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क्या कृषि कानूनों की वापसी, बीजेपी के लिए खतरे की घंटी है

साढ़े छह साल में यह दूसरी बार है कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने फैसले से पलटे हैं

नीलांजन मुखोपाध्याय
पॉलिटिक्स
Published:
<div class="paragraphs"><p>क्या कृषि कानूनों की वापसी, बीजेपी के लिए खतरे की घंटी है</p></div>
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क्या कृषि कानूनों की वापसी, बीजेपी के लिए खतरे की घंटी है

(फोटो: द क्विट)

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प्रधानमंत्री की घोषणा से जो संकेत मिलते हैं, वे यह हैं कि वह मौके के हिसाब से फैसले लेते और उन्हें बदलते हैं. तीनों कृषि कानूनों (Three Farm Laws) को वापस लेने का फैसला मोदी (Narendra Modi) की चिरपरिचित शैली से बहुत अलग है.

यह बताता है कि शायद आखिर में इस बात का एहसास हो गया है कि अगर अभी इस सिलसिले में कोई कदम नहीं उठाया गया तो बहुत बड़ा राजनैतिक नुकसान हो सकता है.

अहम बात यह है कि साढ़े छह साल में यह दूसरी बार है कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने फैसले से पलटे हैं. इन कानूनों की मुनादी धूमधाम से की गई थी. जोश भरे प्रचार किए गए थे.

दोनों बार सटीक समय पर फैसले लिए गए थे. पहली बार कदम पीछे तब किए गए थे, जब केंद्र में नई-नई सरकार बनी थी. दूसरा फैसला शुक्रवार, 19 नवंबर को लिया गया, जिस वक्त मोदी एक के बाद एक चुनौती का सामना कर रहे हैं. उन पर कोविड-19 के बंदोबस्त से लेकर अगले साल राज्यों के विधानसभा चुनावों के मद्देनजर राजनीतिक संकट मंडरा रहा है.

छह साल का फासला

2015 में मोदी ने भूमि अधिग्रहण कानून पर कदम पीछे किए थे. तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी सहित विपक्ष और संघ परिवार के कुछ विचारकों के जबरदस्त विरोध के बाद अध्यादेश के जरिए यह कानून वापस लिया गया था.

हां, तब कुछ महीनों में ही कानून वापस ले लिया गया था, लेकिन इस बार प्रधानमंत्री ने इसे तब तक खींचा जब तक कि इसके नुकसान के संकेत साफ दिखाई नहीं देने लगे.

इसके अलावा, पहले से अलग, इस बार आरएसएस के नेताओं, उसके सभी सदस्यों ने नहीं, सिर्फ नेताओं ने इन विवादास्पद कानूनों पर मोदी का समर्थन किया. इससे पता चलता है कि वे किस हद तक सरकार के मुआफिक हो गए हैं.

वैसे 2015 के फैसले से पहले बीजेपी को कोई राजनैतिक धक्का नहीं लगा था. इस बार उपचुनावों में हार के बाद ये फैसला लिया गया है. मानो, हार से संभलने की कोशिश हो.

इस बार का फैसला काफी नाटकीय था. गुरुपूरब के दिन, जिसका मोदी ने अच्छा इस्तेमाल किया. इससे तीन अहम संकेत मिलते हैं.

पहला, मोदी की शख्सीयत की कई तहें हैं, और उनमें से एक तह स्वेच्छाचारी प्रवृति की है जिसमें व्यावहारिकता छिपी हुई है. लेकिन उनका अधिनायकवाद व्यावहारिकता पर ज्यादातर हावी रहता है. 2019 की महाविजय के बाद तो ये और भी मुखर हो गया.

मोदी के लिए संकट गहरा रहा है

मोदी ने विचारधारा के स्तर पर कई कामयाब फैसले किए- जैसे अनुच्छेद 370, तीन तलाक और नागरिकता (संशोधन) कानून. इनका खूब शोर मचा- पब्लिसिटी मशीनरी और सोशल मीडिया के लड़ाकों ने इनके लिए जान लड़ा दी. विपक्ष उलझन में पड़ गया. ये महसूस किया जाने लगा कि सत्ता की कुर्सी पर काबिज लोग देश की एक-एक ईंट उखाड़ फेंकना चाहते हैं.

