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कर्नाटक विधानसभा चुनाव (Karnataka Election 2023) में क्या कांग्रेस की '40 प्रतिशत सरकार' वाली बात बीजेपी को हरा पाएगी या फिर 'बजरंग बली' के नाम पर बीजेपी कामयाब हो जाएगी? या जनता दल (सेक्युलर) किंगमेकर बनकर उभरेगा? कर्नाटक के मतदाता 224 विधायकों और राज्य की अगली सरकार चुनने के लिए 10 मई यानी आज मतदान कर रहे हैं. सत्तारूढ़ बीजेपी के लिए दांव ऊंचे हैं और संभवत: कांग्रेस और JD-S के लिए इससे भी ज्यादा. आइए जानते हैं कि दो विपक्षी दलों के लिए दांव कितने अधिक हैं? वो कौन से एक्स-फैक्टर हैं, जो यह तय कर सकते हैं कि यह चुनाव किस तरफ जाएगा?
अगर बीजेपी की बात की जाए तो राज्य में प्रधानमंत्री नरेंद्र का बड़े स्तर पर कैंपेन करना इस बात की ओर इशारा करता है कि पार्टी फिर से सत्ता पर काबिज होने के लिए हर हथकंडे अपना रही है. क्योंकि अगर कर्नाटक बीजेपी के हाथ से निकलता है तो इसका मतलब साउथ में एक महत्वपूर्ण आधार के खोने जैसा होगा.
लेकिन बीजेपी का चुनाव प्रचार मॉडल ऐसा है कि वह राज्य स्तर पर प्रतिकूल नतीजों से पीएम मोदी की लोकप्रियता को बचाने में सफल रही है. उदाहरण के लिए, बीजेपी 2019 लोकसभा चुनाव से ठीक पहले हुए विधानसभा चुनावों में कई राज्यों में हार गई - जैसे कि राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़... लेकिन लोकसभा चुनावों में उसने इन सभी राज्यों में जीत हासिल की.
बीजेपी के पास अभी भी नुकसान की भरपाई करने के लिए काफी कुछ है. लेकिन विपक्ष के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है.
कांग्रेस के एक अंदरूनी सूत्र ने द क्विंट से बात करते हुए बताया कि अगर बीजेपी चुनाव हारती है तो उसको इससे बहुत असर नहीं होगा लेकिन अगर हम हारेंगे तो 2024 भी हांथ से निकल जाएगा.
मौजूदा वक्त में कांग्रेस केवल तीन राज्यों- छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान में सत्ता पर काबिज है. यह बिहार, तमिलनाडु और झारखंड में सत्तारूढ़ गठबंधन में एक जूनियर पार्टनर है.
एक पहलू और है जिसको समझने की जरूरत है. कांग्रेस ने अपनी खुद की गारंटी और गरीब-समर्थक नीतियों का ऐलान करने के अलावा भ्रष्टाचार पर बीजेपी को निशाना बनाते हुए एक स्पष्ट मुहिम के साथ जमीन पर एक सक्षम अभियान चलाया है.
दूसरी ओर, बीजेपी ने आखिरी फेज में अपने अभियान को अत्यधिक वैचारिक बना दिया. बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने के कांग्रेस के प्रस्ताव को बजरंगबली यानी हनुमान का अपमान बताकर तोड़-मरोड़ कर पेश किया.
कांग्रेस को उम्मीद होगी कि कर्नाटक उसे 1978 में चिकमंगलूर उपचुनाव की तरह राष्ट्रीय पुनरुद्धार के रास्ते पर ले जाएगा.
कांग्रेस के साथ गठबंधन में 2018-19 की एचडी कुमारस्वामी के नेतृत्व वाली सरकार को छोड़कर, जेडी-एस कर्नाटक और केंद्र में कुछ वर्षों से सत्ता से बाहर है. इसका वोट शेयर भी स्थिर हो गया है. पुराने मैसूर इलाके में प्रभावी वोक्कालिगा के बीच इसके आधार को छोड़कर, अन्य समुदायों और अन्य क्षेत्रों में भी पार्टी को नुकसान हुआ है.
वोक्कालिगा वोट बैंक पर इसकी पकड़ की चाबी पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा की मौजूदगी है. 90 साल के होने के बावजूद उनका स्वास्थ्य ठीक है लेकिन इस जनाधार को निशाना बनाने में बीजेपी और कांग्रेस दोनों तेजी से हमलावर हो गए हैं.
