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दो दर्जन से ज्यादा बैठकों के बाद भी कांग्रेस-एनसीपी के गठबंधन पर अब तक फैसला नहीं हो सका है. जानकारी के मुताबिक, इन दोनों दलों के गठबंधन में पेच वंचित बहुजन अघाड़ी के नेता प्रकाश अंबेडकर को लेकर फंसा है.
कांग्रेस के लिए मुश्किल इस बात को लेकर है कि वो एनसीपी को छोड़कर वंचित बहुजन अघाड़ी (VBA) के साथ जाने का जोखिम लेने को तैयार नहीं है. तो वहीं वंचित बहुजन अघाड़ी, कांग्रेस से हाथ मिलाना चाहती है लेकिन एनसीपी पर कोई समझौता करने को तैयार नहीं है.
चुनाव में वोटों के बंटवारे को रोकने के लिए समविचारी पार्टियां अगर साथ नहीं आईं तो बीजेपी- शिवसेना गठबंधन को रोक पाना मुश्किल होगा. इसलिए प्रकाश अंबेडकर को कैसे मनाया जाए, इस पर माथापच्ची का दौर चल रहा है.
पिछले कुछ समय में एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार कुछ बातों को लेकर कांग्रेस की आलोचना कर चुके हैं. इस आधार पर माना जा रहा है कि विधानसभा चुनावों को लेकर सीटों के बंटवारे के संदर्भ में वो कांग्रेस पर दबाव बनाना चाहते हैं.
जानकारी के मुताबिक, पवार का दबाव तो सीटों की संख्या को लेकर है. दूसरा, विधानसभा चुनाव में शरद पवार की कोशिश हो सकती है कि सीटों का बंटवारा बराबर-बराबर हो. एनसीपी चाहती है कि राज्य में 144 सीट पर वो खुद चुनाव लड़े. बाकी 144 पर कांग्रेस और छोटी पार्टियां चुनाव लड़ें.
पवार चाहते हैं कि उनकी पार्टी ज्यादा सीटें जीतकर आए ताकी सरकार बनने की स्थिति में मुख्यमंत्री पद पर उनकी पार्टी की दावेदारी रहे. 2014 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस-एनसीपी अलग-अलग लड़ी थी, लेकिन 2009 के फॉर्मूले को देखें तो कांग्रेस ने 169 और एनसीपी ने 119 सीटों पर चुनाव लड़ा था.
जानकारी के मुताबिक, 2014 जैसी स्थिति एक बार फिर दिखाई दे सकती है. अगर शिवसेना-बीजेपी के बीच गठबंधन नहीं हुआ, तो एनसीपी भी अलग चुनाव लड़ सकती है. शरद पवार के रिश्ते हमेशा से दिल्ली सत्ता में जो होता है उससे अच्छे रहे हैं. ऐसे में अगर शिवसेना बीजेपी का गठबंधन टूटा और विधानसभा में एनसीपी के ठीक-ठाक संख्या में उम्मीदवार जीते, तो बीजेपी के साथ उनका गठबंधन होने में भी देर नहीं लगेगी.
जानकारों का कहना है कि एनसीपी वही पार्टी है, जिसने 2014 में बिना मांगे अल्पमत की बीजेपी सरकार को समर्थन देने का ऐलान किया था.
विधानसभा चुनाव की तारीख जैसे-जैसे नजदीक आ रही है वैसे-वैसे कांग्रेस और एनसीपी दोनों ही दलों के नेताओं का पार्टी से छोड़कर जाने का सिलसिला रोके नहीं रुक रहा है. कांग्रेस और एनसीपी दोनों ही पार्टियों के सामने अपने नेताओं को पार्टी में बनाए रखने की भी बड़ी चुनौती है.
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