advertisement
संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्मावती को विरोध के चलते काफी पब्लिसिटी मिल रही है. लेकिन उससे ज्यादा आज देश भर में करणी सेना की चर्चा हो रही है.
लोकेंद्र सिंह पिछले दो दशकों से राजनीति में जमने की लगातार कोशिश कर रहे हैं. इस दौरान वे कभी बीजेपी, कांग्रेस का पाला बदलते रहे, तो कभी खुद की पार्टी बनाकर भी चुनाव लड़े. लेकिन तमाम कोशिशों में उन्हें हर बार हार का सामना करना पड़ा.
लोकेंद्र सिंह कालवी के पिता, कल्याण सिंह कालवी पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के बेहद करीबी थे. वीपी सिंह के बाद चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री बनवाने में उनकी अहम भूमिका थी.
चंद्रशेखर के कैबिनेट में कालवी मंत्री भी बने. कालवी 1989 के चुनावों में बाड़मेर से जीतकर सांसद बने थे.
लोकेंद्र सिंह कालवी भी अपने पिता की तर्ज पर राजनीति में आए. 1998 में वे बाड़मेर से चुनाव लड़कर पहली बार चुनावी राजनीति में उतरे. लेकिन इस चुनाव में उन्हें कर्नल सोनाराम चौधरी से करारी शिकस्त मिली.
सोनाराम चौधरी ने कालवी को 86 हजार वोटों से हराया. जहां सोनाराम चौधरी को 4,46,107 वोट मिले, वहीं कालवी को 3,60,567 वोट हासिल हुए.
रिपोर्टों के मुताबिक इस दौर तक कालवी जातीय राजनीति नहीं किया करते थे. 1999 में जाटों को राजस्थान में कुछ सुविधाएं मिल गईं. इसके बाद कालवी ने एक दूसरे राजपूत नेता देवी सिंह भाटी के साथ मिलकर राजपूत समाज की लामबंदी करने की कोशिश की. हांलाकि इसमें उन्हें कोई खास कामयाबी नहीं मिली.
2003 विधानसभा चुनावों में संगठन करीब 65 सीटों पर चुनाव लड़ा. हांलाकि प्रमुख नेता होने के बावजूद लोकेंद्र सिंह ने ये चुनाव नहीं लड़ा था. पार्टी से केवल देवी सिंह भाटी को ही जीत मिली. बाकि सभी कैंडिडेट हार गए.
कालवी ने 2006 में करणी सेना बनाई थी. करणी सेना का नामकरण बीकानेर जिले के करणी मंदिर के नाम पर हुआ है. 2008 में करणी सेना के विरोध के कारण जोधा-अकबर राजस्थान में रिलीज नहीं हो पाई थी.
तो कहा जा सकता है अगर इस पूरी कंट्रोवर्सी से किसी को सबसे ज्यादा लाभ हुआ है तो वो करणी सेना ही है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: undefined