मीद कम ही है.
वैसे पिछले एक महीने में कांग्रेस को “नई जिंदगी” मिलना इतना अचानक या हैरत भरा नहीं है. पहले के चुनावों, खासकर 2007 और 2012 में भी ऐसा ही लग रहा था कि कांग्रेस तस्वीर में है ही नहीं. फिर भी उसे अच्छा खासा वोट शेयर मिला था.
दलबदल और नेतृत्व के अभाव के बावजूद कांग्रेस के पास राज्य में आधार भी है, और संगठन भी और वह उसे अखंड रखे हुए है. इसीलिए आप इसे नई जिंदगी भी नहीं कह सकते क्योंकि कांग्रेस ने अपने खुद का आधार फिर से हासिल किया है. यहां हम तीन आधारों को देख सकते हैं.
मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के चरम पर भी कांग्रेस ने 38 प्रतिशत और उससे अधिक का स्थिर वोट शेयर बहाल रखा था. पार्टी आज तक गुजरात में किसी भी विधानसभा चुनाव में 30 प्रतिशत के वोट शेयर से नीचे नहीं गिरी है.
करीब एक दर्जन सीटें ऐसी हैं जो कांग्रेस पिछले दो दशकों से नहीं हारी है. इनमें खेड़ब्रह्मा, दरियापुर, जमालपुर-खड़िया, जसदान, बोरसाद, महुधा, व्यारा, दांता, कपराडा, वंसदा, भिलोदा और वडगाम शामिल हैं.
हालांकि इनमें से कई सीटों पर कांग्रेस को बीजेपी के साथ-साथ आम आदमी पार्टी, एआईएमआईएम और भारतीय ट्राइबल पार्टी की मौजूदगी के कारण चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है.
आदिवासी और अल्पसंख्यक सीटों पर कांग्रेस खास तौर से मजबूत है. इसके अलावा आदिवासी और गैर आदिवासी बहुत ग्रामीण इलाकों में भी उसने लगातार अपना आधार बनाए रखा है.
यह विशेष रूप से उत्तर गुजरात और सौराष्ट्र के कुछ हिस्सों में है. ऊपर जितनी सीटों का जिक्र किया गया है, उनमें जमालपुर खड़िया और दरियापुर जैसी मुस्लिम बहुल सीटों को छोड़कर दूसरी सभी मुख्य रूप से ग्रामीण सीटें हैं.
दलित वोटरों में भी कांग्रेस का स्थिर आधार है. यह उन कुछ सामाजिक समूहों में से एक था जिसने 2019 के लोकसभा चुनावों में भी कांग्रेस का समर्थन किया था, भले ही कांग्रेस ने आदिवासियों के बीच अपना समर्थन खो दिया था.
हालांकि यह भी सच है कि गुजरात में दलितों की आबादी सिर्फ 7 प्रतिशत और मुस्लिमों की 10 प्रतिशत से कम है. इसके अलावा आदिवासियों और ओबीसी के बीच बीजेपी का असर बढ़ा है, चूंकि यह सामाजिक समूह परंपरागत रूप से कांग्रेस समर्थक रहे हैं.
बीजेपी की अगुवाई वाली राज्य सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर बहुत अधिक है लेकिन यह भी सच है कि 2017 के चुनावों से पहले तीन आंदोलनों ने कांग्रेस को तब फायदा पहुंचाया था. ये आंदोलन थे
पाटीदार अनामत आंदोलन, कोटा में बदलाव के खिलाफ ओबीसी का प्रदर्शन और ऊना में मारपीट की घटना के खिलाफ दलित विरोध. ये वजहें अब नदारद हैं.
जातिगत व्यवहार को लेकर लोगों को सत्तासीन बीजेपी से शिकायत थी, और इससे कांग्रेस का समर्थन बढ़ा.
अभी सिर्फ एक ही मामला ऐसा हुआ है. मालधारी समुदाय की महापंचायत ने बीजेपी से नाराजगी जताई है और कांग्रेस के समर्थन की घोषणा की है. इसके अलावा कांग्रेस के लिए ऐसा कोई दूसरा फैक्टर काम नहीं करेगा.
पिछले 25 वर्षों में गुजरात में बीजेपी और कांग्रेस के बीच दोतरफा लड़ाई देखी गई है. 80 के दशक और 90 के दशक की शुरुआत में जनता दल एक महत्वपूर्ण पार्टी हुआ करती थी.
अब यह तीसरी जगह फिर उभर आई है और इस पर आदमी पार्टी का कब्जा होता दिख रहा है. अभी यह साफ नहीं है कि आम आदमी पार्टी को कितना फायदा हुआ है, और इससे किसे संकट में डाला है- बीजेपी को या कांग्रेस को. बीजेपी के संगठन और संसाधनों की ताकत को देखकर लगता है कि कांग्रेस ही वह कमजोर कड़ी बन सकती है जिसके वोटों में आम आदमी पार्टी ने सेंध लगाई है.
फिर भारतीय ट्राइबल पार्टी और एआईएमआईएम हैं, जो क्रमशः आदिवासी और मुस्लिम वोटों को खींच रही हैं. दोनों को कांग्रेस का पारंपरिक समर्थक आधार माना जाता है.
एआईएमआईएम के बारे में भी यही कहा जा सकता है, जो राज्य में एक दर्जन से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ रही है. जमालपुर खड़िया और दरियापुर जैसे मुस्लिम बहुल क्षेत्रों को कांग्रेस की ठोस सीटें माना जाता था, लेकिन अब एआईएमआईएम के कारण ये सीटें खतरे में पड़ सकती हैं.
उन्हें इस चुनाव में एआईएमआईएम के मजबूत उम्मीदवारों में एक माना जाता है.
कांग्रेस की एक समस्या यह भी है कि उसके कई नेता बीजेपी में चले गए हैं. 2017 में निर्वाचित 77 कांग्रेसी विधायकों में से लगभग 14 बीजेपी में शामिल हो गए. 2017 के चुनावों से ऐन पहले भी ऐसा ही हुआ था. उस साल की शुरुआत में राज्यसभा चुनाव थे, और कई कांग्रेसी नेताओं ने पाला बदल लिया था.
लेकिन यह भी सच है कि सभी दलबदलुओं को इनाम नहीं मिलता. जैसे ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर बीजेपी में शामिल होने के बाद अपनी सीट राधनपुर से उपचुनाव हार गए.
कांग्रेस इस बार अपने ही कुछ हाई प्रोफाइल पूर्व विधायकों से जूझ रही है. इसमें कांग्रेस के गढ़ मानी जाने वाली दो सीटें- जसदण और वडगाम शामिल हैं, जहां कांग्रेस के पूर्व दिग्गज कुंवरजी बावलिया और मणिलाल वाघेला बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं.
लब्बोलुआब यह है कि कांग्रेस का माजी उम्मीद और नाउम्मीदी के बीच झूल रहा है. आधार और संगठन अगर उसके हिमायती लगते हैं, तो कुछ अफसाने ऐसे भी हैं जिन्हें अंजाम तक लाना मुमिकन नहीं लग रहा.
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