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राजस्थान (Rajasthan) में प्रदेश की सत्ता से भारतीय जनता पार्टी (BJP) को दूर हुए चार साल का समय हो गया है. इतना ही समय पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे (Vasundhara Raje) को भी बीजेपी की प्रदेश स्तरीय राजनीति के हाशिए पर रहते हुए हो गया है. हालांकि कहने को तो वसुंधरा बीजेपी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं, लेकिन राजस्थान से संबंधित पार्टी के निर्णय और कार्यक्रमों में उनकी भूमिका बेहद मामूली ही रहती है.
पार्टी ने कई बार वसुंधरा राजे के सीधे जनसंपर्क और राजनितिक ताकत दिखाने वाले कार्यक्रमों में रोड़ा डाल कर उन्हें स्थगित करने पर भी मजबूर किया है. देवदर्शन यात्रा में कुछ इसी तरह का नजारा दिखाई दिया था. लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि धौलपुर की महारानी एक बार फिर पार्टी को अपना जलवा दिखाने के लिए आतुर हैं. बीकानेर संभाग की दो दिवसीय दौरे पर इसका आगाज भी कर दिया गया है.
इसलिए उनके हर एक राजनीतिक एक्शन पर नजर रखी जा रही थी. वसुंधरा समर्थकों ने बीकानेर यात्रा और उसके बाद जनसभाओं का ऐलान किया तो प्रदेश में बीजेपी के केन्द्रीय नेतृत्व और मंशा पर पार्टी में सक्रिय बने हुए नेताओं ने बात दिल्ली दरबार तक पहुंचा दी. जवाब में वसुंधरा राजे के समर्थकों ने सामान्य मंदिर दर्शन और मुलाकातों की जानकारी देकर मामले को रफादफा किया.
लेकिन प्रदेश बीजेपी के नेता की हैरानी की सीमा तब नहीं रही, जब वसुंधरा राजे ने बीकानेर के प्रसिद्ध जूनागढ़ और देशनोक में करणी माता मंदिर सहित दो दिन में पांच बड़ी सभाएं कर डालीं. इन सभाओं में वसुंधरा राजे का भाषण भी तीखे अंदाज पर राज्य की गहलोत सरकार पर हमला करने वाला रहा.
यह ठीक वैसा ही अंदाज था जो 2013 में दूसरी बार प्रदेश की मुख्यमंत्री बनने से पहले वसुंधरा ने दिखाया था. उस समय भी वसुंधरा राजे का बीजेपी आलाकमान से कुछ इसी अंदाज में टकराव हुआ था. तब वसुंधरा ने अपने तीखे तेवर दिखाते हुए नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया की मेवाड़ दर्शन को रद्द करवा दिया था.
पार्टी आलाकमान ने यात्राओं के इस बखेड़े से बचने के लिए सितंबर में जोधपुर में बीजेपी के प्रदेशाध्यक्ष सतीश पूनिया को भी रामदेवरा की पदयात्रा को रोकने के निर्देश दिए थे. उसे मानते हुए पूनिया ने पदयात्रा में भीड़भाड़ से दूरी बना कर अकेले ही यात्रा पूरी कर पार्टी आलाकमान का मान भी रखा था और अपनी बात को भी पूरा कर लिया था. लेकिन वसुंधरा राजे पार्टी आलाकमान की सलाह को नजरअंदाज करती दिखाई दी थी.
बीकानेर में वसुंधरा की सभाओं में भारी सैलाब उमड़ा था. लेकिन बीजेपी के संगठन ने दूरी रखी थी. संगठन के नेताओं और कार्यकर्ताओं को वसुंधरा के कार्यक्रमों से दूरी बनाए रखने के लिए केन्द्रीय मंत्री अर्जुनराम मेघवाल की तरफ से मोर्चा खोल गया. खुद उनके परिवार के सदस्यों ने वसुंधरा राजे के इन कार्यक्रमों को पार्टी से छुपा कर दूरी बनाने का आह्वान भी किया था. लेकिन मामला बढ़ता देख इन पोस्ट्स को सोशल मीडिया से हटा लिया गया.
यह रणनीति साफ है कि राजस्थान विधानसभा चुनाव में वसुंधरा की भूमिका पार्टी आलाकमान बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं है. दरअसल पार्टी आलाकमान का यह रूख 2018 के विधानसभा चुनाव के बाद से ही वसुंधरा राजे को लेकर बन गया था. तब लाख जतन करने के बाद भी चुनाव में राजे की मनमानी के आगे पार्टी आलाकमान को चुप्पी साधनी पड़ी थी.
लेकिन उसके बाद हुए लोकसभा चुनाव में वसुंधरा को दूर रखते हुए 25 की 25 सीटों पर बीजेपी की जीत ने आलाकमान के इरादों को और मजबूत कर दिया था. तब से लेकर अब तक राजस्थान बीजेपी में इस तरह की राजनीतिक अदावत की पिक्चर पर्दे के पीछे चल रही है.
लेकिन अब विधानसभा चुनाव में एक साल बाकी होने से राजे समर्थक और खुद वसुंधरा राजे बगावती तेवर अपनाने के लिए आतुर हो गई हैं. आने वाले दिनों में बीजेपी में इसी तेवर के चलते भारी उठापटक देखने को मिलेगी.
2018 के विधानसभा चुनाव में हार देखने के बाद वसुंधरा के जनाधार में गिरावट का दौर रहा. लेकिन चार साल बाद आज फिर से वह जनताकत से लबरेज दिखाई दे रही हैं तो उसके पीछे बीजेपी के रणनीतिकारों की कमी है.
एक तो पार्टी राजस्थान में वसुंधरा के कद का कोई दूसरा नेता तैयार नहीं कर पाई. वहीं दूसरी तरफ प्रदेश भर में वसुंधरा राजे के समर्थकों को पार्टी से जोड़ने के लिए कोई अभियान स्थानीय बीजेपी नेताओं ने नहीं चलाया. इसका परिणाम यह निकला कि बड़ी संख्या में पूर्व विधायक और वसुंधरा शासन में राजनीतिक नियुक्तियों का आनंद ले चुके नेता अपनी पूरी ताकत के साथ राजे के साथ जुड़ने का मन बना चुके हैं.
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