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त्रिपुरा में BJP 2.0: सीएम माणिक साहा और कंपनी क्या गुटबाजी का मुकाबला कर पाएगी?

Tripura: कम बहुमत वाली सरकार चलाना, पार्टी के लिए सिरदर्द बन सकता है.

सागरनील सिन्हा
पॉलिटिक्स
Published:
<div class="paragraphs"><p>त्रिपुरा में BJP 2.0: सीएम माणिक साहा और कंपनी क्या गुटबाजी का मुकाबला कर पाएगी</p></div>
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त्रिपुरा में BJP 2.0: सीएम माणिक साहा और कंपनी क्या गुटबाजी का मुकाबला कर पाएगी

(फोटो- क्विंट हिंदी)

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8 मार्च को त्रिपुरा (Tripura) में मुख्यमंत्री माणिक साहा (CM Manik Saha) के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी (BJP) सरकार ने शपथ ली. इस मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Modi), गृह मंत्री अमित शाह, पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा, असम के मुख्यमंत्री और उत्तर पूर्व लोकतांत्रिक गठबंधन के संयोजक हिमंत बिस्वा सरमा और दूसरे गणमान्य व्यक्ति मौजूद थे. साहा के साथ आठ मंत्रियों, जिनमें से चार नए हैं, ने भी शपथ ली. जबकि तीन पद खाली रखे गए. इसी ने अटकलों का बाजार गर्म किया है.

  • माणिक साहा 2016 में बीजेपी में शामिल हुए थे. उन्हें पिछले साल तत्कालीन मुख्यमंत्री बिप्लब देब की जगह राज्य का मुख्यमंत्री चुना गया था.

  • गुटबाजी हमेशा से बीजेपी नेतृत्व के लिए चिंता का विषय रही है. इन्हीं वजहों से प्रतिमा भौमिक को मैदान में उतारा गया, इस सच्चाई के बावजूद कि जनवरी की शुरुआत में ही अमित शाह ने घोषणा की थी कि लड़ाई साहा के नेतृत्व में लड़ी जाएगी.

  • आज प्रतिमा ने प्रोटेम स्पीकर बिनॉय भूषण दास को औपचारिक पत्र सौंपकर अपनी धनपुर सीट से इस्तीफा दे दिया.

  • साहा की अगुवाई वाली बीजेपी के लिए कम बहुमत वाली सरकार चलाना आसान नहीं होगा.

  • कैबिनेट में तीन खाली पद मोथा को एडजस्ट करने के लिए छोड़े गए हैं, जो अब बीजेपी को लेकर कुछ नरम पड़ गई है.

बीजेपी ने फिर से माणिक साहा को क्यों चुना?

माणिक साहा 2016 में बीजेपी में शामिल हुए थे. उन्हें पिछले साल तत्कालीन मुख्यमंत्री बिप्लब देब की जगह राज्य का मुख्यमंत्री चुना गया था. साहा उस समय राज्य अध्यक्ष के ओहदे पर थे. उन्हें 2020 में अध्यक्ष की कुर्सी थमाई गई थी. जब साहा को मुख्यमंत्री बनाया गया था, उस समय वह बिप्लब देब के वफादार माने जाते थे.

हालांकि पिछले आठ महीनों में साहा ने अपने लिए एक जगह बना ली है. वह मृदुभाषी हैं, और बिना किसी विवाद के बेबाक मुख्यमंत्री. वह एक ईमानदार व्यक्ति के रूप में देखे जाते हैं. इसी धारणा ने उनकी जगह पुख्ता की है.

वैसे मुख्यमंत्री पद के कई दूसरे दावेदार भी थे- बिप्लब देब, केंद्रीय मंत्री प्रतिमा भौमिक और वर्तमान राज्य पार्टी अध्यक्ष राजीब भट्टाचार्जी. फिलहाल बिप्लब देब राज्यसभा के सदस्य हैं, इसीलिए उन्हें दौड़ से बाहर रखा गया था. उन्हें इस बार उनके निर्वाचन क्षेत्र बनमालीपुर में पार्टी ने नामित नहीं किया था, यह बात और है कि वह फिर से इस पद पर काबिज होने की तैयारी में थे. जहां तक राजीब भट्टाचार्जी का सवाल है, उन्हें इस निर्वाचन क्षेत्र से चुना गया था लेकिन वह आश्चर्यजनक रूप से कांग्रेस के गोपाल चंद्र दास से हार गए. हालांकि गोपाल चंद्र को चुनाव प्रचार के दौरान इस बात का यकीन नहीं था कि वह जीत सकते हैं.

