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राजनीतिक गलियारे में उत्तर प्रदेश को लेकर एक जुमला आम है. वो ये कि यूपी में सियासत की बुनियाद जातियों के समीकरण पर टिकी होती है. जातियों के गणित में जो पास होगा, वही यूपी पर राज करेगा.
अगर मोदी लहर को छोड़ दें तो ये जुमला चुनाव-दर-चुनाव सही साबित भी होता आया है. यही कारण है कि लोकसभा चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ की सरकार ने बड़ा दांव खेलते हुए एक साथ 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने को हरी झंडी दे दी है. कहा जा रहा है कि योगी सरकार का यह फैसला पॉलिटिकल माइलेज लेने की कोशिश है, जिसकी पहली परीक्षा आगामी विधानसभा उपचुनावों में होगी.
लोकसभा चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश की 12 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होने हैं. इनमें गोविंदनगर, लखनऊ कैंट, टूंडला, जैदपुर, हमीरपुर मानिकपुर, बलहा, गंगोह, इगलास, प्रतापगढ़, रामपुर और जलालपुर सीटें शामिल हैं. लोकसभा में प्रचंड जीत के बाद बीजेपी की नजरें अब विधानसभा उपचुनाव पर टिकी हैं. दूसरी ओर, सीएम योगी को उपचुनाव के मायने बखूबी मालूम है, क्योंकि साल 2018 में गोरखपुर, फूलपुर कैराना में हुए उपचुनाव में बीजेपी की जो फजीहत हुई, उसे योगी आदित्यनाथ शायद ही भूल पाए हों. ऐसे में आने वाले कुछ दिनों में 12 विधानसभा सीटों के उपचुनाव की अग्निपरीक्षा को पास करने के लिए उन्होंने बड़ा दांव खेल दिया है. प्रदेश की 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने की कोशिश से बीजेपी ने एक तीर से दो निशाने साधे हैं-
योगी सरकार का ये दांव कितना कारगर है, इसका अंदाजा विधानसभा उपचुनाव के नतीजों से मालूम होगा. फिलहाल राज्य सरकार ने अपने इस फैसले को कानूनी अमलीजामा पहनाने की प्रक्रिया तेजी से शुरू कर दी है. योगी सरकार के इस दांव के पीछे एक और बड़ी वजह बताई जा रही है, वो है एसबीएसपी सुप्रीमो ओमप्रकाश राजभर की काट. साल 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने एसबीएसपी का हाथ पकड़ा तो पूर्वांचल के अधिकांश जिलों में उसे अच्छी-खासी कामयाबी मिली. खासतौर से अति पिछड़ी जातियों में बीजेपी की मजबूत पैठ बनी.
जो जातियां अब तक बीएसपी और एसपी की ओर देखती थी, पहली बार उसने बीजेपी का साथ दिया. अति पिछड़ों को बीजेपी के करीब लाने में ओमप्रकाश राजभर के रोल से कोई इंकार नहीं कर सकता.
माना जा रहा है कि ओमप्रकाश की प्रभुत्व वाली जातियों को बीजेपी साथ जोड़ने में जुट गई है, क्योंकि इन जातियों का विधानसभा चुनाव में काफी महत्व होता है.
बीजेपी के रणनीतिकारों को मालूम है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव में फर्क होता है. विधानसभा में जीत-हार का फासला लाखों में नहीं बल्कि हजारों में होता है. लिहाजा एक-एक वोट की कीमत होती है. ऐसे में बीजेपी ने जातिगत समीकरण को दुरुस्त करने के लिए अति पिछड़ी जातियों की ओर पासा फेंक दिया, जिसके विरोध की जुर्रत शायद ही कोई राजनीतिक दल कर सके. बीजेपी को उम्मीद है कि 17 अति पिछड़ी जातियों के 14 परसेंट वोट शेयर के भरोसे उपचुनाव में उसकी नैया पार लग जाएगी.
फिलहाल लोकसभा की प्रचंड जीत के साथ ही केंद्र और राज्य दोनों में बीजेपी की सरकार है. हर तरफ से माहौल बीजेपी के अनुकूल है. फिर भी बीजेपी ने अति पिछड़ों को अनुसूचित जाति में शामिल करने की पेशकश कर एक मैसेज देने की कोशिश की है, जिसका असर झारखंड, हरियाणा और दिल्ली में अगले कुछ महीनों में होने वाले विधानसभा चुनाव में देखने को मिल सकता है. साथ ही बीजेपी का ये प्रयोग यूपी में साल 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए भी एक प्लेटफॉर्म तैयार करेगा.
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अति पिछड़ों को अनुसूचित जाति में शामिल करने का ये फैसला नया नहीं है. डेढ़ दशक पहले यानि साल 2005 में यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने अति पिछड़ों को एससी में शामिल करने का प्रयोग किया था. लेकिन हाई कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी. इसके बाद प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा गया. 2007 में मायावती सत्ता में आईं तो इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया गया. इन जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने की मांग को लेकर उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखा.
विधानसभा चुनाव से ठीक पहले दिसंबर-2016 में इस तरह की कोशिश अखिलेश यादव ने भी की थी. उन्होंने 17 अति पिछड़ी जातियों को एससी में शामिल करने के प्रस्ताव को कैबिनेट से मंजूरी भी दिलवा दी. केंद्र को नोटिफिकेशन भेजकर अधिसूचना जारी की गई, लेकिन इस फैसले को हाई कोर्ट में चुनौती दी गई. मामला केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय में जाकर अटक गया था.
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