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फिलहाल बीजेपी ने हरियाणा और उत्तराखंड में अपनी राजनीतिक नाव को डूबने से बचा लिया है. एक तरफ मनोहर लाल खट्टर ने हरियाणा विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर हुई वोटिंग में बहुमत साबित किया तो वहीं दूसरी ओर उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिंह रावत की छुट्टी और तीरथ सिंह रावत ने सूबे की कमान संभाल ली.
भले ही दोनों राज्यों की राजनीतिक हाव-भाव अलग हों या बीजेपी अलग तरह की राजनीतिक संकट से गुजर रही हो, लेकिन दोनों में ही कुछ बात एक जैसी है.
दोनों ही राज्य बीजेपी की आंतरिक विरोधाभास को दूर करने की असमर्थता को दर्शाता है, जो राष्ट्रवाद और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के नाम पर दिख नहीं रही थी.
उत्तराखंड और हरियाणा दोनों में पूर्व सैनिकों की बड़ी आबादी है और पुलवामा हमले के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा के नैरेटिव की बड़ी गूंज सुनाई दी, जिसका बीजेपी की जीत में बड़ा योगदान रहा. गैर-हिंदू समुदायों की कम आबादी का मतलब यह भी था कि बीजेपी विरोधी वोट पंजाब या उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों की तुलना में कम था.
लेकिन यह भी सच है कि दो साल से भी कम समय में बीजेपी को इस तरह के संकट का सामना करना पड़ा है, जोकि यह दर्शाता है कि बीजेपी की राष्ट्रीय सफलता का मतलब ये नहीं है कि राज्य और स्थानीय स्तर पर भी समर्थन हासिल हो.
हरियाणा में बीजेपी और सीएम मनोहर लाल खट्टर के लिए मुसीबतें 2019 के विधानसभा चुनावों से ही शुरू हो गई थीं. ये चुनाव 2019 लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद हुआ था.
नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा 2020 में तीन कृषि कानूनों को पारित करने से पंजाब और हरियाणा में व्यापक विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, जहां किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सबसे अधिक निर्भर हैं.
अब कृषि कानून का मुद्दा बीजेपी, जेजेपी और सरकार के समर्थन वाले निर्दलीय विधायकों के किसानों द्वारा पूर्ण बहिष्कार के रूप में बदल रहा है.
बीजेपी और जेजेपी को हरियाणा में स्थानीय निकाय चुनावों में भी उलटफेर का सामना करना पड़ा, बीजेपी का गढ़ माने जाने वाले सोनीपत और पानीपत इलाके में भी असर देखने को मिला.
स्थिति इतनी खराब है कि जेजेपी चीफ और हरियाणा के डिप्टी सीएम दुष्यंत चौटाला किसानों के विरोध के कारण अपने ही गांव में अपने हेलीकॉप्टर को लैंड नहीं करा सके.
अब, कई जेजेपी समर्थकों के बीच यह धारणा है कि अविश्वास प्रस्ताव में बीजेपी सरकार का समर्थन करके, जेजेपी ने किसानों के हितों के सामने सत्ता को चुना है.
इससे भारतीय राष्ट्रीय लोकदल (INLD) और कांग्रेस को जाट वोटों में बदलाव की संभावना है, हालांकि बीजेपी और जेजेपी दोनों को उम्मीद है कि 2024 में अगले चुनाव होने तक पीएम मोदी सब ठीक कर देंगे.
उत्तराखंड में, हालांकि, 2022 की शुरुआत में विधानसभा चुनाव होने हैं, ऐसे में बीजेपी के पास समय नहीं है.
सत्ता के केंद्रीकरण की दो कोशिशों से रावत ने अपना मामला बिगाड़ लिया था.
सबसे पहले, जब सीएम रावत ने गैरसैंण कमिश्नरी का ऐलान किया तो उनके खिलाफ चली आ रही सुगबुगाहट खुलकर सामने आ गई. दूसरा, मंदिर बोर्डों पर अधिक से अधिक सरकारी नियंत्रण लगाने की उनकी कोशिश. दोनों ही फैसलों से बीजेपी खेमे में नाराजगी फैल गई - पहले मामले में कुमाऊं क्षेत्र के विधायक और दूसरे में हिंदुत्व संगठन.
आंतरिक विपक्ष ने रावत के भाग्य पर फैसला कर दिया. लेकिन उनके उत्तराधिकारी तीरथ सिंह रावत के लिए यह आसान सवारी नहीं होगी. उत्तराखंड में राजनीतिक अस्थिरता का इतिहास है और यह आंशिक रूप से दोनों क्षेत्रों के हितों को मैनेज करने में सीएम की अक्षमता के कारण हुआ है.
देखा जाए तो तीरथ सिंह रावत राजनीतिक रूप से बहुत मजबूत नहीं हैं और उनकी मजबूती ज्यादातर बीजेपी की केंद्रीय नेतृत्व के आशीर्वाद पर निर्भर करेगी. असल में, नए सीएम अगले साल होने वाले चुनावों में पूरी तरह से पीएम मोदी पर निर्भर हो सकते हैं.
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