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वोकल फॉर लोकल. लगता है देश के वोटर ने मोदी जी की बात को कुछ ज्यादा ही सीरियसली ले लिया है. गुजरात में बीजेपी की बंपर जीत, हिमाचल में कांग्रेस की वापसी, दिल्ली पर अब केजरीवाल का टोटल कंट्रोल. 7 और 8 दिसंबर को हुई मतगणना के बाद चल रही सुर्खियों का निचोड़ यही है. लेकिन 2022 के चुनाव इन सुर्खियों से परे भी कई संदेश दे रहे हैं. बता रहे हैं कि वोटर का मूड क्या है? देश की सियासत किधर जा रही है? 2024 के सियासी समर की सूरत कैसी हो सकती है? ये चुनाव मोदी से लेकर कांग्रेस और केजरीवाल तक को कुछ सबक भी दे रहे हैं.
जैसा कि मैंने कहा वोकल फॉर लोकल. और जब मैं ऐसा कह रहा हूं तो सिर्फ मुद्दों नहीं, नेताओं की भी बात कर रहा हूं. गुजरात में बीजेपी की प्रचंड जीत के पीछे मोदी फैक्टर को भी एक वजह माना जा रहा है. लेकिन याद रखिएगा मोदी गुजरात के लिए राष्ट्रीय नेता नहीं, लोकल हैं. इस बार चुनाव प्रचार में भी मोदी ने खुद को पीएम नहीं, गुजरात के बेटे के तौर पर पिच किया. सामने की पार्टियों से गुजरातियों को कोई लोकल विकल्प नहीं मिला. केजरीवाल दिल्ली से गए थे. अच्छी एंट्री मारी लेकिन कोई बड़ी ताकत बन गए हों, ऐसा नहीं है. कांग्रेस में लोकल लेवल पर कौन सा चेहरा था? इस सवाल का जवाब हमें तो क्या कांग्रेस को भी नहीं पता होगा. तो कांग्रेस की गत आप देख ही रहे हैं.
खुद को सबसे अनुशासित पार्टी कहने वाली बीजेपी लोकल बागियों के आगे बेबस दिखी. अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष नड्डा के राज्य में ही हार गई. खुद मोदी ने ताकत लगाई. फतेहपुर सीट पर बागी कृपाल परमार से अपील की कि बगावत छोड़ो, लेकिन कृपाल नहीं माने. खुद हारे लेकिन इस सीट पर बीजेपी भी जीत नहीं पाई. बीजेपी ने राष्ट्रवाद से लेकर 370 नुस्खे आजमाए. लेकिन न तो ये न राष्ट्रीय नेता काम न आए. लोकल सरकार कारगर नहीं थी, हटा दी गई. केजरीवाल दिल्ली के दम पर पहाड़ चढ़ने गए थे, दम फूल गया.
एमसीडी में 15 साल से बैठी बीजेपी को दिल्ली ने बाहर निकाल दिया है. सत्ता की शक्तिपीठ इसी दिल्ली में है. बीजेपी नेताओं की पूरी रेंज यहां रहती है. मोदी जैसे सिपहसलार हैं तो कपिल शर्मा जैसों की सेना है. लेकिन एमसीडी में बीजेपी ने कूड़े से लेकर क्लासरूम तक काम नहीं किया, तो सजा मिली.
तो हिमाचल से दिल्ली और गुजरात तक मोदी, नड्डा, केजरीवाल सबको संदेश दिया गया है कि सिर्फ सियासी मंचों से मनोहारी बातें करने से वोटर का मन नहीं हर पाएंगे. बीजेपी ये मान कर बैठ जाए कि मोदी हैं तो सब जगह मुमकिन है, सबकुछ मुमकिन है, ये नामुमकिन है. कांग्रेस ऐन चुनावों के बीच अपनी पूरी ताकत भारत जोड़ो यात्रा में लगाकर सोचे कि पार्टी की राहुल के बूते किस्मत पलट जाएगी तो ये नहीं होगा. लोकल नेताओं को सम्मान देना होगा, तभी काम होगा. अकेले केजरीवाल भी आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय अवतार में अफलातूनी नहीं बना सकते. लोकल काडर चाहिए, लोकल नेता चाहिए.
बीजेपी कांग्रेस मुक्त भारत मिशन पर है. साम दंड भेद सबकुछ लगा रखा है. कांग्रेस ने भी खुद को कमजोर करने की कोशिश में कोई कसर नहीं छोड़ रखी है. लेकिन भारतीय लोकतंत्र का मिजाज ही ऐसा है कि एक पार्टी को माई-बाप नहीं बनाएगा. हिमाचल में बिना एड़ी चोटी लगाए कांग्रेस को जीत मिली है. कांग्रेस का जतन नहीं, जनमत है.
केजरीवाल और केंद्र में किचकिच से दिल्ली आजीज है लेकिन एक पार्टी को परवरदिगार बना दे, ये परंपरा नहीं है. गुजरात में भले ही बीजेपी को रिकॉर्डतोड़ जीत मिली है लेकिन वो सदा-सर्वदा एकमेव होगी, गारंटी नहीं. राज्य में AAP की 13 फीसदी वोट के साथ एंट्री आगे की राजनीति में विकल्प का रास्ता खोले रखेगी.
देश में अभी बीजेपी के मुकाबले कोई नहीं है. 2024 में भी यही सूरत रहने की उम्मीद है. लेकिन विपक्ष इन चुनावों से सबक ले, एकजुट हो तो बीजेपी अजेय नहीं है. एक के बाद एक राज्यों का वोटर कह रहा है विकल्प दो तो सोचेंगे. राजस्थान, कर्नाटक महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, हरियाणा, छ्त्तीसगढ़, झारखंड, बिहार यही संदेश था. बीजेपी ये बात समझती है, कर्नाटक और मध्य प्रदेश में उसकी पेशानियों पर पसीना यूं ही नहीं.
अब अगर विपक्ष भी ये समझे और राष्ट्रीय स्तर पर भी विकल्प दे तो ही रास्ते खुलेंगे. फिलहाल अपने जुझारूपन के कारण केजरीवाल ने साबित किया है कि वो 'मोदी नहीं तो कौन' का जवाब देने का मन रखते हैं. लेकिन इस वक्त और शायद 2024 में भी आम आदमी पार्टी की सीमाएं रहेंगी. बीजेपी के बुलडोजर को रोकना है तो राष्ट्रीय फुटप्रिंट रखने वाली कांग्रेस को साथ लाना होगा. ये कैसा होगा ये विपक्ष ही जाने. लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो 2024 में गुजरात का रिपीट टेलीकास्ट होगा. कहीं AAP होगी, कहीं AIMIM तो कहीं कोई और पार्टी.
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