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प्रियंका गांधी की एंट्री सिर्फ कांग्रेस में नहीं है, प्रियंका की एंट्री बीजेपी में है, एसपी-बीएसपी गठबंधन में है. प्रियंका की एंट्री सिर्फ यूपी में नहीं है, प्रियंका की एंट्री हर उस जगह है, जहां कांग्रेस के लिए सम्भावना है और जहां प्रियंका की वजह से फर्क पड़ने वाला है.
मगर प्रियंका की एंट्री सबसे ज्यादा कहां है? यह है मीडिया. प्रियंका गांधी कवरेज के नजरिए से मीडिया की डार्लिंग बनने वाली हैं.
मीडिया चाहे मुख्यधारा की हो या सोशल मीडिया, यह क्षेत्रीय हो या राष्ट्रीय, स्थानीय हो या देशव्यापी- सबके लिए टीआरपी रहने वाली हैं प्रियंका गांधी. ऐसा नहीं है कि यह कयास भर है. प्रियंका गांधी राजनीति में पहली बार सक्रिय नहीं हुई हैं. वह लम्बे समय से सक्रिय हैं, पर पर्दे के पीछे से.
पहली बार आधिकारिक रूप से वह पूर्वी उत्तर प्रदेश की चुनावी कमान सम्भालने जा रही हैं. कांग्रेस की महासचिव बनकर कांग्रेस के कायाकल्प में योगदान करने जा रही हैं. अतीत का अनुभव बताता है कि मीडिया की टीआरपी के लिए प्रियंका गांधी बिल्कुल फिट हैं. यही वजह है कि उनकी छोटी से छोटी बात को भी मीडिया में जगह मिलती रही है. अब ऐसा और अधिक होगा, इसके पूरे आसार हैं.
अमेठी और रायबरेली तक खुद को समेटी रही प्रियंका गांधी ने मीडिया पर तब भी असर डाला था, जब 2014 में नरेंद्र मोदी मीडिया में छाए हुए थे. प्रियंका गांधी दो तरीके से मीडिया में आती हैं, छा जाती हैं.
एक उनका अपना अंदाज, व्यक्तित्व, चुनाव प्रचार और भाषण की शैली है, जिसके जरिए वे विरोधियों पर हमला करती हैं. दूसरा होता है प्रियंका की सक्रियता पर प्रतिक्रियाएं.
जब प्रियंका बोलती हैं, तो उन पर बीजेपी हमला करती है. इससे अचानक दृश्य बदल जाता है. सकारात्मक दिखने और करने का दावा करने वाली बीजेपी में नकारात्मकता खुलकर दिखाई देने लगती है. वहीं प्रियंका गांधी की सकारात्मकता कांग्रेस को फायदा तो पहुंचाती ही है, विरोधियों की नकारात्मकता का फायदा भी कांग्रेस को मिलने लग जाता है.
एक अहम बात ये है कि प्रियंका गांधी की तुलना राहुल और सोनिया गांधी से होने लगती है, जिनके मुकाबले प्रियंका के लिए आम सोच अधिक सकारात्मक है. 2014 में प्रकाशित 'द टाइम्स ऑफ इंडिया' की इसी रिपोर्ट में इस बारे में कहा गया था कि प्रियंका के भाषणों में 17 फीसदी ही नकारात्मक होता है, बाकी 83 फीसदी सकारात्मक होता है.
मुख्यधारा की मीडिया को देखें, तो इसकी खासियत ये है कि जो नेता टीआरपी बटोरते हैं, उसे कवरेज देने में यह कभी संकोच नहीं करता. यह कवरेज नकारात्मक भी हो सकता है, सकारात्मक भी.
अरविन्द केजरीवाल दोनों उदाहरणों में फिट बैठते हैं. लालू प्रसाद के लिए नकारात्मक कवरेज मीडिया में ज्यादा रहा है. एक समय में नरेंद्र मोदी के लिए भी गुजरात दंगों के संदर्भ में नकारात्मक कवरेज अधिक हुआ करता था. मगर 2014 के बाद से मीडिया का नरेंद्र मोदी के लिए नैरेटिव ही बदल गया. अब केवल और केवल सकारात्मक खबरों के लिए उन्हें मीडिया में सुर्खियां मिलती हैं.
प्रियंका मुख्यधारा की मीडिया की इस चरित्र में भी अपनी जगह बनाती दिखती हैं. प्रियंका का सकारात्मक कवरेज तो स्वाभाविक रूप से होगा ही. उनका पार्टी में क्या प्रभाव पड़ने वाला है, उनके प्रचार से कांग्रेस किस तरह दूसरा जीवन पाने वाली है... इस तरह के मुद्दों की वजह से उन्हें मीडिया कवरेज मिलेगा.
प्रियंका के कार्यक्रम क्या होंगे, वह हर दिन कहां-किस तरह सक्रिय रहने वाली हैं, किस दिन क्या बोलती हैं, किनके खिलाफ बोलती हैं, इन सब पर मुख्यधारा का मीडिया नजर रखने वाला है.
यह भी तय है कि जब प्रियंका की सकारात्मक खबरें होंगी, तो विरोधी उनके लिए नकारात्मक बोलेंगे. या खुद भी प्रियंका कुछ ऐसा कर या कह सकती हैं, जो नकारात्मकता की कसौटी पर कसा जा सके. तब भी प्रियंका को ही कवरेज मिलने वाला है.
अगर आपको याद हो, तो प्रियंका गांधी ने 2014 के आम चुनाव के दौरान किस तरीके से ‘ओछी’ शब्द का जिक्र किया था, जिसके जवाब नरेंद्र मोदी ने 45 मिनट तक भाषण दिया और 'चांदी का चम्मच लेकर पैदा होने' वाली बात से लेकर खुद के लिए 'घर-घर बर्तन धोने वाली मां का बेटा' बताकर उन्होंने इस मामले को एनकैश किया था.
खुद को 'गरीब का बेटा', 'चाय बनाने वाले का बेटा' और ओबीसी का बताते हुए मोदी ने प्रियंका के बयान से चुनावी फायदा उठाया था. यह दोबारा भी सम्भव है. मगर अब मोदी के जवाबी भाषण में शायद वह धार न दिखे.
प्रियंका ने राहुल गांधी को अध्यक्ष बनते समय भी पूरे आयोजन को सम्भाला था, जिसकी मीडिया में खूब चर्चा हुई थी. रायबरेली और अमेठी में प्रियंका के कामकाज की मीडिया में चर्चा होती रही है. मगर अब जबकि खुलकर प्रियंका कांग्रेस की नाव को सम्भालने के लिए उतरी हैं, तो मीडिया कवरेज पर सबकी नजर रहेगी.
विरोधियों के लिए प्रियंका की एंट्री मीडिया कवरेज के अकेले एंगल से भी चिन्ताजनक है, जबकि कांग्रेस के लिए उत्साह का मौका.
(प्रेम कुमार जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में लेखक के अपने विचार हैं. इन विचारों से क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)
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