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कांग्रेस को यूपी में कितनी सीटें दिला पाएगा प्रियंका का रोड शो? 

क्या प्रियंका गांधी को पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान सौंपने से कांग्रेस, बीजेपी या बीएसपी-एसपी को नुकसान पहुंचा पाएगी?

आदित्य मेनन
पॉलिटिक्स
Updated:
प्रियंका गांधी की राजनीति में एंट्री का क्या होगा असर?
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प्रियंका गांधी की राजनीति में एंट्री का क्या होगा असर?
(फोटो: फेसबुक)

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कांग्रेस महासचिव बनने के बाद प्रियंका गांधी पहली बार लखनऊ पहुंची हैं. वह यहां पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी और पश्चिमी यूपी के प्रभारी ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ रोड शो कर रही हैं. प्रियंका की राजनीति में एंट्री के बाद कांग्रेस के कार्यकर्ता काफी उत्साहित दिख रहे हैं. लेकिन बड़ा सवाल है कि यूपी में प्रियंका का रोड शो और बाद के दौरे कांग्रेस को कितनी सीटें दिला पाएंगे.

माना जा रहा है कि प्रियंका मीडिया कवरेज में अच्छी-खासी जगह बनाएंगी. भले ही ठोस रूप में प्रियंका के प्रभाव का आकलन अब भी बहुत मुश्किल है. मगर इसमें संदेह नहीं है कि प्रियंका के आने से कांग्रेस का वोट शेयर पूरे उत्तर प्रदेश में, और खासकर पूर्वी क्षेत्र में बढ़ेगा, जहां की जिम्मेदारी उन्हें दी गई है. हालांकि, दो प्रमुख पहलुओं पर अलग-अलग विचार उभरते दिख रहे हैं:

  • उत्तर प्रदेश में सीट और वोट शेयर दोनों रूपों में, किस हद तक कांग्रेस को फायदा होगा?
  • किसकी कीमत पर कांग्रेस को ये फायदे होंगे- बीजेपी या समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल और निषाद पार्टी का महागठबंधन?

उत्तर प्रदेश में बीते चुनावों के आंकड़ों को देखते हुए हम ऐसे कुछ सवालों का जवाब देने की कोशिश करते हैं.

अवध और पूर्वी यूपी का संघर्ष

वास्तव में उत्तर प्रदेश को प्रभावित करने की प्रियंका गांधी की क्षमता राज्य के अलग-अलग हिस्सों में कांग्रेस की अपनी क्षमता पर निर्भर करती है. पूरे उत्तर प्रदेश में एक समान रूप से कांग्रेस की मौजूदगी नहीं हैं. यह अवध क्षेत्र में मजबूत है, जहां से गांधी परिवार का गढ़ रही रायबरेली व अमेठी और प्रतापगढ़, उन्नाव, बाराबंकी और फैजाबाद जैसी सीटें आती हैं. इन जगहों पर कांग्रेस की मौजूदगी भी अच्छी-खासी है और यहां मजबूत स्थानीय नेता भी उपलब्ध हैं.

2014 के लोकसभा चुनावों में जब कांग्रेस सबसे कमजोर रही, इसने अवध में 17.8 फीसदी का सम्मानजनक वोट शेयर हासिल किया. राज्य के बाकी सभी क्षेत्रों में कांग्रेस ने बहुत खराब प्रदर्शन किया. पश्चिम यूपी में कांग्रेस को राष्ट्रीय लोकदल के साथ गठबंधन के बावजूद महज 9.8 फीसदी वोट मिले.

प्रियंका गांधी को इन क्षेत्रों के प्रभार दिए गए हैं- पूर्वी यूपी और अवध- वहां सीएसडीएस के वर्गीकरण के मुताबिक 43 सीटें हैं. इन्हीं सीटों के लिए ऊपर कही गईं सारी संभावनाएं हैं.

सामाजिक समूह, जिन्हें कांग्रेस को साधना होगा

पूरी तरह जातियों में बंटे उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी की मुख्य चुनौती मुख्य सामाजिक समूहों को कांग्रेस से आकर्षित करने की रहेगी. इससे ही तय होगा कि बीजेपी और महागठबंधन के दलों में से कांग्रेस किनके वोट हड़पने जा रही है.

बीजेपी उम्मीद कर रही है कि एसपी-बीएसपी गठबंधन को इससे ज्यादा नुकसान होगा, क्योंकि कांग्रेस मुस्लिम समुदाय के वोटों में सेंध लगाने जा रही है, जो अब तक महागठबंधन को जाती दिख रही थी.

दूसरी तरफ, एसपी-बीएसपी का आकलन है कि राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस सवर्ण वोटों को आकर्षित करेगी, जो पहले बीजेपी को मिलती दिख रही थी.

