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नवजोत सिंह सिद्धू होने की अहमियत और दिक्कत

Navjot Singh Sidhu निस्संदेह कैप्टन Amarinder Singh के बाद कांग्रेस में दूसरे सबसे लोकप्रिय नेता हैं

आदित्य मेनन
पॉलिटिक्स
Published:
Navjot Singh Sidhu निस्संदेह कैप्टन Amarinder Singh के बाद कांग्रेस में दूसरे सबसे लोकप्रिय नेता हैं
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Navjot Singh Sidhu निस्संदेह कैप्टन Amarinder Singh के बाद कांग्रेस में दूसरे सबसे लोकप्रिय नेता हैं
(फाइल फोटो: PTI) 

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क्रिकेटर से नेता बने नवजोत सिंह सिद्धू (Navjot Singh Sidhu) और पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह (Amarinder Singh) के बीच जारी राजनीतिक कशमकश (Punjab Congress Crisis) की वजह से सिद्धू एक बार फिर सुर्खियों में हैं. जिसे लेकर कांग्रेस अध्यक्ष ने तीन सदस्यीय पैनल का गठन किया है जो सिद्धू और कैप्टन के बीच तनाव और राज्य में जारी गतिरोध को खत्म करने की कोशिश में जुटा है. संभावना है कि ये गतिरोध जल्द ही खत्म हो जाएगा.

लेकिन देखना होगा कि क्या ये तीन सदस्यीय पैनल दोनों पक्षों को मनाने में कामयाब होता है.

अब तक, सिद्धू को मंत्री पद या यहां तक कि डिप्टी सीएम के पद के प्रस्ताव भी प्रभावित करने में विफल रहे हैं.

अपने हाल के कुछ इंटरव्यू में सिद्धू ने कहा कि उनके साथ "शोपीस" की तरह व्यवहार किया जा रहा था.

  • तो सिद्धू परेशान क्यों हैं?
  • पंजाब की राजनीति में उनका कितना महत्व है?
  • फिलहाल सिद्धू के पास क्या विकल्प हैं?

ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब हम आगे जानने की कोशिश करेंगे .

क्यों नाराज हैं नवजोत सिद्धू?

सिद्धू एक दिलचस्प शख्सियत हैं. एक बार दल बदलने के बावजूद, वह 2007 से लगातार पंजाब में सत्ताधारी पार्टी या गठबंधन के साथ रहे हैं. वह 2016 तक भाजपा और 2017 से आज तक कांग्रेस के साथ हैं, लेकिन अपने पूरे राजनीतिक करियर के दौरान सिद्धू राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष में रहे हैं.

करीब इस अवधि के दौरान, वह पंजाब में राज्य सरकार के साथ लॉगरहेड्स में रहे हैं. वे शिरोमणि अकाली दल के कड़े आलोचक थे, खासकर प्रकाश सिंह बादल के. तब भी जब उनकी पार्टी बीजेपी उनके(शिअद) साथ गठबंधन में थी. तो वहीं कैप्टन और उनके वफादारों के साथ उनकी खींचतान भी 2017 में कांग्रेस के सत्ता में आने के तुरंत बाद शुरू हो गई.

इस ट्रैक रिकॉर्ड से लगता है कि सिद्धू पंजाब में हमेशा विपक्ष में रहे हैं.

कैप्टन समर्थक खेमे के एक विधायक ने द क्विंट को बताया कि “वह इन-हाउस विपक्ष होने का आनंद लेते हैं. यहां तक कि उनकी तथाकथित साफ छवि भी इसलिए है क्योंकि वह हमेशा आलोचना करते हैं और कभी भी कोई जिम्मेदारी नहीं लेते हैं, यहां तक कि मौका मिलने पर भी नहीं”

कैप्टन के साथ मौजूदा विवाद में सिद्धू अंग्रेजी और पंजाबी मीडिया में अपने इंटरव्यू में जो कह रहे हैं, उसका सार यह है कि पंजाब सरकार पिछले शिअद-भाजपा शासन की तरह ही काम कर रही है, खासकर विफलता के पैमाने पर सिद्धू दोनों पार्टियों को एक समान मानते हैं. चाहे वो नशीली दवाओं के खतरे हो, रेत खनन माफिया या भ्रष्टाचार और किसानों की समस्याओं से निपटना.

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सिद्धू ने 2015 में बरगारी में बेअदबी के मामलों और बाद में कोटकपूरा में प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी के मामले में राज्य सरकार की विफलता को उजागर किया है.

