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महाराष्ट्र में आज जो हो रहा है, साल 1989 में उत्तर प्रदेश में ऐसा ही हुआ था. राजनीतिक घटनाओं का सिलसिला एक जैसा है, जिससे राज्य की राजनीति में बदलाव आया है.
तत्कालीन जनता दल का गठन जनता पार्टी, जनमोर्चा, लोकदल (ए) और लोकदल (बी) के विलय से हुआ था. इस दल ने साल 1989 के विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की थी और चौधरी अजित सिंह के नाम का ऐलान पार्टी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में हुआ था.
उस साल जनता दल ने 208 सीटें जीती थीं और बहुमत से छह विधायकों की कमी थी. उत्तराखंड के अलग होने पहले उत्तर प्रदेश विधानसभा में 425 सदस्य थे और 213 इसमें शामिल थे. तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने ऐलान किया था कि चौधरी अजित सिंह मुख्यमंत्री बनेंगे और मुलायम सिंह यादव उपमुख्यमंत्री होंगे.
जब जनता दल सरकार के भव्य शपथ ग्रहण समारोह की तैयारी की जा रही थी, तब मुलायम सिंह यादव ने उपमुख्यमंत्री पद लेना अस्वीकार करते हुए मुख्यमंत्री के पद का दावा ठोक दिया और जनमोर्चा गुट के विधायकों का उन्हें समर्थन हासिल हुआ.
मुलायम नहीं माने और तत्कालीन माफिया डॉन डीपी यादव के सहयोग से अजित सिंह के ग्यारह वफादारों को वह अपने शिविर में लाने में सफल रहे. सीनियर नेता बेनी प्रसाद सिंह ने भी इस 'पावर गेम' में अहम भूमिका निभाई थी.
सीक्रेट वोटिंग का आयोजन यूपी विधानसभा के सेंट्रल हॉल में किया गया था और मुलायम सिंह यादव अपने विरोधी को पांच वोटों से हराकर मुख्यमंत्री बने. उन्होंने 5 दिसंबर, 1989 को पहली बार मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली.
साल 1992 में मुलायम जनता दल से अलग हो गए और अपनी खुद की समाजवादी पार्टी का गठन किया, उधर अजित सिंह ने 1998 में राष्ट्रीय लोक दल (RLD) बना लिया, जो आज भी वजूद में है. कई चुनावों में ये दोनों पार्टियां साथ आईं, लेकिन इन दो नेताओं में अनबन कभी पूरी तरह से दूर नहीं हुई और उनके बीच रिश्ता कभी सही नहीं हुआ.
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Published: 24 Nov 2019,05:16 PM IST