कुछ ही महीनों में यह साफ था कि इन तीन कानूनों से कोई मुनाफा नहीं होने वाला. सरकार ने सिर्फ कानून में सुधार करने के लिए यह कदम नहीं उठाया. ये कदम राजनैतिक ज्यादा महसूस हो रहा था, फिर भी मोदी की मर्जी के आगे किसी की नहीं चली. अब सवाल यह है कि क्या यह कदम बहुत देर से नहीं उठाया गया?

सबसे बड़ा शक तो इसी बात पर है कि क्या इस कदम से बीजेपी अपने नुकसान की भरपाई कर पाएगी और नाखुश लोगों का भरोसा जीत पाएगी. यह शक दो वजहों से पैदा होता है. पहला, किसान और दूसरे विरोधी गुट खुशी से भरे हुए हैं और उन्हें लग रहा है कि यह फैसला एक सुनहरा मौका है.

उनके लिए मोदी की घोषणा इस बात का सबूत है कि 300 से भी ज्यादा सांसदों वाली सरकार ने प्रदर्शनकारियों के आगे घुटने टेक दिए- ऐसे प्रदर्शन, जिसमें हिंसा की छुटपुट घटनाएं ही हुईं, लेकिन ज्यादातर समय वह गांधीवादी अहिंसा और सेकुलरिज्म के ही रास्ते चला।

कानून वापस लेने का फैसला इस बात का सबूत है कि शासन के अहंकार के कारण लोग उन मुद्दों पर संघर्ष करने के लिए प्रेरित होते हैं जो उन्हें परेशान करते हैं.

दूसरी तरफ कृषि सुधारों के पक्षधर संगठनों में नाराजगी है. उन्हें मोदी ऐसे कमजोर और मौकापरस्त नेता लग रहे हैं जो चुनावों के हिसाब से फैसले लेते और उन्हें बदलते हैं. विडंबना यह है कि तुष्टीकरण के पैंतरे ने पलटकर खुद पर ही वार किया है. इस तबके में वे लोग भी शामिल हैं जिन्होंने बीजेपी की तरफ से यह प्रोपैगेंडा किया था कि किसान आंदोलन के नाम पर खालिस्तानी और देशद्रोही लोगों ने तूफान मचाया हुआ है.

अब कोई बताएगा कि क्या ‘टूलकिट्स’ जैसी झूठी और षडयंत्र भरी कहानियां सिर्फ लोगों को गुमराह करने के इरादे से सुनाई गई थीं?

उत्तर प्रदेश, पंजाब और उत्तराखंड के विधानसभा चुनावों में सिर्फ तीन महीने बचे हैं. इन राज्यों में इस आंदोलन का सबसे ज्यादा असर है. ऐसे में क्या मोदी और उनकी पार्टी के पास इतना समय बचा है कि वे किसानों और खफा हो चुके तरफदारों को अपने पाले में वापस घसीट सकें?

मोदी खेती से जुड़े विषयों पर अनजान हैं

खेती कानूनों पर सरकार के फैसले से दूसरा संकेत यह मिलता है कि मोदी खेती के मुद्दों से अनजान हैं. इसके अलावा वे ऐसे वादे करते हैं जिन्हें पूरा करना मुमकिन ही नहीं. जैसे 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करना. दिलचस्प यह है कि वह वक्त सिर्फ कुछ हफ्तों में ही आने वाला है.

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जैसे मोदी ने कभी यह वादा किया था कि जब वह सत्ता में आएंगे तो हर व्यक्ति के बैंक खाते में 15 लाख रुपए आ जाएंगे. इन दोनों वादों ने यह भी दर्शाया है कि मोदी ऐसे नेता हैं जो नामुमकिन दावे करते हैं.

गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी ने राज्य में खेती से संबंधित मामलों को दबा दिया क्योंकि वहां जमीनी सच्चाई अलग थी, लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में पिछले सात सालों के दौरान देश के बाकी राज्यों की संवेदनाओं को वह भांप नहीं पाए, खासकर भारत का ह्रदय कहलाने वाले राज्यों की.