आलोचना की ये दोनों बातें महत्वपूर्ण हैं जो राज्य सरकार की विफलता को दिखाती हैं. हालांकि कुछ मोर्चों पर यह तर्क दिया जा सकता है कि सिद्धू कैबिनेट में बने रह सकते थे और कुछ अलग करने की कोशिश कर सकते थे, लेकिन जहां तक बेअदबी के मामलों का सवाल है तो इसके लिए सीएम कैप्टन को दोषी माना जा रहा क्योंकि गृह मंत्रालय भी कैप्टन के पास है.

पंजाब की राजनीति में सिद्धू कितना मायने रखते हैं?

वह निस्संदेह कैप्टन अमरिंदर सिंह के बाद कांग्रेस में दूसरे सबसे लोकप्रिय नेता हैं. मुख्यमंत्री के अलावा वे अकेले हैं, जो किसी तरह की राज्यव्यापी अपील करने का दावा कर सकते हैं. अन्य सभी नेता अधिकतर अपने निर्वाचन क्षेत्रों या खास वर्गों में लोकप्रिय हैं.

2019 के लोकसभा चुनाव से पहले इंडिया टूडे के कराए गए एक पोल के अनुसार, पंजाब में 16 फीसदी लोगों ने सिद्धू को सीएम पद की पसंद बताया तो, कैप्टन को 32 फीसदी लोगों ने पसंद किया, वहीं 24 फीसदी लोगों ने प्रकाश सिंह बादल को अपनी पसंद बताया. जो ये दिखाता है कि सिद्धू अपनी पीढ़ी के नेताओं में सबसे लोकप्रिय नेता हैं, शिअद के सुखबीर बादल हो या आम आदमी पार्टी का कोई नेता, उनसे सिद्धू लोकप्रियता में काफी आगे हैं.

सिद्धू के लोकप्रिय होने का एक बड़ा कारण करतारपुर साहिब कॉरिडोर भी है, करतारपुर साहिब कॉरिडोर की मांग सिख समुदाय काफी लंबे समय से करता आ रहा था. और इसमें हस्तक्षेप करने पर सिद्धु की लोकप्रिया भी सिख समुदाय में बढ़ी है.

सिद्धू ने पाकिस्तान के प्रधान मंत्री इमरान खान के साथ अपने व्यक्तिगत समीकरण का इस्तेमाल किया और कॉरिडोर को शुरू करने में योगदान दिया, जिससे भारतीय सिखों को उस स्थान तक पहुंच मिली जहां गुरु नानक ने अपने जीवन के अंतिम दो दशक बिताए थे.

साथ ही सिद्धू की छवि भी साफ है और उन्हें एक करियर राजनेता के रूप में नहीं देखा जाता है. सिद्धू पहले एक खिलाड़ी के रूप में और फिर एक टीवी पर्सनालिटी के रूप में अपना नाम बनाया है.

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17 साल से राजनीति में रहने के बाद सिद्धू 1980 और 1990 के दशक की विरासत से भी अछूते हैं, जिसे पंजाब की राजनीति का काला दौर माना जाता है. लेकिन उनके आलोचकों का तर्क है कि “सिद्धू राजनेता नहीं हैं” और “लोगों को साथ लेकर चलना हो” या “काम करवाना हो” वह नहीं कर सकते हैं.

एक टीवी शख्सियत के रूप में उनकी छवि और उनके कभी-कभी दिए गए विवादित बयानों ने भी इस धारणा में योगदान दिया है. इस धारणा ने निस्संदेह सिद्धू के पंजाब के सीएम बनने की संभावनाओं को नुकसान पहुंचाया है.

सिद्धू के पास क्या विकल्प हैं?

सिद्धू आदर्श रूप से पंजाब प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनना चाहेंगे. जिससे ये साफ संकेत जाएगा कि कैप्टन के बाद वह सीएम की कुर्सी के लिए अगली कतार में हैं.

यदि सिद्धू को पीसीसी प्रमुख बनाया जाता है, तो स्वाभाविक रूप से टिकट चयन में उनकी बड़ी भूमिका होगी, और 2022 में कांग्रेस के चुनाव जीतने की स्थिति में उन्हें बड़ी संख्या में विधायकों का समर्थन प्राप्त होगा.

लेकिन अगर इस भूमिका से इनकार किया जाता है, तो सिद्धू का कांग्रेस के भीतर बहुत स्पष्ट एंडगेम नहीं है. कैप्टन की सरकार में डिप्टी सीएम के रूप में शामिल होने से यह गारंटी नहीं होगी कि उन्हें उनका उत्तराधिकारी बनाया जाएगा और दूसरी ओर, उन्हें सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर की कीमत चुकानी होगी.

