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राजनीति की हांडी पर पकने वाली खिचड़ी तो पहले ही ‘नेशनल डिश’ है!

पॉलिटिकल खिचड़ी हमारे नेताओं को खूब रास आती है

प्रबुद्ध जैन
पॉलिटिक्स
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राजनीति में ‘खिचड़ी’ की अहमियत किससे छिपी है!
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राजनीति में ‘खिचड़ी’ की अहमियत किससे छिपी है!
(फोटो: तरुण अग्रवाल/Altered by The Quint)

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बड़ा हल्ला मचा. खिचड़ी राष्ट्रीय व्यंजन बन जाएगी. देश से विदेश तक खिचड़ी को इज्जत मिलेगी. विदेशी, उंगलियां चाटते रह जाएंगे. वगैरह-वगैरह. फिर खाद्य मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने 'खिचड़ी-भक्तों' पर बम गिरा दिया. उन्होंने कहा कि खिचड़ी को नेशनल डिश बनाने का कोई इरादा नहीं है, कोई प्लान नहीं है.

खिचड़ी-भक्तों, दिल छोटा करने की कोई जरूरत नहीं है. क्योंकि, जैसे किसी कागज के टुकड़े पर मुहर न लगने पर भी तारा पाकिस्तान पहुंच जाता है, ठीक वैसे ही सरकारी मुहर के बिना भी राजनीति की धीमी आंच पर पकने वाली मसाला खिचड़ी इस देश का राष्ट्रीय व्यंजन था, है और रहेगा.

गुजरात की चुनावी खिचड़ी

गुजरात में एक बहुत बड़ा बर्तन चढ़ाया जा चुका है. चुनावी चूल्हा चालू है. खिचड़ी के लिए जरूरी दाल और चावल तो डल गए हैं, अब जायका बढ़ाने के लिए मसालों का इंतजार है. और मसाले हैं कि नखरा दिखा रहे हैं. कह रहे हैं, किसी में पड़ जाएंगे खिचड़ी में नहीं पड़ेंगे, स्टेटस डाउन हो जाता है. सबसे बड़े मसाले- हार्दिक पटेल को कांग्रेस और बीजेपी दोनों अपनी-अपनी खिचड़ी में मिलाना चाहते थे ताकि गुजरात की जनता उंगलियां चाटती रह जाए. लेकिन, मसाले का डिब्बा खुला तो खुशबू तो खूब उड़ी, बस वो खिचड़ी में डलने को राजी नहीं हो रहा. बर्तन तक पहुंचता है और फिर डिब्बे में बंद हो जाता है. पीछे कुछ छूट जाता है तो वो है उसकी खुशबू.

ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर, कांग्रेस की खिचड़ी में पड़ चुके हैं. कहने वाले कह रहे हैं कि वो तो अपनी अलग खिचड़ी पकाने के लिए यहां पहुंचे हैं. सियासत की खिचड़ी के मजे ही कुछ और होते हैं.

गुजरात विधानसभा चुनाव में हार्दिक नाम के ‘मसाले’ की मांग बहुत है! (फोटोः The Quint)
अब देखिए न, कहां तो अल्पेश और हार्दिक महज साल भर पहले तक एक-दूसरे के खिलाफ बयानबाजी कर रहे थे और कहां कांग्रेस की खिचड़ी में दोनों के शामिल होने का रास्ता निकलने लगा. उधर, बीजेपी के देग में शुद्ध शाकाहारी खिचड़ी उबाल मार रही है. चाहत कुछ स्पेशल मसाले की है पर कहीं रख कर भूल गए हों जैसे! वैसे गुजरात में ‘वघारेलो खीचड़ौ’ भी चलता है, कभी उसे भी आजमाएं नेता..
गुजरात की जनता सिर खुजाते हुए सोच रही है कि आखिर ये क्या खिचड़ी पक रही है.

