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गुजरात चुनाव: वोट शेयर-फिक्स वोटर कांग्रेस के पक्ष में, लेकिन 3 फैक्टर से नुकसान

Gujarat Chunav 2022: करीब एक दर्जन सीटें ऐसी हैं जो कांग्रेस पिछले दो दशकों से नहीं हारी है.

आदित्य मेनन
पॉलिटिक्स
Published:
<div class="paragraphs"><p>Gujarat Elections: कांग्रेस के लिए तीन पॉजिटिव हैं तो तीन नेगेटिव भी</p></div>
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Gujarat Elections: कांग्रेस के लिए तीन पॉजिटिव हैं तो तीन नेगेटिव भी

फोटो- क्विंट हिंदी

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गुजरात विधानसभा चुनावों (Gujarat Elections) के सबसे बड़े सवालों में से एक सवाल यह है कि क्या कांग्रेस आम आदमी पार्टी से शिकस्त खाने वाली है, और अगर ऐसा है तो किस हद तक. तीन महीने पहले यह धारणा बनाई गई थी कि आम आदमी पार्टी के चलते कांग्रेस गुजरात में मुख्य विपक्षी पार्टी का दर्जा गंवा सकती है.

लेकिन जैसे-जैसे चुनाव अभियान तेज हुआ और उम्मीदवारों के नामों की घोषणा हुई, कहा जाने लगा कि कांग्रेस में नई जान आ गई है और गुजरात में उसका मुख्य विपक्षी पार्टी का दर्जा बरकरार रहने वाला है. हां, उसका प्रदर्शन 2017 जैसा रहने की उम्मीद कम ही है.

कई वजहों से कांग्रेस ने गुजरात चुनावों में दोबारा पैठ बनाई है. हम यहां तीन पॉजिटिव और तीन नेगेटिव प्वाइंट्स बता रहे हैं जिनकी बनिस्बत कांग्रेस के लिए उम्मीद बढ़ी है तो नाउम्मीदी भी.

पॉजिटिव

वैसे पिछले एक महीने में कांग्रेस को “नई जिंदगी” मिलना इतना अचानक या हैरत भरा नहीं है. पहले के चुनावों, खासकर 2007 और 2012 में भी ऐसा ही लग रहा था कि कांग्रेस तस्वीर में है ही नहीं. फिर भी उसे अच्छा खासा वोट शेयर मिला था.

दलबदल और नेतृत्व के अभाव के बावजूद कांग्रेस के पास राज्य में आधार भी है, और संगठन भी और वह उसे अखंड रखे हुए है. इसीलिए आप इसे नई जिंदगी भी नहीं कह सकते क्योंकि कांग्रेस ने अपने खुद का आधार फिर से हासिल किया है. यहां हम तीन आधारों को देख सकते हैं.

वोट शेयर

मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के चरम पर भी कांग्रेस ने 38 प्रतिशत और उससे अधिक का स्थिर वोट शेयर बहाल रखा था. पार्टी आज तक गुजरात में किसी भी विधानसभा चुनाव में 30 प्रतिशत के वोट शेयर से नीचे नहीं गिरी है.

हालांकि 1998 के बाद से चुनाव काफी हद तक दोतरफा रहे हैं. अब देखना यह होगा कि आम आदमी पार्टी या एआईएमआईएम जैसी नई पार्टियों के उभरने से कांग्रेस को कितना नुकसान होता है.

सीट

करीब एक दर्जन सीटें ऐसी हैं जो कांग्रेस पिछले दो दशकों से नहीं हारी है. इनमें खेड़ब्रह्मा, दरियापुर, जमालपुर-खड़िया, जसदान, बोरसाद, महुधा, व्यारा, दांता, कपराडा, वंसदा, भिलोदा और वडगाम शामिल हैं.

हालांकि इनमें से कई सीटों पर कांग्रेस को बीजेपी के साथ-साथ आम आदमी पार्टी, एआईएमआईएम और भारतीय ट्राइबल पार्टी की मौजूदगी के कारण चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है.

कुछ सेगमेंट्स में मजबूत मौजूदगी

आदिवासी और अल्पसंख्यक सीटों पर कांग्रेस खास तौर से मजबूत है. इसके अलावा आदिवासी और गैर आदिवासी बहुत ग्रामीण इलाकों में भी उसने लगातार अपना आधार बनाए रखा है.

यह विशेष रूप से उत्तर गुजरात और सौराष्ट्र के कुछ हिस्सों में है. ऊपर जितनी सीटों का जिक्र किया गया है, उनमें जमालपुर खड़िया और दरियापुर जैसी मुस्लिम बहुल सीटों को छोड़कर दूसरी सभी मुख्य रूप से ग्रामीण सीटें हैं.

दलित वोटरों में भी कांग्रेस का स्थिर आधार है. यह उन कुछ सामाजिक समूहों में से एक था जिसने 2019 के लोकसभा चुनावों में भी कांग्रेस का समर्थन किया था, भले ही कांग्रेस ने आदिवासियों के बीच अपना समर्थन खो दिया था.

सीएसडीएस के आंकड़ों के अनुसार, गुजरात के दलितों के बीच कांग्रेस का समर्थन वास्तव में 2017 के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव के बीच बढ़ा, भले ही दूसरे सामाजिक समूहों के बीच इस समर्थन में गिरावट आई.

हालांकि यह भी सच है कि गुजरात में दलितों की आबादी सिर्फ 7 प्रतिशत और मुस्लिमों की 10 प्रतिशत से कम है. इसके अलावा आदिवासियों और ओबीसी के बीच बीजेपी का असर बढ़ा है, चूंकि यह सामाजिक समूह परंपरागत रूप से कांग्रेस समर्थक रहे हैं.