दोनों आकलन सतही हैं. सही तस्वीर हसिल करने के लिए 2007 के बाद से विधानसभा और लोकसभा चुनावों में अलग-अलग सामाजिक समूहों के बीच कांग्रेस के प्रदर्शन पर एक नजर डालते हैं.

2007 विधानसभा चुनाव और 2009 लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस को हुआ फायदा खासकर महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसी से उत्तर प्रदेश में पार्टी के फिर से उभरने का ब्लू प्रिंट तैयार होता है. याद रखें कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने 2009 में 21 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल करते हुए बीएसपी और बीजेपी दोनों को पीछे छोड़ दिया था और अपने प्रदर्शन से सबको चौंका दिया था.

2007 और 2009 के बीच कांग्रेस के इस सबसे बड़े उभार के पीछे तीन समुदाय रहे- कुर्मी (2007 की तुलना में 22 प्रतिशत बढ़ोतरी), अन्य सवर्ण (19 प्रतिशत तक) और ब्राह्मण (13 प्रतिश तक). अन्य सवर्ण वर्ग की श्रेणी में कायस्थ, क्षत्रिय और भूमिहार शामिल हैं.

कांग्रेस को मुसलमान, गैर जाटव एससी और जाट में हरेक से 11 फीसदी का फायदा हुआ.

अब इस बात पर गौर करते हैं कि इनमें से 2014 में किन समुदायों ने किन दलों को वोट किया.

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2014 में कांग्रेस ने सवर्ण और कुर्मी वोट बीजेपी के हाथों खो दिए और मुस्लिम वोट एसपी के हाथों. बहरहाल ब्राह्मण और गैर ठाकुर सवर्ण वोटरों में कांग्रेस दूसरी पसंद बनी रही और इसे कुर्मी वोटों का अच्छा-खासा वोट हासिल हुआ.

इसलिए प्रियंका गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस अगर 2009 की सफलता भी दोहराती है तो ऐसा कुर्मी, ब्राह्मण और गैर ठाकुर सवर्णों के बीच बीजेपी के जनाधार की कीमत पर होगा.

इनमें से भी खास तौर पर सबसे महत्वपूर्ण कुर्मी हैं, जो पूरे मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसान समुदाय में प्रभावशाली हैं और जो किसी एक दल के लिए समूह में मतदान नहीं करते हैं. बीजेपी की सहयोगी पार्टी अपना दल कुर्मी के प्रभाव वाली पार्टी है, लेकिन इसका प्रभाव कुछ सीटों तक सीमित है. इसके अलावा यह अब अनुप्रिया पटेल और कृष्णा पटेल के नेतृत्व में दो भागों में बंट गई है. विनय कटियार और संतोष गंगवार जैसे कुर्मी नेताओं के कारण बीजेपी की भी इस समुदाय में अच्छी पकड़ रही है.

बहरहाल 2009 में कांग्रेस को किसी अन्य दल के मुकाबले अधिक कुर्मी वोट बटोरने में सफलता मिली थी. इस बार भी पार्टी के पास इस समुदाय का दिल जीतने का शानदार मौका है.

माना जा रहा है कि आरपीएन सिंह जैसे कुर्मी नेता के साथ-साथ पार्टी छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का चेहरा भी सामने रख सकती है, जो जाति से कुर्मी हैं. पार्टी मध्य प्रदेश, छत्तीसढ़ और राजस्थान में कृषि ऋण माफी को भी रेखांकित कर सकती है ताकि कृषि में प्रभुत्व रखने वाले इस समुदाय को रिझाया जा सके.

इस तरह जब इन समुदायों में प्रियंका गांधी का प्रभाव सबसे ज्यादा होगा, तभी कांग्रेस का 2009 की तरह पुनरुद्धार होता दिखेगा, अन्यथा यह समर्थन किसी और के मुकाबले बीजेपी की ओर झुका हुआ है.

हालांकि अगर कांग्रेस को 2009 की तरह मुसलमान, गैर जाटव दलित और जाटों में बढ़त मिलती है तो इससे महागठबंधन को नुकसान होगा.

अन्य कारण : महिलाएं और युवा मतदाता

दो वोट बैंक हैं, जिसकी उम्मीद कांग्रेस प्रियंका गांधी के कारण कर सकती है : महिलाएं और युवा वोटर. इनके प्रभाव को आसानी से समझा नहीं जा सकता, क्योंकि अलग-अलग पार्टियों ने अलग-अलग समय पर इन वर्गों के समर्थन का फायदा लिया है.

