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फूलपुर उपचुनाव: कमल खिलना आसान नहीं, रास्ते में कांटे भी बहुत

फूलपुर उपचुनाव बीजेपी और केशव प्रसाद मौर्य की प्रतिष्ठा का सवाल

विक्रांत दुबे
पॉलिटिक्स
Updated:
दिल्ली दफ्तर के बाहर जमा बीजेपी कार्यकर्ता
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दिल्ली दफ्तर के बाहर जमा बीजेपी कार्यकर्ता
(फोटोः @shadabmoizee)

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फूलपुर लोकसभा उपचुनाव ने पूरे देश की उत्सुकता बढ़ा दी है. 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले ये योगी और मोदी दोनों सरकारों के लिए सबसे बड़ा टेस्ट हैं.

फूलपुर में 2014 में पहली बार बीजेपी ने जीत हासिल की थी. उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने इस सीट पर जीत हासिल की थी. इसलिए भी बीजेपी ने इस सीट को प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया है.

कांग्रेस, एसपी और बीएसपी तीनों इस चुनाव के जरिए अपनी मजबूती टेस्ट करना चाहते हैं. ऐसे कहा जा सकता है कि ये उपचुनाव सभी पार्टियों के लिए बड़ी परीक्षा है. एक बार फिर इस चुनाव में मुख्य तौर पर जाति कार्ड पर ही जोर है.

यूपी के चुनाव जातिगत समीकरणों के आधार पर ही लड़े जाते रहे हैं. 2014 के लोकसभा के चुनाव में मोदी लहर के पीछे भी बीजेपी की जाति के आधार पर की गई शानदार प्लानिंग ही थी.
(फाइल फोटो: Twitter)

फूलपुर संसदीय क्षेत्र में ओबीसी की तादाद ज्यादा है और इसमें भी कुर्मी वोटरों को निर्णायक माना जाता है. इसलिए अब कुर्मी वोटरों को अपने पाले में करने की लड़ाई तेज हो गई है.

फूलपुर में कुर्मी (पटेल) वोट अगर बंटे, तो मुकाबला काफी दिलचस्प और चौंकाने वाला होगा. फायदा उठाने के लिए बीजेपी और समाजवादी पार्टी दोनों ने ही पटेल उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है. लेकिन बीजेपी के लिए इस बार कांटे ज्यादा हैं क्योंकि उम्मीदवार बाहरी है.

इस ऐतिहासिक सीट पर 2014 में मोदी के तूफान में पहली बार बीजेपी कमल खिलाने में सफल रही थी. लेकिन अब इस बात को चार साल बीत चुके हैं. तूफान अब कुछ अंधड़ जैसा हो गया है, जिसमें रफ्तार कम और धूल ज्यादा है.

फूलपुर में बीजेपी कोई रिस्क नहीं लेना चाहती इसलिए उसने समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के उम्मीदवारों के नाम आने के बाद अपना पत्ता खोला और पटेल वोटों को ध्यान में रखते हुए बनारस के कौशलेन्द्र सिंह पटेल को प्रत्याशी बनाया.

चुनार का चूना कितना रंग लाएगा?

कौशलेंद्र पटेल, मिर्जापुर जिले में चुनार के रहने वाले हैं लेकिन रहते वाराणसी में हैं. फूलपुर लोकसभा सीट के लिए बीजेपी के कई नेताओं ने पूरी ताकत लगा रखी थी. खबर है कि बीएसपी से आईं केशरी देवी पटेल को तो चुनाव की तैयारी करने के लिए कह दिया गया था. लेकिन इलाहाबादी भाजपाइयों पर चुनार का चूना लगा दिया गया.

इलाहबादी बनाम मिर्जापुरी पटेल

फूलपुर में करीब तीन लाख पटेल वोटर हैं. और बंटने की संभावना सबसे ज्यादा है. कौशलेंद्र को बनारस से इंपोर्टेड कहा जा रहा है.

इलाहाबाद में सिंगरौर कुर्मियों की संख्या ज्यादा है. वो अपने को कुर्मियों को उच्च मानते हैं. ऐसे में बीजेपी उम्मीदवार को बनारस और मिर्जापुर वाले पटेल तो स्वीकार रहे हैं लेकिन इलाहाबादी नहीं.

