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उत्तराखंड (Uttarakhand) में बीजेपी (BJP) ने अपने ही मंत्री हरक सिंह रावत (Harak Singh Rawat) को पार्टी से निकाल दिया. कुछ घंटों बाद हरक सिंह का रोते हुए वीडियो सामने आया. उन्होंने कहा, निकाले जाने की जानकारी सोशल मीडिया से मिली. पार्टी ने उनको बताना तक जरूरी नहीं समझा. हालांकि उत्तराखंड के सीएम पुष्कर सिंह धामी का कहना है कि वे अपने परिवार के सदस्यों के लिए टिकट की मांग कर रहे थे. ऐसे में सवाल ये है कि चुनाव से ठीक पहले हरक सिंह को पार्टी से निकाले जाने का असल कारण क्या है? इससे बीजेपी को कितना नुकसान होगा?
हरक सिंह रावत और बीजेपी के बीच विवाद 3 हफ्ते पहले खुलकर सामने आया था, जब खबर आई थी कि हरक सिंह रावत ने कैबिनेट मीटिंग में ही इस्तीफा दे दिया. तब पार्टी के नेताओं ने उन्हें मना लिया था. कैबिनेट मंत्री सुबोध उनियान ने कहा था कि हरक रावत की नाराजगी को दूर कर लिया गया है. अब पार्टी ने उन्हें निकाल दिया है, ऐसे में इस बात का भी शक होता है कि कहीं हरक सिंह रावत खुद ही जाने का मन तो नहीं बना चुके थे? इस सवाल का औचित्य क्या पहले ये समझिए.
पहला तो यही कि तीन हफ्ते पहले खबर ये आई थी कि उन्होंने खुद से इस्तीफे की पेशकश की, न कि निकाला गया.
बीजेपी ने रावत को निकालते वक्त कहा कि वो पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल थे. तो सवाल है वो गतिविधियां क्या थीं, कब की गई थीं. जनवरी में ऐसी कोई खबर नहीं आई. 3 हफ्ते पहले भी जब हरक ने इस्तीफे की पेशकश की थी तो मसला ये था कि वो अपने विधानसभा क्षेत्र कोटद्वार में एक मेडिकल कॉलेज की मांग पर इस्तीफे की धमकी दी थी. अब इसे पार्टी विरोधी गतिविधि तो नहीं कहा जा सकता और ये पार्टी विरोधी गतिविधि तो तब मनाया क्यों? अगर उससे पहले का भी कोई मसला है तो पार्टी अब क्यों कार्रवाई कर रही है? ऐसे में इस बात की पूरी संभावना है कि हरक दरअसल खुद जाने वाले थे. अगर ऐसा है तो क्यों?
ये बात किसी से छिपी नहीं है कि बीजेपी पांच साल पहले जिस मुकाम से चली थी वहां से अब काफी नीचे आ चुकी है. हालत ये है कि पार्टी तीन-तीन सीएम बदल चुकी है. माना जाता है कि एंटी इंकम्बैंसी फैक्टर को कम करने के लिए ये बदलाव किए गए. साथ ही पार्टी के अंदर ही नेतृत्व को लेकर असंतुष्टी थी, इसलिए कमान बदलनी पड़ी. कुल मिलाकर जनता और खुद बीजेपी के काडर में रोष है.
कोई ताज्जुब नहीं है कि पिछले हफ्ते एबीपी-सी वोटर सर्वे के मुताबिक राज्य में कांग्रेस और बीजेपी के बीच कांटे की टक्कर है. बीजेपी को सर्वे ने 31-37 तो कांग्रेस को 30-36 सीटें दी हैं. ऊपर से आम आदमी पार्टी भी दम भर रही है. हम ये भी जानते हैं कि चुनावी सर्वे आमतौर पर सत्तारूढ़ पार्टी की ओर झुके होते हैं. ऐसे में कोई ताज्जुब नहीं कि हरक हवा का रुख भांप रहे हों.
कुंभ में कुप्रबंधन, देवास्थानम बोर्ड, भू कानून को लेकर नाराजगी और पलायन-बेरोजगारी जैसे बड़े मुद्दों के बावजूद बीजेपी जीती तो जनादेश हिंदुत्व के एजेंडे को लेकर होगा. ऐसा हुआ तो शायद बीजेपी आयातित नेताओं को और कम तवज्जो देने लगे. ऐसा हुआ तो पार्टी अपने काडर को इनाम देगी कि हरक जैसे आया राम गया राम जैसों को. तो ये भी संभव है कि हरक भी ये सब समझ कर पाला बदल रहे हों. दूसरी तरफ हरीश सिंह रावत के नेतृत्व में कांग्रेस मजबूत स्थिति में दिख रही है.