ये बहुत अटपटा है क्योंकि उन्होंने कई साल पंजाब और हिमाचल प्रदेश में पार्टी की कमान संभाली है. यह समझाता है कि मोदी सियायत के दांव-पेंच तो बखूबी जानते हैं लेकिन आर्थिक मामलों में कुछ कच्चे हैं. नोटबंदी के दौरान भी ऐसा ही देखने को मिला था.

इस बार भी वह खेती की असलयित समझ नहीं पाए और पूर्व धारणाओं के आधार पर ही फैसले लिए गए. इसके अलावा स्टेकहोल्डर्स से कोई सलाह नहीं ली गई. इस सिलसिले में जिन लोगों से मशविरा किया गया, वे हां में हां मिलने वाले ही थे.

खेती कानूनों को वापस लेना और भी हैरानी वाली बात थी क्योंकि भले ही किसान नेताओं ने अपने संघर्ष का जोश थमने न दिया हो लेकिन इन नेताओं की अपनी कोई बड़ी राजनैतिक रणनीति नहीं थी, न ही वे एक दूसरे के साथ थे.

विजेता सिर्फ इससे खुश होने वाले नहीं

मोदी को इसका फायदा भी है, और नुकसान भी. फायदा यह था कि ऐसे बिखरे नेतृत्व के चलते प्रधानमंत्री को राजनैतिक वापसी का रास्ता मिल सकता है, लेकिन खतरा यह है कि यह आंदोलन किसी खास नेता का नहीं है, किसानों का बन चुका है.

आंदोलनकारियों के पास कोई एक संगठनात्मक नेटवर्क नहीं है. दूसरी तरफ बीजेपी और उसकी सरकार के पास अनगिनत एजेंसियां हैं. पूरी पार्टी मशीनरी काम पर लगी हुई है. साफ है कि कोई भी राष्ट्रीय आंदोलन, भले ही असंगठित जनता की अगुवाई में चलाए जाए, दमन करने वाली सरकारों के सिंहासन को भी हिलाकर रख देता है. चूंकि उसकी नींव में जन संवेदनाएं होती हैं.

इस फैसले से तीसरा संकेत यह मिलता है कि मोदी सरकार ने अपने खुद के लिए भी कोई काम नहीं किया. उसने आरएसएस के नेताओं को अपने काबू में किया और उन्हें नैतिक पहरुआ बनने नहीं दिया- जो उनकी जांच परख करते रहें और जब फैसले उलटने पड़ने लगें तो चेतावनी भरे संकेत दें.

आरएसएस के नेताओं ने कई बार कहा है कि संघ का मकसद समाज बनना है। ऐसा तभी संभव है, जब वह सरकार का पिछलग्गू न बना रहे.

इसे पंजाब के सिख किसानों की फतह कहा जा सकता है, चूंकि पिछले साल उन्हें ‘अलगाववादी’ कह दिया गया था, लेकिन यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के किसानों की भी जीत है जो बीजेपी के वोट बेस से दूर छिटक रहे थे. बीजेपी के लिए यह ज्यादा बड़ी चिंता थी.

2014 में मोदी की जीत की एक बहुत बड़ी वजह यह थी कि उन्होंने लोगों से तुरंत एक रिश्ता जोड़ लिया था और उन्हें ‘अच्छे दिनों’ में ले जाने का वादा किया था.

वैसे यह कहना अभी जल्दबाजी है कि क्या बीजेपी के लिए ‘बुरे दिनों’ की शुरुआत हो चुकी है. किसानों और उनके समर्थकों को बस, इतने से तसल्ली होने वाली नहीं है। निश्चित तौर पर वे इससे ज्यादा की चाहत रखते हैं.

(लेखक दिल्ली स्थित एक लेखक और पत्रकार हैं. उन्होंने ‘द आरएसएस: आइकन्स ऑफ द इंडियन राइट’ और ‘नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स’ जैसी किताबें लिखी हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @NilanjanUdwin है. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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