बीजेपी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में ओल्ड मैसूर रीजन में अच्छा प्रदर्शन किया था और वोक्कालिगाओं के लिए इसका 2 प्रतिशत आरक्षण का फैसला समुदाय के लिए एक अहम प्रस्ताव है.
अभी तक वोक्कालिगाओं या पुराने मैसूर क्षेत्र में हिंदुत्व की पैठ बहुत कम रही है.
जहां तक कांग्रेस का सवाल है, उसके राज्य इकाई प्रमुख डीके शिवकुमार वोक्कालिगा हैं और कनकपुरा और बेंगलुरु ग्रामीण इलाके में बेहद लोकप्रिय हैं. हालांकि, शिवकुमार यह भी जानते हैं कि जब तक एचडी देवेगौड़ा हैं, तब तक वो सबसे बड़े वोक्कालिगा नेता नहीं बन सकते.
लेकिन JD-S यह भी जानती है कि शिवकुमार एक जुझारू और मेहनती नेता हैं, जिनका प्रभाव लगातार बढ़ रहा है.
जेडी-एस के लिए दूसरा खतरा मुस्लिम और दलित समर्थन का छिटकना है, जो इसे पहले मिलता था. राज्य की राजनीति में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए इसे एक बार फिर किंगमेकर के रूप में उभरने की जरूरत है.
दो ओपिनियन पोल्स Zee News-Matrize और Jan ki Baat को छोड़कर अन्य सभी सर्वे में या तो कांग्रेस की मामूली जीत या त्रिशंकु विधानसभा में कांग्रेस के सबसे बड़े दल के रूप में होने की उम्मीद जताई गई है. इसकी कई वजहें हैं.
कांग्रेस बहुमत के आंकड़े को पार करने के लिए ग्रामीण इलकों में एक लहर पर भरोसा कर रही है. पार्टी का मानना है कि ग्रामीण मतदाता उसकी नीतिगत गारंटी के प्रति सबसे अधिक अनुकूल होंगे और साथ ही अभियान के अंतिम चरण में बीजेपी की वैचारिक पिच से प्रभावित होने की संभावना कम होगी.
लिंगायत कर्नाटक में बीजेपी का मुख्य आधार रहे हैं. हालांकि इस बार पार्टी ने दोहरा दांव खेला है. इसने पंचमसालियों के लिए दो प्रतिशत कोटा प्रदान किया है, जो लिंगायत के अंदर एक उप-समूह है, जिनकी संख्या ज्यादा है.
दूसरी बात यह है कि बीजेपी ने पूर्व सीएम जगदीश शेट्टार और पूर्व डिप्टी सीएम लक्ष्मण सावदी जैसे सीनियर लिंगायत नेताओं को छोड़कर कांग्रेस में शामिल होने दिया.
चूंकि शेट्टार पंचमसाली नहीं हैं, इसलिए बीजेपी को लगता है कि उनके बाहर निकलने से पार्टी को ज्यादा नुकसान नहीं होगा.
अगर यह बदलाव नहीं होता है और बीजेपी लिंगायत वोट का 50 प्रतिशत से ज्यादा अपने हिस्से में लाती है, तो यह संभवतः त्रिशंकु विधानसभा की ओर ले जा सकती है या यहां तक कि बीजेपी को सत्ता में वापस आने में मदद कर सकती है.
2018 के चुनाव में, कांग्रेस ने बीजेपी के 36 प्रतिशत की तुलना में 38 प्रतिशत वोट हासिल किए और फिर भी 180 सीटें ही जीत सकी जब्कि बीजेपी ने 104 सीटों पर जीत हासिल की. इसकी दो वजहें हैं.
सबसे पहले, बीजेपी और जेडी-एस के विपरीत, कांग्रेस पूरे राज्य में रेस में थी. इसलिए इसके वोट ज्यादा फैले हुए थे.
कांग्रेस ने जिन 221 सीटों पर चुनाव लड़ा, उनमें से सिर्फ 13 सीटों पर उसकी जमानत जब्त हुई, जबकि बीजेपी की 36 और जेडी-एस की 107 सीटें थीं. इसका मतलब है कि कांग्रेस हारी हुई 141 सीटों में से 128 में 16.66 प्रतिशत से अधिक का वोट शेयर हासिल कर चुकी है.
पीएम नरेंद्र मोदी ने वोटिंग से पहले पिछले कुछ हफ्तों में बीजेपी के प्रचार अभियान का नेतृत्व किया. खासकर बजरंग दल के मुद्दे पर मोदी ने इसे भगवान हनुमान से जोड़ कर घुमा दिया.