गुटबाजी हमेशा से बीजेपी नेतृत्व के लिए चिंता का विषय रही है. इन्हीं वजहों से प्रतिमा को मैदान में उतारा गया, इस सच्चाई के बावजूद कि जनवरी की शुरुआत में ही अमित शाह ने घोषणा की थी कि लड़ाई साहा के नेतृत्व में लड़ी जाएगी. चुनाव प्रचार के दौरान भी केंद्रीय नेतृत्व ने यह बात और साफ कर दी थी. इस तरह उन्हें भी अच्छे मूड में रखा गया.

इसके अलावा उन्हें मैदान में इसलिए उतारा गया ताकि चुनाव प्रचार के दौरान महिला कैडर पर असर पड़े. फिर, अगर साहा अपनी सीट गंवा देते, तो प्रतिमा पार्टी के काम आतीं. दिलचस्प बात यह है कि साहा ने अपने प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के आशीष साहा को सिर्फ 1257 वोटों के मामूली अंतर से हराया.

आज प्रतिमा ने प्रोटेम स्पीकर बिनॉय भूषण दास को औपचारिक पत्र सौंपकर अपनी धनपुर सीट से इस्तीफा दे दिया. उन्होंने मुख्यमंत्री पद के लिए पैरवी की लेकिन केंद्रीय नेतृत्व राजी नहीं हुआ. उन्हें राज्य का उपमुख्यमंत्री नहीं बनाया गया था.

कयास लगाए जा रहे हैं कि पार्टी धनपुर सीट से पार्टी का आदिवासी चेहरा और पिछली सरकार में उपमुख्यमंत्री जिष्णु देव वर्मा को मैदान में उतार सकती है. हां, पार्टी के लिए यह शर्मिंदगी जरूर है कि वित्त जैसे महत्वपूर्ण पोर्टफोलियो वाले जिष्णु अपनी चारिलम सीट से टिपरा मोथा के सुबोध देबबर्मा से हार गए.

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किसी को हटाना, और किसी को चुनना

जिन चार मंत्रियों को नए मंत्रिमंडल में बरकरार रखा गया है, वे हैं रतन लाल नाथ, प्राणाजित सिंघा रॉय, सुशांत चौधरी और संताना चकमा, जो कैबिनेट में अकेली महिला और अल्पसंख्यक प्रतिनिधि हैं.

नए चेहरों में टिंकू राय हैं, जो सीपीएम के गढ़ चांदीपुर से जीते और केंद्रीय नेतृत्व के पसंदीदा माने जाते हैं.

इसके अलावा सुधांशु दास, बिकाश देबवर्मा, जो पार्टी की अनुसूचित जनजाति मोर्चा राज्य इकाई के अध्यक्ष हैं, और शुक्लाचरण नोआतिया, जोकि कैबिनेट में आईपीएफटी के अकेले प्रतिनिधि हैं.

रतन लाल नाथ पहले शिक्षा मंत्री थे. इस बार उन्हें बिजली और कृषि एवं किसान कल्याण का प्रभार दिया गया है. वित्त मंत्रालय प्राणाजित सिंघा रॉय को दिया गया है. सुशांत को अब खाद्य, नागरिक आपूर्ति, उपभोक्ता मामले, परिवहन और पर्यटन का प्रभार दिया गया है.

ओबीसी कल्याण संताना को दिया गया है जबकि अल्पसंख्यकों के कल्याण का प्रभार नोआतिया को दिया गया है. आदिवासी कल्याण का प्रभार विकास को दिया गया है जबकि अनुसूचित जाति के कल्याण का प्रभार सुधांशु को दिया गया है.

