advertisement
दलितों की बीएसपी में दलित हाशिए पर बहुजन समाज पार्टी दलितों की पार्टी है. ये जवाब बताने के लिए कोई राजनीतिक-सामाजिक जानकार होने की जरूरत नहीं है. लेकिन, क्या ये जवाब 2017 के विधानसभा चुनावों के समय भी सही माना जाएगा. छवि के तौर पर अभी भी यही सही जवाब है. क्योंकि, देश की सबसे बड़ी दलित नेता मायावती बीएसपी की अध्यक्ष हैं. इसलिए बहुजन समाज पार्टी बहुजन यानी दलितों की ही पार्टी मानी जाएगी. लेकिन, अब जब मायावती उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए 403 में से 400 प्रत्याशी घोषित कर चुकी हैं, तो बीएसपी के दलितों की पार्टी होने पर बड़ा सवाल खड़ा हो गया है. सबसे पहले बात कर लेते हैं बांटे गए टिकटों में दलितों की संख्या की.
टिकटों की संख्या के लिहाज से बीएसपी में दलितों का स्थान चौथा आता है.
सोचिए कि जिन सवर्णों और पिछड़ों के शोषण के खिलाफ पहले बाबा साहब ने और बाद में कांशीराम ने लड़ाई लड़ी. आज उन्हीं आदर्शों पर राजनीति करने का दावा करने वाली मायावती की बीएसपी में दलितों का प्रतिनिधित्व सवर्णों और पिछड़ों से भी कम हो गया.
दरअसल उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में किसी एक जाति या धर्म के आधार पर राजनीति करना बेहद मुश्किल है. और ऐसी पार्टियां भले ही एक बड़ा मत प्रतिशत हासिल करने में कामयाब होती रही हों. लेकिन, बिना दूसरी जातियों को जोड़े उन्हें सत्ता का सुख अपने दम नहीं मिल सका.
इसका सबसे बड़ा उदाहरण तब देखने को मिला था, जब सवर्णों को गाली देकर ही बीएसपी का आधार मजबूत करने वाली मायावती ने दलित-मुसलमान के तय खांचे से आगे निकलकर सवर्णों (खासकर ब्राह्मणों) को लुभाने की सफल कोशिश की.
87 की संख्या देखकर फिर भी ये माना जा सकता है कि राजनीतिक मजबूरियों के चलते सवर्ण और पिछड़ों को टिकट बांटना मजबूरी हो गई है. फिर भी मायावती ने अपने प्रतिबद्ध मतदाताओं का ख्याल रखा है.
ये वही आरक्षण है, जो बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने महात्मा गांधी से लड़कर हासिल किया था. जो बाद में संविधान का हिस्सा बन गया. यानी अगर बाबा साहब का राजनीतिक आरक्षण न होता, तो बीएसपी में सिर्फ 2 उम्मीदवार दलित होते. भला हो बाबा साहब के लड़कर लिए गए आरक्षण का कि, 87 दलित हाथी पर सवार होकर विधानसभा पहुंचने की कोशिश तो कर पा रहे हैं. वरना राजनीतिक मजबूरी में जाने कितने दलित हाथी की सवारी कर पाते. जो दलित मायावती के इशारे पर किसी को भी बिना सवाल किए मत देता रहा है, उन्हीं दलितों में से मायावती को आरक्षित सीटों के अलावा योग्य जिताऊ उम्मीदवार नहीं मिल सका. वो भी तब जब 2007 में पूर्ण बहुमत की 5 साल की सरकार और उससे पहले भी टुकड़ों में 3 बार मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं. अब फिर से मैं वही सवाल पूछ रहा हूं. क्या बीएसपी दलितों की पार्टी है. अब इसका जवाब देना आसान नहीं रह गया है.
(हर्षवर्धन त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार और जाने-माने हिंदी ब्लॉगर हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)