बिहार की 'सरकारी' खिचड़ी

2013 में दिल्ली में एक बड़ी खिचड़ी पकने की सुगबुगाहट बढ़ी तो बिहार के चूल्हे पर चढ़ी सरकारी खिचड़ी उतार ली गई. नीतीश कुमार और बीजेपी ने तय किया कि खिचड़ी की एक प्लेट के दो हिस्सेदार नहीं हो सकते. सब दाना-दाना होकर बिखर गया. हांडी काठ की हो बार-बार नहीं चढ़ती. पर चुनावी हो तो जितनी बार चढ़ाओ-उतारो, कोई फर्क नहीं पड़ता. 2015 में नीतीश-लालू ने मिलकर अढ़ाई सेर चावल की अलग खिचड़ी पकाने के लिए ऐसा छौंक लगाया कि कई नेताओं की पुरानी खांसी उखड़ आई. खांसी शांत तब हुई, जब इस खिचड़ी से दोनों को बदहजमी हो गई और दोनों अलग गलियों में मुड़ गए. दरवज्जे पर बीजेपी घी का पूरा डिब्बा लेकर तैयार खड़ी थी, नीतीश के पास ताजा बनी खिचड़ी की प्लेट थी. संगम ऐसा था, जिससे दोनों इनकार नहीं कर सके.

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यादव परिवार की 'पारिवारिक' खिचड़ी

खिचड़ी को लेकर यूं तो तमाम कहावतें हैं लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश की एक कहावत है- घी बनावै खीचड़ी और नाम बहू का होए. यानी खिचड़ी में असली स्वाद आता है घी के दम पर और नाम खामख्वाह बहू का हो जाता है. मुलायम परिवार की खिचड़ी की महक पहचान पाना, उसे खाना, फिर पचाना सब मुश्किल काम हैं. और इस खिचड़ी में बड़ी भूमिका 'बहू' की नहीं 'बेटे' की है. तड़का लगाने की जिम्मेदारी भी उनकी और घी डालने या न डालने का फैसला भी उनका. कौन मुलायम के साथ है, कौन अखिलेश के, शिवपाल अपने घर में क्या पका रहे हैं...सब गड्डमडड...सब खिचड़ी. समाजवादी किचन के समाजवादी मसालों से खिचड़ी बदजायका ज्यादा हो रही है.

मुलायम परिवार की ‘खिचड़ी’ किसी की समझ में नहीं आती (फोटो: द क्विंट)

कैसे भूल सकते हैं 90 के दशक की खिचड़ी सरकारें?

वैसे 90 के दशक को ही क्यों बदनाम करें. ये जो आपको यूपीए, एनडीए और न जाने कौन-कौन से यूनियन, एसोसिसिएशन और अलांयस दिखते हैं, वो खिचड़ी से कम हैं क्या. हर चुनाव से पहले और कभी चुनाव के तुरंत बाद जोड़-तोड़ शुरु होती है. चूल्हा गरम होता है, देग चढ़ती है, दलों के मसाले तैयार किए जाते हैं और एक खिचड़ी सरकार का फॉर्मूला सेट कर लिया जाता है.

90 के दशक के ढलान पर आते-आते सरकारों की खिचड़ी के मसाले कहीं और कूटे जाते थे, ‘पैकेट’ कहीं और खुलते थे, चूल्हा किसी और का होता था और परोसा किसी और ही पंडाल में जाता था. सबको ये तो पता होता था कि कहीं कोई खिचड़ी पक रही है, लेकिन उसमें से किसको कितनी मिलेगी, इसका कोई अंदाजा नहीं.

कभी देवेगौड़ा साल भर कुर्सी संभालते, कभी गुजरात अपनी तश्तरी लेकर काबिज हो जाते तो कभी अटल बिहारी वाजपेयी की खिचड़ी 13 दिन तक अपनी ताजगी बरकरार रखने में कामयाब हो जाती.

इसीलिए, सरकार को खिचड़ी को अलग से नेशनल डिश घोषित करने की कोई जरूरत नहीं. हमारे नेताओं ने, इस मुल्क की पॉलिटिक्स ने खिचड़ी को ऐसा ‘महान’ दर्जा दे रखा है कि वो बीरबल के जमाने से आज तक देश की ‘नेशनल पॉ़लिटिकल डिश’ बनी हुई है!

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