उत्तराखंड बनने के बाद राज्य में 4 बार विधानसभा के चुनाव हो चुके हैं. चारों चुनावों में हरक सिंह रावत ने जीत हासिल की. लेकिन उनके कद का अंदाजा सिर्फ इस जीत से मत लगाइए. 4 में से 3 बार वे अलग-अलग विधानसभा सीटों से लड़े और भारी मतों से जीत हासिल की. राज्य में पहला चुनाव साल 2002 में हुआ. हरक सिंह को कांग्रेस से टिकट मिला. विधानसभा क्षेत्र लैंसडाउन. तब उन्हें इस क्षेत्र से 34% वोट मिले थे. उन्होंने बीजेपी उम्मीदवार भरत सिंह रावत को हराया था. फिर बारी आई 2007 के विधानसभा के चुनाव की. हरक सिंह को कांग्रेस ने लैंसडाउन से ही उम्मीदवार बनाया. दूसरी बार इनके वोटों में भारी इजाफा हुआ.
जहां 5 साल पहले 34% वोट मिले थे, वहां 42% वोटों के साथ जीत हासिल की. दूसरी बार भी बीजेपी के भरत सिंह रावत को हराया. उन्हें 29% वोट ही मिले थे. तीसरी बार चुनाव साल 2012 में हुआ. कांग्रेस ने उनकी विधानसभा सीट बदल दी. रुद्रप्रयाग से उम्मीदवार बनाया. यहां भी इन्होंने अपने जीत का रिकॉर्ड कायम रखा. 29.7% वोटों के साथ बीजेपी के मातबर सिंह को हराया. लेकिन साल 2017 के विधानसभा चुनाव में मामला कुछ उलट गया. ये बीजेपी में शामिल हो गए. तब बीजेपी ने इनकी सीट बदल दी और कोटद्वार से टिकट दिया. हरक सिंह ने यहां पर सबसे ज्यादा 56% वोटों के साथ जीत हासिल की.
पहली बार बीजेपी के टिकट पर पौड़ी से चुनाव लड़ विधायक बने: हरक सिंह रावत के कद का अंदाजा इससे भी लगा सकते हैं कि वे साल 1991 में यूपी के सबसे कम उम्र के मंत्री बने थे. वे पौड़ी से विधानसभा का चुनाव जीते थे. ये चुनाव भी काफी दिलचस्प था. हरक सिंह बीजेपी के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरे थे. पौड़ी विधानसभा सीट थी. 13 उम्मीदवार मैदान में थे. हरक सिंह को 48% वोट मिले थे. दूसरे नंबर पर कांग्रेस के पुष्कर सिंह थे, उन्हें 32% वोट मिले थे.
हरक सिंह रावत के राजनीतिक करियर को देखें तो 32 सालों में वे लगभग सभी दलों में जा चुके हैं. 1989 में बीजेपी से शुरुआत की. 1996 में बसपा में गए. गढ़वाल लोकसभा सीट से चुनाव लड़े, लेकिन हार गए. उन्हें सिर्फ 8% वोट ही मिले. फिर 1998 में कांग्रेस के साथ हो लिए. 2016 में बीजेपी में वापसी की. अब उम्मीद जताई जा रही है कि वह फिर से कांग्रेस में जा सकते हैं.
लेकिन हरक सिंह ने साल 2016 में जो किया, उसे कांग्रेस को भूलना भी मुश्किल है. हरक सिंह की वजह से ही राज्य में कांग्रेस की सरकार गिरने वाली थी. उन्होंने पार्टी तो छोड़ी थी साथ में 9 विधायकों को भी ले गए थे. लेकिन असली झटका साल 2017 में लगा. जब पार्टी की चुनाव में बुरी हार हुई. बीजेपी ने 70 विधानसभा सीटों में से 57 पर जीत हासिल की थी.
हरक सिंह रावत अलग-अलग विधानसभा सीटों से चुनाव लड़ चुके हैं. वे पौड़ी से लेकर लैंसडाउन और रुद्रप्रयाग से लेकर कोटद्वार तक चुनाव लड़ और जीत चुके हैं. अलग-अलग पार्टियों में भी रहे हैं. ऐसे में बीजेपी को गढ़वाल क्षेत्र की कुछ सीटों पर नुकसान हो सकता है. यहां विधानसभा की कुल 6 सीटें हैं.
यमकेश्वर, पौड़ी, श्रीनगर, चौबट्टाखाल, लैंसडाउन और कोटद्वार. इन सीटों में से तीन विधानसभा सीटों से वे खुद ही चुनाव जीत चुके हैं और बाकी सीटों पर भी उनका असर है. बीजेपी को भी शायद इस नुकसान का अंदाजा है. इसी वजह से एक महीने तक वे हरक सिंह के बर्ताव को सहती रही.
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