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नोटबंदी के मसले पर आखिर क्यों बिखर गया एकजुट विपक्ष?

बिखरे हुए विपक्ष में नजर नहीं आ रहा है नोटबंदी पर पीएम मोदी को झुकाने का दम

नीरज गुप्ता
पॉलिटिक्स
Updated:


संसद परिसर में विरोध प्रदर्शन करते विपक्षी दल (फोटोः ANI)
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संसद परिसर में विरोध प्रदर्शन करते विपक्षी दल (फोटोः ANI)
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न्यूजीलैंड की संसद में विपक्ष के नेता के तौर पर नेशनल पार्टी के लीडर डॉक्टर डॉन ब्राश ने कहा था- विपक्ष एक वैकल्पिक सरकार होता है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुश होंगे कि फिलहाल ऐसा कोई विकल्प उन्हें चुनौती देता नहीं दिख रहा है. 8 नवंबर को हुए नोटबंदी के ऐलान ने देशभर को एटीएम और बैंकों की लाइन में खड़ा कर दिया. लोगों की परेशानियों को देखते हुए विपक्ष ने मोदी सरकार के खिलाफ जंग छेड़ दी.

नीतीश कुमार को छोड़ दें, तो मुलायम सिंह यादव, मायावती, लालू प्रसाद यादव, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, लेफ्ट, शरद पवार और दक्षिण की लगभग तमाम पार्टियां हुक्का-पानी लेकर सरकार पर चढ़ गईं. लगा कि पूरे विपक्ष को एकजुट करने वाला मुद्दा मिल गया है. राजनीति के जानकार हैरान थे कि क्या नोटबंदी मुलायम-मायावती और ममता-लेफ्ट जैसे धुरविरोधियों को भी साथ ले आएगी. सरकार के मैनेजर परेशान थे कि क्या शिवसेना जैसे सहयोगी और एआईएडीएमके जैसे ‘दोस्त’ भी सदन के पटल पर सरकार से दगा कर जाएंगे.

विपक्ष पस्त, सरकार मस्त

लेकिन 500 और 1000 के पुराने नोट बंद होने के तीन हफ्ते बाद वो आक्रामक विपक्ष पस्त नजर आ रहा है. वैसे अपने अपने खेमों में खड़ी विपक्षी पार्टियां मोदी के खिलाफ चिंघाड़ रही हैं. लेकिन ये बिखरा हुआ विरोध है, जिसमें पीएम मोदी को झुकाने का दम नजर नहीं आ रहा है.

हालांकि 16 नवंबर को हुए विपक्ष के पहले हमले से ही इस बिखराव की आहट महसूस होने लगी थी. नोटबंदी से लोगों को हो रही परेशानियों के खिलाफ तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने संसद भवन से राष्ट्रपति भवन तक मार्च निकाला, तो ऐन मौके पर कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों ने हाथ पीछे खींच लिया. इसके बाद 28 नवंबर के तथाकथित 'भारत बंद' तक आते-आते विपक्षी एकता की हवा पूरी तरह निकल गई.

क्या है बिखराव की वजह?

आखिर ऐसा क्या हुआ कि केंद्र सरकार के खिलाफ विपक्ष का ये आक्रोश विभाजित हो गया. वजह हैं- निजी महत्वाकांक्षाएं, कमजोर रणनीति, असमंजस और विश्वास की कमी.

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ममता पड़ीं अकेली

सबसे पहले बात करते हैं ममता बनर्जी की. नोटबंदी के खिलाफ अभियान में ममता ने केंद्र सरकार के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया है. वो दिल्ली, पटना, लखनऊ, कोलकाता में घूम-घूमकर पीएम मोदी पर हमले कर रही हैं. पश्चिम बंगाल के कई टोल प्लाजा पर सेना की तैनाती को वो केंद्र सरकार की ‘तख्ता पलट’ कार्रवाई करार दे रही हैं. लखनऊ के विरोध प्रदर्शन में तो ममता ने मोदी को हिटलर से भी बड़ा तानाशाह करार दे दिया.

ममता की यही रौद्र रूप तीसरे मोर्चे के बाकी धुरंधरों की आंख की किरकिरी बन रहा है. दरअसल कांग्रेस समेत तमाम क्षेत्रिय क्षत्रपों की नजर 2019 के चुनावों पर है. मुलायम, मायावती सरीखों को लगता है कि विपक्ष की अगुवाई अभी से ममता के हाथ आ गई और 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले अगर कोई तीसरा मोर्चा बना, तो ममता स्वाभाविक तौर पर उसकी पीएम उम्मीदवार बन जाएंगी.

(फोटोः Twitter)

कांग्रेस पार्टी का ममता से हाथ झटकने की तीन वजह हैं. पहली ये कि केंद्र के खिलाफ बनने वाले हर मोर्चे में कांग्रेस 'बिग ब्रदर' की भूमिका निभाना चाहती है. लिहाजा कमान ममता को कैसे सौंप दी जाए? दूसरी वजह है कांग्रेस का असमंजस. ममता सीधे नोटबंदी का विरोध कर रही हैं, लेकिन नोटबंदी के पॉलिटिकल डिविडेंड से अनजान कांग्रेस लोगों को होने वाली परेशानियों और सरकार की बदइंतजामियों का विरोध कर रही है.

तीसरी वजह है विश्वास की कमी. ममता बनर्जी का बीजेपी के साथ कभी प्यार, कभी तकरार का रिश्ता रहा है. वो 1999 की एनडीए सरकार में दो बार रेल मंत्री और कोयला मंत्री के तौर पर काम कर चुकी हैं. लिहाजा कांग्रेस के रणनीतिकारों को ये भी लगता है कि अगर विरोध की कमान ममता के हाथ में रही और बाद में उन्हेंने बीजेपी से कोई डील कर ली, तो सारे अभियान की हवा निकल जाएगी.

केजरीवाल: अपनी डफली, अपना राग

ममता की ही तरह आम आदमी पार्टी चीफ अरविंद केजरीवाल लगातार नोटबंदी के रोलबैक की मांग कर रहे हैं. लेकिन उनकी 'अपनी डफली, अपना राग' है. आलम ये है कि 17 नवंबर को दिल्ली की आजादपुर मंडी में नोटबंदी के खिलाफ रैली में मंच पर ममता बनर्जी ने दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल का हाथ झटक दिया.

(फोटोः Twitter)

क्षेत्रीय राजनीतिक मजबूरियां

विपक्ष की तमाम पार्टियों के पैरों में क्षेत्रीय मजबूरियों की बेड़ियां हैं. उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है. ऐसे में एक-दूसरे के खिलाफ तलवारें भांज रहे मुलायम सिंह यादव और मायावती किसी एक मंच पर भला कैसे साथ दिख सकते हैं. पश्चिम बंगाल में वाम दलों और ममता बनर्जी की राजनीति का डीएनए ही आपसी लड़ाई है. ऐसे में वो दोनों भले ही केंद्र की मुखालफत कर रहे हों, लेकिन एकसाथ नहीं दिखना चाहते. यही हाल तमिलनाडु में डीएमके और एआईएडीएमके का है.

मई 2014 में बनी एनडीए सरकार के खिलाफ किसी भी मुद्दे पर विपक्ष एक प्रभावी विपक्ष की भूमिका नहीं निभा पाया. देश की जनता से जुड़ा नोटबंदी का मुद्दा एक सुनहरा मौका था, जिसे विपक्ष ने गंवा दिया. कम से कम फिलहाल तो यही लगता है.

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Published: 02 Dec 2016,07:00 PM IST

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