कैप्टन सिद्धू को पीसीसी प्रमुख बनाए जाने के सख्त खिलाफ हैं. सीएम के खिलाफ सिद्धू के हालिया बयानों से भी उनके मकसद में मदद नहीं मिली है.

चुनावी समर के आधे रास्ते में सिद्धू को प्रचार समिति का प्रमुख बनाया जा सकता था, लेकिन यह भी उन्हें मंजूर नहीं होगा.

यह भी साफ है कि कैप्टन, जिन्होंने चुनाव के लिए सलाहकार के रूप में प्रशांत किशोर को नियुक्त किया है, भविष्य की संभावना के रूप में भी, कैप्टन ऐसी कोई व्यवस्था नहीं चाहते हैं जिसमें उनके अलावा किसी और को सीएम की कुर्सी के लिए पेश किया जाए.

पार्टी के लिए इन दोनों पदों के बीच साझा आधार बनाना मुश्किल होगा जब तक कि दोनों नेताओं में से कोई एक अपनी वर्तमान स्थिति से समझौता नहीं करता.

सिद्धू के लिए दूसरा विकल्प आम आदमी पार्टी है, जहां स्थिति बहुत अलग नहीं है. जबकि AAP सिद्धू की कड़ी आलोचना करने को लेकर सावधान दिख रही है ताकि वह उनका स्वागत करने के लिए भी तैयार रहे, लेकिन AAP की तरफ से उन्हें सीएम चेहरा बनाने की पेशकश की संभावना नहीं है.

केंद्रीय और राज्य दोनों नेतृत्व सिद्धू को मुख्यमंत्री बनने के लिए बहुत स्वतंत्र सोच वाले के रूप में देखते हैं और राज्य के कई नेताओं की अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं.

सिद्धू के लिए सबसे अच्छी स्थिति यह है कि कांग्रेस या AAP दोनों में से किसी एक को यह एहसास हो कि वो सिद्धू के बगैर चुनाव नहीं जीत सकती है. और सिद्धू को वह दिया जाए जो वह चाहते हैं. लेकिन अगर ऐसा नहीं होता है, तो सिद्धू को अपनी योजनाओं में बदलाव करना पड़ सकता है.

भाजपा में वापस जाना राजनीतिक आत्महत्या होगी, यह देखते हुए कि कैसे कृषि कानूनों के कारण पंजाब में बीजेपी के खिलाफ एक अलग माहौल बना है, भले ही पार्टी में सिद्धू के मुख्य विरोधी अब समीकरण में नहीं हैं - अकाली और अरुण जेटली.

सिद्धू के लिए तीसरा विकल्प ये है कि कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं को तोड़कर अपनी पार्टी बनाई जाए, AAP , शिअद, भाजपा से असंतुष्ट लोगों को लाया जाए और छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन किया जाए. ऐसे प्रमुख लोगों को भी शामिल किया जाए जो वर्तमान में राजनीति में नहीं है.

इसमें कोई शक नहीं कि इस तरह के कदम से काफी उत्साह पैदा होगा.

पंजाब में, पुरानी व्यवस्था से अलग विशुद्ध रूप से पंजाब केंद्रित क्षेत्रीय पार्टी की जगह बदलाव करने की तीव्र इच्छा है.

लेकिन राज्य भर में एक ऐसा कैडर बनाने के लिए बहुत कम समय है जो मजबूत चुनाव मशीनरी और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि कांग्रेस और शिअद के संसाधनों और कुछ हद तक आप के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकता है.

इससे पहले मनप्रीत बादल की पंजाब पीपुल्स पार्टी या सुखपाल खैरा की पंजाबी एकता पार्टी जैसे प्रयोगों को बहुत कम सफलता मिली थी. अपनी कमियों और असमानता के बावजूद, AAP अपेक्षाकृत अधिक सफल तीसरा विकल्प रही है.

ऐसा लगता है कि सिद्धू भी ऐसा करने से चुक गए हैं. उन्हें अतीत में कई बार ऐसा विकल्प बनाने का मौका मिला था, 2012 के चुनावों से पहले जब वे भाजपा में असंतुष्ट थे, या 2017 के चुनावों से पहले, या पिछले साल भी, जब उन्हें अपनी पार्टी बनाने का मौका मिला था.

क्रिकेट की ही तरह अब सिद्धू के भाग्य का फैसला कांग्रेस में तीसरे अंपायर के हाथ में है.

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