हालांकि रामपदा जमातिया को कैबिनेट में शामिल नहीं किया गया. पिछली बार साहा के मुख्यमंत्री बनने के साथ उन्हें भी मंत्री बनाया गया था. लेकिन इस बार वह बाजी हार गए. यह थोड़ा पेचीदा मामला है. जब जिष्णु जैसा प्रमुख आदिवासी चेहरा और पार्टी उपाध्यक्ष पाताल कन्या जमातिया चुनाव हार गए, तो रामपदा ने मोथा के पूर्ण चंद्र जमातिया को हराकर बागमा सीट (एसटी) से जीत हासिल की. पूर्ण चंद्र जमातिया त्रिपुरा आदिवासी क्षेत्र स्वशासी जिला परिषद (टीटीएएडीसी) के मुख्य कार्यकारी सदस्य (सीईएम) भी हैं.

रामपदा जमातिया का रिश्ता विश्व हिंदू परिषद से है. साहा के नेतृत्व वाली पिछली कैबिनेट में वह आदिवासी कल्याण मंत्री थे. पिछली बीजेपी सरकार में दक्षिण त्रिपुरा जिले से कोई प्रतिनिधि नहीं था. इस बार आखिरकार उन्हें मंत्री मिल ही गया- शुक्लाचरण नोआतिया. सात सीटों में से बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए ने चार, जबकि सीपीएम ने तीन सीटें हासिल कीं.

तीन खाली पद क्या इशारा करते हैं?

ये खाली पद मोथा को एडजस्ट करने के लिए छोड़े गए हैं जो अब बीजेपी को लेकर कुछ नरम पड़ गई है. प्रद्योत ने कहा है कि अगर आदिवासियों के संवैधानिक समाधान की उनकी मांग पूरी होती है तो वह कैबिनेट में शामिल होने के बारे में सोच सकते हैं.

सिपाहीजला और धलाई जिलों से कोई मंत्री नहीं है. जिन महत्वपूर्ण चेहरों को छोड़ दिया गया है, उममें से एक हैं, किशोर बर्मन हैं. वह सिपाहीजाला जिले की नलचर सीट से जीते थे. बर्मन ने उत्तर बंगाल में बीजेपी के आधार को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

वैसे साहा के पास कई बड़े पोर्टफोलियो हैं, गृह, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण, शिक्षा, लोक निर्माण विभाग, राजस्व और ग्रामीण विकास. यह व्यवस्था अस्थायी लगती है क्योंकि इन सभी मंत्रालयों को संभालना, वह भी मुख्यमंत्री के लिए, मुश्किल है. इससे इन मंत्रालयों का कामकाज प्रभावित हो सकता है.

कम बहुमत वाली सरकार चलाना और गुटबाजी, साहा की अगुवाई वाली बीजेपी के लिए सिरदर्द

सच है कि मोदी फैक्टर ने सरकार को बचा लिया लेकिन एक सच यह भी है कि मोथा ने भगवा पार्टी को सत्ता में वापस लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. चूंकि इस बार बीजेपी-आईपीएफटी कम वोट शेयर के साथ सत्ता में लौटी है और राज्य विधानसभा में इसकी ताकत 44 से घटकर 33 रह गई है.

तो, साहा के नेतृत्व वाली बीजेपी के लिए कम बहुमत वाली सरकार चलाना आसाम काम नहीं होने वाला. इसके अलावा पार्टी में गुटबाजी भी उसके लिए बड़ा सिरदर्द और चिंता का सबब है.

यही गुटबाजी है जिसके कारण पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष राजीब खुद बनमालीपुर जैसे सुरक्षित निर्वाचन क्षेत्र से हार गए. इतना ही नहीं, साहा की कम अंतर से जीत इस बात का भी संकेत है कि उनके निर्वाचन क्षेत्र में भी कुछ तोड़-फोड़ हुई होगी.

पार्टी में कई नेता साहा के मुख्यमंत्री बनने से खफा हैं, और इस बार के नतीजों के बाद उन्हें हटाने की कोशिशें हुई हैं लेकिन केंद्रीय नेतृत्व ने फिलहाल विरोध की तरफ ध्यान नहीं दिया. देखना होगा कि आने वाले समय में पार्टी गुटबाजी से कैसे निपटती है.

(लेखक एक पॉलिटिकल कमेंटेटर हैं और @SagarneelSinha पर ट्वीट करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो उसके विचारों का समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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