वहीं, दूसरी तरफ अनुप्रिया पटेल की नजर इसी सीट पर थी. वो अपने पति को लड़ाना चाहती थीं. माना जा रहा है इस नाते अनुप्रिया खेमा भी सुस्त चाल चलेगा. हालांकि, बीजेपी के साथ कोइरी (कुशवाहा, मौर्या, शाक्य) वोट का पूरा साथ है और कांग्रेस के प्रत्याशी मनीष मिश्रा दम नहीं दिखा पाए तो सवर्ण वोट काफी हद तक बीजेपी के साथ ही रह जाएगा. जो फिलहाल बीजेपी से नाराज लग रहा है.

समाजवादी पार्टी के नागेंद्र पटेल जो पेशे से ठेकेदार हैं और उनकी राजनीतिक जमीन बहुत मजबूत नहीं रही है. वो कुछ महीने पहले हुए ब्लॉक प्रमुख का चुनाव तक अपने भाई को नहीं जिता पाए थे. हालांकि, इस चुनाव में हालात अलग हैं. यादव वोट पूरी तरह से साथ है जो करीब ढाई लाख है. साथ ही, समाजवादी पार्टी पटेल वोट को भी अपने खेमे में मान रही है.

मुलायम सिंह यादव और उनके बेटे अखिलेश यादव(फोटो: द क्विंट)
माना जा रहा है कि समाजवादी पार्टी अगर बीजेपी के खिलाफ मजबूत प्रत्याशी का माहौल बना पाई तो मुस्लिम वोट भी जुड़ेगा, जो यादव-ब्राह्मण से कम नहीं है. पटेल वोट अगर बंटा तो नागेंद्र बीजेपी को चिंता में डाल सकते हैं.
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फूलपुर पर कब्जा जमाने को पूरा जोर लगाएगी एसपी

वैसे तो उपचुनाव पर पार्टियां ज्यादा फोकस नहीं करती हैं. माना जाता है कि उपचुनाव आमतौर पर सत्ताधारी पार्टियों के पक्ष में ही जाता है. लेकिन फूलपुर सीट समाजवादी पार्टी के लिए अहम होगी. बीजेपी से सीट छीनने के लिए वो अपने सभी दिग्गजों को प्रचार में उतारेगी. तीन दिन पहले स्वामी प्रसाद मौर्या के भतीजे प्रमोद मौर्या को अखिलेश ने पार्टी में शामिल किया है.

प्रमोद फूलपुर से सटे प्रतापगढ़ से जिला पंचायत अध्यक्ष रह चुके हैं. प्रमोद के जरिए एसपी की कोरी वोट पर नजर है. 2014 मोदी लहर में सपा फूलपुर में दूसरे नम्बर पर थी.

इधर, कांग्रेस ने मनीष मिश्रा को उम्मीदवार बनाया है. मनीष पिछले 15 सालों से कांग्रेस में सक्रिय हैं. इनके पिता जेएन मिश्रा इंदिरा गांधी के एपीएस थे और कमलापति त्रिपाठी जब रेल मंत्री बने तो उनके भी पीएस रहे. इस दौरान इन्होंने बहुत लोगों को रेल में नौकरियां दी थीं, जिसे आज भी लोग याद करते हैं.

इस सब के बावजूद जेएन मिश्रा इलाहाबाद में कई बार विधायक का चुनाव लड़े, लेकिन कभी जीत नहीं पाए. पटेल के बाद इस सीट में ब्राह्मण वोट सबसे ज्यादा हैं और इस नजरिए से मनीष मिश्रा कुछ सवर्णों और दलितों के वोट की उम्मीद कर सकते हैं.

बीजेपी का पड़ला भारी

जातिगत समीकरण देखें तो बीजेपी का पलड़ा भारी है. बीजेपी के साथ पटेल, मौर्या, कायस्थ और कुछ हद तक सवर्ण भी हैं. इधर, अगर मुस्लिमों ने साथ दिया तो समाजवादी पार्टी भी कमजोर नहीं पड़ेगी. ऐसे में दलित वोट जिस तरफ रुख करेगा वो फूलपुर में परचम लहराएगा. हालांकि, दलित समाजवादी पार्टी से परहेज रखता है लेकिन अगर उसके सामने सिर्फ एसपी और कांग्रेस का ही विकल्प हुआ तो वो कांग्रेस पर ही मुहर लगाएगा.

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Published: 20 Feb 2018,04:10 PM IST

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