उत्तर प्रदेश के चुनावों में, खासकर विधानसभा स्तर पर महिला वोटरों ने रुझान को पलटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

उदाहरण के लिए, 2012 के विधानसभा चुनाव को लें, जब किसी पार्टी के खिलाफ या समर्थन में मजबूत बदलाव पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की वजह से आया.

महिलाओं के वोट के महत्व का प्रमाण यह तथ्य भी है कि पिछले दो विधानसभा चुनावों में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं ने अधिक वोट डाले हैं.

बीजेपी ने पहले ही महिला वोटरों को ध्यान में रखकर उज्‍ज्‍वला जैसी योजनाओं पर फोकस करते हुए अभियान शुरू कर दिया है. कांग्रेस और महागठबंधन भी ऐसी ही करने वाली हैं.

2014 के चुनावों में बीजेपी को युवा वोटरों के समर्थन से जबरदस्त फायदा हुआ था. 18-22 साल के युवा वोटरों के समूह ने पार्टी को वोट दिए थे. बाकी उम्र के समूहों में पार्टी को 45 फीसदी से कम वोट मिले. इससे पता चलता है कि युवा मतदाताओं में बीजेपी को बढ़त है. योगी आदित्यनाथ, अनुप्रिया पटेल, अखिलेश यादव, प्रियंका गांधी और जयंत चौधरी को आगे रखते हुए हर पार्टी युवाओं के समर्थन को अपने हिस्से में करना चाहेगी.

29 सीटों का घमासान

उत्तर प्रदेश के पूरब और पश्चिम में 29 निर्वाचन क्षेत्र हैं जहां कांग्रेस खास ध्यान देने जा रही है. एक सीट निश्चित रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लोकसभा क्षेत्र वाराणसी है. यह प्रियंका गांधी को दी गयी जिम्मेदारी के क्षेत्र में पड़ता है. यह अटकल भी है कि प्रियंका गांधी प्रधानमंत्री के खिलाफ चुनाव लड़ सकती हैं. वह ऐसा करें या न करें, लेकिन वह निश्चित रूप से इस निर्वाचन क्षेत्र में सघन अभियान चलाएंगी.

वाराणसी को छोड़कर 28 सीटें हैं, जहां कांग्रेस को प्रियंका के चुनाव अभियान से फायदा होने की उम्मीद है. ये वो सीटें हैं, जिन्हें या तो कांग्रेस ने 2009 में जीती हैं या फिर ऐसी सीटें हैं, जहां 2014 के चुनाव में पार्टी ने 10 फीसदी से अधिक का वोट शेयर हासिल किया है.

अन्य 51 सीटों पर प्रियंका के चुनाव अभियान के बावजूद बीजेपी या महागठबंधन से कांग्रेस टक्कर नहीं ले सकती.

पार्टी के लिए सबसे अधिक सम्भावना उन सीटों पर हैं, जहां 2009 में जीत मिली थी और 2014 में सम्मानजनक वोट मिले थे. संयोग से ऐसी ज्यादातर सीटें उसी क्षेत्र में हैं, जहां की जिम्मेदारी प्रियंका गांधी को दी गई है.

इनमें से कुछ सीटों पर पार्टी को नुकसान हो सकता है, क्योंकि पार्टी के कई बड़े नेता दूसरी पार्टियों में जा चुके हैं, जैसे गोंडा में बेनी प्रसाद वर्मा, डुमरियागंज में जगदम्बिका पाल, लखनऊ में रीता बहुगुणा जोशी और इलाहाबाद में नन्द गोपाल नन्दी.

इसलिए वास्तव में प्रियंका गांधी की एंट्री के चुनावी प्रभाव को पांच बिन्दुओं में रखा जा सकता है.

  • कांग्रेस को पारिवारिक गढ़ के अलावा 10 सीटों पर जीत की स्थिति में लाना. खासकर वो सीटें यहां महत्वपूर्ण हैं, जहां मजबूत नेता हैं. जैसे प्रतापगढ़ (राजकुमारी रत्ना सिंह), उन्नाव (अन्नू टंडन), बाराबंकी (पीएल पुनिया) और फैजाबाद (निर्मल खत्री), कुशीनगर (आरपीएन सिंह), कानपुर (श्रीप्रकाश जायसवाल) और धौरहरा (जितिन प्रसाद).
  • 15 अतिरिक्त सीटों पर मजबूत ताकत के रूप में उभरना.
  • पूरे राज्य में पार्टी के वोट शेयर में सुधार.
  • बीजेपी के समर्थक वर्ग ब्राह्मण, दूसरे सवर्ण और कुर्मी के बड़े हिस्से को आकर्षित करना.
  • दलित और मुसलमानों के बीच बढ़त दिलाना.

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Published: 29 Jan 2019,08:01 PM IST

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