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नेगेटिव

2017 की शैली की लहर अब नहीं है

बीजेपी की अगुवाई वाली राज्य सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर बहुत अधिक है लेकिन यह भी सच है कि 2017 के चुनावों से पहले तीन आंदोलनों ने कांग्रेस को तब फायदा पहुंचाया था. ये आंदोलन थे

  • पाटीदार अनामत आंदोलन, कोटा में बदलाव के खिलाफ ओबीसी का प्रदर्शन और ऊना में मारपीट की घटना के खिलाफ दलित विरोध. ये वजहें अब नदारद हैं.

  • जातिगत व्यवहार को लेकर लोगों को सत्तासीन बीजेपी से शिकायत थी, और इससे कांग्रेस का समर्थन बढ़ा.

अभी सिर्फ एक ही मामला ऐसा हुआ है. मालधारी समुदाय की महापंचायत ने बीजेपी से नाराजगी जताई है और कांग्रेस के समर्थन की घोषणा की है. इसके अलावा कांग्रेस के लिए ऐसा कोई दूसरा फैक्टर काम नहीं करेगा.

वैसे 2017 में नोटबंदी और जीएसटी के खिलाफ जनता में गुस्सा था और कांग्रेस को इसका फायदा हुआ था. इसके विपरीत कोविड-19 मौतें और लॉकडाउन के कारण हुए आर्थिक नुकसान, इस बार चुनावी मुद्दे नहीं बने हैं.

विपक्षी कुर्सियों के दावेदार कम नहीं

पिछले 25 वर्षों में गुजरात में बीजेपी और कांग्रेस के बीच दोतरफा लड़ाई देखी गई है. 80 के दशक और 90 के दशक की शुरुआत में जनता दल एक महत्वपूर्ण पार्टी हुआ करती थी.

अब यह तीसरी जगह फिर उभर आई है और इस पर आदमी पार्टी का कब्जा होता दिख रहा है. अभी यह साफ नहीं है कि आम आदमी पार्टी को कितना फायदा हुआ है, और इससे किसे संकट में डाला है- बीजेपी को या कांग्रेस को. बीजेपी के संगठन और संसाधनों की ताकत को देखकर लगता है कि कांग्रेस ही वह कमजोर कड़ी बन सकती है जिसके वोटों में आम आदमी पार्टी ने सेंध लगाई है.

फिर भारतीय ट्राइबल पार्टी और एआईएमआईएम हैं, जो क्रमशः आदिवासी और मुस्लिम वोटों को खींच रही हैं. दोनों को कांग्रेस का पारंपरिक समर्थक आधार माना जाता है.

वैसे भारतीय ट्राइबल पार्टी को अंदरूनी कलह का सामना भी करना पड़ रहा है- पार्टी के कर्ता-धर्ता छोटूभाई वसावा और उनके बेटे महेश वसावा के बीच ही खींचतान मची है. पार्टी को अपने गढ़ झगड़िया और देदियापाड़ा में भी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है, लेकिन जिन अन्य सीटों पर वह चुनाव लड़ रही है, वहां वह कांग्रेस को कुछ हद तक नुकसान पहुंचा सकती है.

एआईएमआईएम के बारे में भी यही कहा जा सकता है, जो राज्य में एक दर्जन से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ रही है. जमालपुर खड़िया और दरियापुर जैसे मुस्लिम बहुल क्षेत्रों को कांग्रेस की ठोस सीटें माना जाता था, लेकिन अब एआईएमआईएम के कारण ये सीटें खतरे में पड़ सकती हैं.

एआईएमआईएम के प्रदेश अध्यक्ष साबिरभाई काबलीवाला जमालपुर (अब जमालपुर खड़िया) से कांग्रेस के पूर्व विधायक हैं. उन्होंने 2012 में इस सीट से निर्दलीय चुनाव लड़ा था और 24 प्रतिशत वोट हासिल किए थे.

उन्हें इस चुनाव में एआईएमआईएम के मजबूत उम्मीदवारों में एक माना जाता है.

दलबदल

कांग्रेस की एक समस्या यह भी है कि उसके कई नेता बीजेपी में चले गए हैं. 2017 में निर्वाचित 77 कांग्रेसी विधायकों में से लगभग 14 बीजेपी में शामिल हो गए. 2017 के चुनावों से ऐन पहले भी ऐसा ही हुआ था. उस साल की शुरुआत में राज्यसभा चुनाव थे, और कई कांग्रेसी नेताओं ने पाला बदल लिया था.

इससे आम आदमी पार्टी और एआईएमआईएम जैसे कांग्रेस के प्रतिद्वंद्वियों को मौका मिल गया. उन्होंने यह दलील देनी शुरू कर दी कि अगर जनता कांग्रेस उम्मीदवार को वोट करेगी तो एक तरह से वह बीजेपी के संभावित दलबदलू को ही वोट दे रही होगी.

लेकिन यह भी सच है कि सभी दलबदलुओं को इनाम नहीं मिलता. जैसे ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर बीजेपी में शामिल होने के बाद अपनी सीट राधनपुर से उपचुनाव हार गए.

कांग्रेस इस बार अपने ही कुछ हाई प्रोफाइल पूर्व विधायकों से जूझ रही है. इसमें कांग्रेस के गढ़ मानी जाने वाली दो सीटें- जसदण और वडगाम शामिल हैं, जहां कांग्रेस के पूर्व दिग्गज कुंवरजी बावलिया और मणिलाल वाघेला बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं.

लब्बोलुआब यह है कि कांग्रेस का माजी उम्मीद और नाउम्मीदी के बीच झूल रहा है. आधार और संगठन अगर उसके हिमायती लगते हैं, तो कुछ अफसाने ऐसे भी हैं जिन्हें अंजाम तक लाना मुमिकन नहीं लग रहा.

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