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10 जून से लेकर 14 जून तक मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) के भोपाल में चिकित्सा शिक्षा मंत्री विश्वास सारंग (Vishwas Sarang) द्वारा आयोजित पंडित प्रदीप मिश्र की ‘शिवपुराण कथा’ में हजारों की संख्या में लोग चिलचिलाती धूप में बैठे रहे. बड़ी संख्या में लोगों ने धार्मिक नेताओं की उपस्थिति में खुद को मंत्रमुग्ध पाया.
बात दें कि राज्य में चुनाव होने से पहले लाखों की संख्या में फॉलोवर्स वाले इन बाबाओं को कई मंत्री अपने-अपने चुनावी क्षेत्रों में आमंत्रित कर रहे हैं.
चाहे वह धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री (Dhirendra Shastri) हों, पंडित प्रदीप मिश्रा, साध्वी ऋतंबरा, रावतपुरा सरकार, या फिर पंडोखर सरकार, ये सब चुनावी मौसम में फिर से प्रासंगिक हो गए हैं. हालांकि, यह सब होना हर पांच साल के राजनीतिक परिदृश्य में एक सामान्य घटना है.
पिछले कुछ महीनों में वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ-साथ मध्यप्रदेश के कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ ने भी 26 वर्षीय स्वयंभू धर्मगुरु शास्त्री से 'आशीर्वाद' लिया. बीते दिनों धीरेन्द्र शास्त्री काफी चर्चा में रहे, जब वह "लोगों की समस्याओं की भविष्यवाणी" करने का दावा किया. पिछले कुछ सालों में मध्य प्रदेश ने काफी धार्मिक प्रचारकों की मेजबानी की है. लेकिन सवाल यह कि राज्य इन्हें चुनावों के दौरान इतना ज्यादा पसंद क्यों करता है?
माधव सापरे म्यूजीअम ऑफ न्यूज पेपर एण्ड रिसर्च इंस्टिट्यूट के पत्रकार और संस्थापक विजय दत्त श्रीधर क्विंट को बताते हैं कि...
मध्य प्रदेश की राजनीति में धार्मिक उपदेशकों के हस्तक्षेप का एक लंबा इतिहास रहा है. पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के दौर में भी विख्यात स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती से लेकर धर्मगुरु साध्वी उमा भारती (Uma Bharti) तक का बोलबाला रहा है. उमा भारती को साल 2003 में मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्त किया गया था.
धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री और पंडित प्रदीप मिश्रा के हालिया कार्यक्रमों में आम जनता भारी संख्या में दिखाई दी. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, फरवरी 2023 में सीहोर जिले में मिश्रा के कार्यक्रम में करीब 20 लाख लोग शामिल हो गए. इसी कार्यक्रम में हुई भगदड़ में एक महिला की मौत हो गई और कई अन्य घायल हो गए थे.
शास्त्री के कार्यक्रमों ने राज्य से बाहर जैसे- छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और बिहार में भी काफी लोकप्रियता हासिल की है. नाम न छापने की शर्त पर एक वरिष्ठ पत्रकार ने द क्विंट से बात करते हुए कहा कि....
मध्य प्रदेश के एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार लज्जा शंकर हरदेनिया ने क्विंट को बताया कि 'बाबाओं' और उनके प्रभाव का इस्तेमाल अक्सर राजनीतिक दलों द्वारा वोटों में हेराफेरी करने के लिए किया जाता है और कुछ मामलों में आधिकारिक प्रोटोकॉल का भी उल्लंघन किया जाता है.
उन्होंने कहा कि "अर्जुन सिंह और दिग्विजय सिंह से लेकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सहित वर्तमान नेताओं तक शिक्षित लोग, युवा, राजनीतिक नेता - सभी हमारे संविधान के सिद्धांतों की पूरी तरह से अवहेलना करते हुए इन 'बाबाओं' के शिकार हो जाते हैं."
मध्य प्रदेश के मालवा, निमाड़, चंबल और बुंदेलखंड क्षेत्रों में इन 'बाबाओं' का काफी प्रभाव है. मालवा-निमाड़ क्षेत्र में 66, चंबल में 34 और बुंदेलखंड में 30 सीटें हैं. इसका मतलब मीडिया रिपोर्ट्स और राजनीति के जानकारों के मुताबिक कुल 130 सीटें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इन 'बाबाओं' और उनके आयोजनों से प्रभावित हैं.
जबकि शास्त्री जैसे 'बाबाओं' ने मध्य प्रदेश में बीजेपी की रणनीति के अनुरूप हिंदुत्व वर्चस्व और "बुलडोजर राज" की वकालत करने के बाद जनता का ध्यान आकर्षित किया है.
प्रदीप मिश्रा और रावतपुरा सरकार जैसे अन्य लोगों ने ऐसा करने के लिए एक नरम दृष्टिकोण का इस्तेमाल किया है. वहीं, स्थानीय भाषा के मीडिया के प्राइम-टाइम स्लॉट ने उनके एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए मंच तैयार किया है.
उनके विशाल अनुयायियों और मतदाताओं को प्रभावित करने की धारणा के बावजूद, वरिष्ठ पत्रकार से कमेंटेटर बने अरुण दीक्षित ने इस विचार का खंडन किया कि चुनाव उनसे प्रभावित होते हैं.
जबकि मध्य प्रदेश में अधिकांश विशेषज्ञों का कहना है कि 'बाबा' और उनका करिश्मा काम करता दिख रहा है. कांग्रेस और बीजेपी दोनों ने हिंदुत्व भावनाओं को भुनाने के लिए इस अतिश्योक्तिपूर्ण धारणा का उपयोग करने की कोशिश की है.
जानकारों का यह भी कहना है कि चूंकि ये 'बाबा' लाखों की संख्या में भीड़ जुटाते हैं, इसलिए पार्टियां इनके जरिए वोटिंग पैटर्न को प्रभावित करने की कोशिश करती हैं. जिन निर्वाचन क्षेत्रों में कांग्रेस और बीजेपी के बीच कड़ी टक्कर देखने को मिलती है, वहां इन 'बाबाओं' की नरम बातें जीत दिलाने में मदद साबित होती हैं.
2018 के विधानसभा चुनाव में 10 सीटों पर उम्मीदवारों के जीतने और हारने का अंतर एक हजार वोटों से कम था. वहीं 2000 वोटों के जीत के अंतर वाली 18 सीटें और 3000 वोटों के जीत के अंतर वाली 30 सीटें शामिल थीं.
नाम न छापने की शर्त पर एक अन्य राजनीतिक टिप्पणीकार ने कहा कि "राजनीतिक दलों ने पांच प्रमुख 'बाबाओं' की पहचान की है - धीरेंद्र शास्त्री, प्रदीप मिश्रा, पंडोखर सरकार, रावतपुरा सरकार और जया किशोरी - जिनके बारे में उनका मानना है कि वे उन्हें मालवा, चंबल, बुंदेलखंड और निमाड़ क्षेत्र में बहुमत के निशान को पार करने में मदद कर सकते हैं."
जहां शास्त्री बुंदेलखंड और मालवा के कुछ हिस्सों में लोकप्रिय हैं, वहीं मिश्रा का मालवा-निमाड़ क्षेत्र और नर्मदांचल के कुछ हिस्सों में प्रभाव है.
इसी तरह रावतपुरा सरकार चंबल और बुंदेलखंड में प्रसिद्ध हैं, जबकि पंडोखर सरकार चंबल और बुंदेलखंड क्षेत्र में आम जनता को प्रभावित करने के अलावा मालवा क्षेत्र में पूजनीय हैं.
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