अब किष्किंधा का पौराणिक साम्राज्य, जिसे सुग्रीव ने हनुमान की सलाह से शासित किया था, अक्सर कर्नाटक के मौजूदा विजयनगर जिले में तुंगभद्रा नदी के आसपास के इलाके से पहचाना जाता है. इसलिए बीजेपी को उम्मीद है कि कांग्रेस के बजरंग दल बैन प्रस्ताव को 'भगवान हनुमान पर हमले' के रूप में पेश करने वाले उसके स्पिन से कर्नाटक में फायदा मिलेगा.
तस्वीर साफ नहीं है कि इस मुद्दे पर बीजेपी के कोर समर्थकों से आगे बढ़कर फायदा मिला या नहीं. उत्तर भारत के कुछ हिस्सों के विपरीत, आसपास के जिलों के अलावा कर्नाटक में बजरंग दल के साथ बहुत अधिक सहानुभूति नहीं है.
विधायकों के बदलते विश्वास ने चुनाव को उलझा दिया है. उदाहरण के लिए, 2019 में बीजेपी में शामिल होने वाले कांग्रेस के कई विधायकों को बाद में टिकट दिया गया, जिससे बीजेपी समर्थकों के एक वर्ग में नाराजगी फैल गई.
इस संदर्भ में एक दिलचस्प सीट बेलगावी जिले की अथानी है. इस सीट पर पिछली बार कांग्रेस के महेश कुमाथल्ली जीते थे, जिन्होंने बीजेपी के लक्ष्मण सावदी को हराया था. लेकिन कुमाथल्ली उन विधायकों में से एक थे, जो बीजेपी में शामिल हो गए थे. अब, वह बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं और उनके खिलाफ सावदी खड़े हैं, जो हाल ही में कांग्रेस में शामिल हुए हैं.
फिर बागियों का मुद्दा है. मिसाल के तौर पर बेंगलुरु की पुलकेशीनगर सीट को लें, जिसने 2018 के चुनावों में कांग्रेस को सबसे ज्यादा मार्जिन दिया था. यहां पार्टी ने मौजूदा विधायक अखंड श्रीनिवास मूर्ति को उतारा और एसी श्रीनिवास को चुना. मूर्ति अब बीएसपी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं.
2013 के चुनाव को छोड़कर, जिसमें बीएस येदियुरप्पा के बाहर निकलने की वजह से लिंगायत और वाल्मीकि वोट बड़े पैमाने पर बीजेपी से दूर हो गए थे, बीजेपी, कांग्रेस और जेडी-एस के अलग-अलग जातीय आधारों ने तीनों पार्टियों के वोट शेयर को कुछ हद तक स्थिर बना दिया था.
हालांकि, यह बताना भी जरूरी है कि यूपी और बिहार जैसे राज्यों में कुछ पार्टियों के लिए कुछ जाति समूहों के सामूहिक वोट को कर्नाटक में नहीं देखा जाता है क्योंकि बीजेपी और कांग्रेस दोनों की पहचान एक के साथ नहीं है.
बीजेपी उम्मीद कर रही है कि उसका मजबूत वैचारिक उछाल जातिगत वफादारी को पार करने और किसी तरह के हिंदू एकीकरण को हासिल करने में मदद कर सकता है.
दूसरी ओर, कांग्रेस मजबूत वर्ग-आधारित मतदान और गरीब मतदाताओं के समर्थन में उछाल की उम्मीद कर रही है.
एक एक्स-फैक्टर जो सर्वेक्षणों में छूट जाता है, वह है वोट का प्रभाव. सर्वेक्षण अलग-अलग सटीकता के साथ वोटरों के इरादे को देखते हैं लेकिन उनके लिए यह भविष्यवाणी करना बहुत मुश्किल है कि इन मतदाताओं का कितना अनुपात आता है या मतदान करने के लिए मिलता है.
बेंगलुरू शहर में टर्नआउट एक विशेष रूप से बड़ा मुद्दा है, जहां ऐतिहासिक रूप से वोटरों की उपस्थिति कम रही है. मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए चुनाव आयोग ने कई उपाय किए हैं और पार्टियां भी कोई रोक-टोक नहीं कर रही हैं लेकिन यह देखना बाकी है कि कितने मतदाता वोट डालने आते हैं.
एक संबंधित मुद्दा वोटरों का नाम वोटर लिस्ट से हटाने का है. ऐसी शिकायतें मिली हैं कि कई वोटरों को गलत तरीके से हटा दिया गया है. इसका अंदाजा वोटिंग के बाद ही लगाया जा सकता है.
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