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लोकसभा चुनाव 2019 का बिगुल बज चुका है. राजनीतिक दल जनता के बीच जाने को तैयार हैं. जिन राज्यों में दल सत्ता पक्ष के सामने कमजोर पा रहे हैं, वो दूसरे दलों के साथ मिलकर गठबंधन कर रहे हैं.
राजनीतिक दलों के प्रवक्ता टीवी डिबेट में अपना पक्ष रख रहे हैं, तो दलों के स्टार प्रचारक रैलियों की तैयारी में लगे हुए हैं. इन सबके अलावा चुनावों में राजनीतिक दलों के घोषणापत्र का भी काफी महत्व होता है. राजनीतिक दल इन घोषणापत्रों के जरिए जनता के सामने अपना विजन रखते हैं, जिसके आधार पर जनता अपना नेता चुनती है.
यह घोषणापत्र चुनावी वाद-विवाद का स्तर भी तय करते हैं. बहुत बार वे इन विवादों का स्तर ऊपर ले जाते हैं और कई बार छोटे-मोटे वायदे करके वे इनका स्तर गिरा भी देते हैं.
सांसद वरुण गांधी ने आलोचना करते हुए कहा कि आम आदमी इन घोषणापत्रों को पढ़ ही नहीं पाता और यह टीवी पत्रकारों एक अर्थशास्त्रियों के बीच एक बौद्धिक क्रिया बनकर रह जाती है. लेकिन सच्चाई यह है कि घोषणापत्र जनतंत्र का एक अहम हिस्सा है और भारतीय राजनीति में वे हमेशा एक मुख्य भूमिका निभाएंगे. इसको ध्यान में रख, हमने 2014 के बीजेपी और कांग्रेस के घोषणापत्रों का विश्लेषण किया और तीन तरीके तय किए, जिससे उन्हें और भी बेहतरीन, निर्माणकारी और उच्च कोटि का बनाया जा सके.
पहली बात ये है कि इन घोषणापत्रों में दूरदर्शिता और तात्कालिक जरूरतों का संतुलन नहीं है, जोकि होना चाहिए. 2014 के घोषणापत्रों में दीर्घावधि लक्ष्यों का जिक्र अस्पष्ट शब्दों में किया गया है.
इसके उलट अल्पकालीन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए एक ज्यादा साफ रणनीति घोषणापत्रों में दिखती है. कितने रोजगार होंगे और कब तक? और उससे अर्थव्यवस्था को कितना फायदा होगा? इन सब चीजों का उल्लेख विस्तार से किया गया है. लेकिन दीर्घावधि लक्ष्यों पर ऐसी कोई चर्चा नहीं है. राजनेताओं को समझना चाहिए कि दूरदर्शी सुधारों से ही भारत अपनी असली क्षमता को छू पायेगा और घोषणापत्रों में उनके बारे में और विस्तार से चर्चा होनी चाहिए.
दूसरा ये कि घोषणापत्रों में कौन से सुधार राजनीतिक दल करेंगे यह तो लिखा जाता है पर कैसे करेंगे इसका विश्लेषण बिल्कुल नहीं होता.
कांग्रेस लिखती है, “प्राथमिक स्वास्थ्य क्षेत्र को और बेहतरीन बनाया जायेगा” और BJP लिखती है कि “अर्थव्यवस्था को सुरक्षित करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य को प्राथमिकता दी जाएगी.” लेकिन ये सब होगा कैसे? वादे तो बहुत बड़े-बड़े हैं. जैसे 'एक करोड़ नौकरी लायी जाएंगी' या 'भारत को दुनिया का सबसे स्वच्छ देश बनाया जायेगा'. पर ये सब करेगा कौन? इन सुधारों को करने के लिए कितने पैसे लगेंगे? पैसे कहां से आएंगे? इन सवालों के जवाब जरूरी हैं और घोषणापत्रों में इस तरह की जानकारी अहम है.
आखिरी और सबसे जरूरी बात. राजनीतिक दलों को व्यापक शर्तों की परिभाषा को साफगोई से लिखना चाहिए. स्वास्थ्य , शिक्षा, आविष्कार और विकास जैसे शब्दों का इस्तेमाल काफी उदारता से हुआ है.
पैसों की कमी और राजनीतिक उतार-चढ़ाव जैसे कई कारणों की वजह से प्रधानमंत्री को सोचना पड़ता है कि क्या मैं 5 नए स्कूल खोलूं, जिसमें छोटे बच्चे पढ़ सकें या 3 नए कॉलेज, जिसमें बड़े बच्चे पढ़ सकें? ' यह हर शासन की दुविधा है- चाहे कांग्रेस हो, या बाजेपी या कोई और.
अगर अनलिमिटेड टाइम और पैसा होता तो सब कुछ हो जाता, पर ऐसा नहीं है और राजनेताओं को इस असमंजस से निकलने के लिए कोई एक फैसला लेना पड़ता है. इन फैसलों की नींव एक 'शिक्षित भारत' की कल्पना से आती है और इस लिए बहुत जरूरी है की जनता उस कल्पना को जानें और पहचाने. सारे शब्दों का उल्लेख नहीं पर जो जरूरी और बड़े-बड़े क्षेत्र हैं जैसे- शिक्षा, स्वास्थ्य, कानूनी सिद्धांत और अर्थव्यवस्था के पैमानों को घोषणापत्रों में साफ करना चाहिए.
घोषणापत्रों को नए तरीके से लिखने के दो फायदे हैं. पहला- ज्यादा स्पष्ट रूप से राजनीतिक दल अपनी बातों को और विस्तार से रख पाएंगे और राजनीतिक विवादों के स्तर भी बढ़ेंगे. दूसरा- स्पष्ट घोषणापत्र आम आदमी को और जागृत करेंगे और टीवी डिबेट जो इन घोषणापत्रों को आम आदमी तक पहुंचाते हैं, इन पर आम आदमी का आश्रय कम होगा. इन सुझावों को लागू करने से भारत में जनतंत्र की गुणवत्ता और राजनीति में भी सुधार होने की संभावना दोनों बढ़ेगी.
(प्रखर मिश्र और कादम्बरी शाह आई.डी.एफ.सी. इंस्टिट्यूट में विश्लेषक हैं. ये लेखिका और लेखक के अपने विचार हैं. इन विचारों का क्विंट से कोई सरोकार नहीं है. )
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