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पंचायत चुनाव को सेमीफाइनल मानकर यूपी की सभी पार्टियां अगले साल होने जा रहे विधानसभा चुनाव के लिए कमर कस रही हैं. लेकिन बीएसपी पर ये आरोप लग रहे हैं कि बीजेपी से उसकी अंदरूनी 'साठगांठ' है. इस तर्क को साबित करने के लिए मायावती की तरफ से बीजेपी के लिए थोड़े नरम और कांग्रेस-एसपी के लिए गरम बयानों का उदाहरण दिया जाता है. तो बीजेपी को लेकर मायावती खामोश क्यों हैं? आखिर पार्टी 2022 के चुनावों के लिए क्या सोच रही है?
अलग-अलग अखबारों के लिए साल 1989 से यूपी चुनाव कवर करने वाले वरिष्ठ पत्रकार बृजेश शुक्ला कहते हैं कि पिछले तीन दशक से बीएसपी की राजनीति एक जैसी ही रही है. पार्टी की राजनीति आंदोलन पर आधारित नहीं रहती है. चाहे वो हाथरस कांड जैसे मुद्दा ही क्यों न हो. एक तरफ जहां तमाम पार्टियां और नेता हाथरस पहुंचकर पीड़ित परिवार से मिलते दिखते हैं तो दूसरी तरफ मायावती और उनकी पार्टी की तरफ से प्रेस नोट या ट्वीट शेयर हो जाता है और उनके जो अपने समर्थक हैं, उनको इसी प्रेस नोट/प्रेस कॉन्फ्रेंस से मैसेज चला जाता है.
बृजेश शुक्ला का मानना है कि पिछले तीन दशकों में मायावती ने गठबंधन के साथ अपने प्रयोग भी करके देख लिए. मुलायम सिंह यादव से समझौता कर फिर गठबंधन तोड़ देना. बीजेपी के साथ पहले गठबंधन और फिर अलगाव. इसी तरह हाल ही में एसपी के साथ गठबंधन. ऐसे तमाम उदाहरण हैं जो बताते हैं कि मायावती समय के हिसाब से गठबंधन के प्रयोग करती हैं और इन प्रयोगों के आधार पर ही रणनीति भी तैयार करती हैं.
बीएसपी के बीजेपी पर कथित नरम रुख को लेकर वरिष्ठ पत्रकार विनोद शर्मा कहते हैं कि बीएसपी अपनी रणनीति को पारंपरिक वोट बैंक तक सीमित रखती है. संगठन को मजबूत करने के लिए मायावती और उनकी पार्टी ये मानकर चलती है कि कि उनका सीधा मुकाबला बीजेपी से है.लेकिन गौर करने वाली बात ये है कि बीजेपी और बीएसपी का वोट बैंक अलग-अलग है.
इसे उदाहरण से समझें तो 2019 के चुनाव में जब एसपी-बीएसपी साथ लड़ीं तब भी बीएसपी की सीटें कम नहीं हुईं, पार्टी को 10 सीटों पर जीत मिली थीं. बीएसपी का वोट प्रतिशत भी एक जैसा ही रहा है. बीजेपी को बहुमत मिला लेकिन बीएसपी वोट फीसदी बचाए रखने में कामयाब रही है. समाजवादी पार्टी के साथ ये देखने को नहीं मिला है.
बीएचयू के प्रोफेसर और दलित चिंतक एमपी अहिरवार बीएसपी की इस रणनीति को अलग नजरिए से देखते हैं. वो कहते हैं कि बीएसपी के समर्थकों को पहले से पता है कि बीजेपी उनके लिए खतरनाक है लेकिन कांग्रेस जैसी दूसरी पार्टियों से आगाह करने के लिए बीएसपी ज्यादा इनपर आक्रामक है.
बृजेश शुक्ला, विनोद शर्मा और एमपी अहिरवार तीनों का ही ये मानना है कि बीएसपी ऐसी पार्टियों में रही है जिसके समर्थक मायावती के प्रेस नोट/कॉन्फ्रेंस और ट्वीट से ही अपनी राय बनाते हैं. मायावती का ये संदेश बूथ लेवल कार्यकर्ताओं के पास जाता है, कई ग्रुप बूथ लेवल पर गांव-शहरों में बनाए गए हैं जो संदेश को लोगों तक पहुंचाते हैं.
एमपी अहिरवार का कहना है कि कई बार ऐसे तर्क दिए जाते हैं कि मायावती शांत क्यों हैं? वो इसलिए क्योंकि मेन, स्ट्रीम मीडिया बीएसपी के बयानों को दिखाती ही नहीं हैं.
ऐसे भी कयास लगाए जाते हैं कि खास तौर पर पश्चिमी यूपी में बीएसपी के प्रभाव पर चंद्रशेखर की भीम आर्मी (आजाद समाज पार्टी) का असर होगा.
वरिष्ठ पत्रकार बृजेश शुक्ला इसे समझाते हैं कि चंद्रशेखर पश्चिमी यूपी में काफी सक्रिय हैं. वो आंदोलनों में हिस्सा लेते हैं, आक्रामक भी हैं. हाथरस कांड के बाद वो काफी चर्चा में रहे लेकिन हाथरस कांड के बाद ही बुलंदशहर में जो उपचुनाव हुए वहां मायावती ने अपना कैंडिडेट खड़ा किया और दलित वोटर उनकी तरफ चले गए. हालांकि, चंद्रशेखर की पार्टी आजाद समाज पार्टी का भी कैंडिडेट वहां खड़ा था लेकिन दलित समुदाय ने मायावती को चुना.
वरिष्ठ पत्रकार विनोद शर्मा कहते हैं कि चंद्रशेखर की पार्टी भी माहौल भांप रही है कि उसका कांग्रेस के साथ मिलना सही रहेगा या समाजवादी पार्टी के साथ. लेकिन ध्यान देने वाली बात ये है कि पारंपरिक दलित वोटर कभी भी मायावती की आलोचना बर्दाश्त नहीं करता.चंद्रशेखर भी इस कोशिश में हैं कि 2022 के चुनाव में वे मायावती के उत्तराधिकारी बनें. यही वजह है कि चंद्रशेखर कभी सीधे मायावती की आलोचना नहीं करते.
यूपी चुनाव में विपक्ष की स्थिति को समझाते हुए बृजेश शुक्ला बताते हैं कि बीजेपी का ये सोचना हो सकता है कि विरोध के जितने भी रास्ते हों वो पार्टी के लिए फायदेमंद है. यही वजह है कि वो आम आदमी पार्टी की भी बयानबाजी को जवाब देकर तवज्जो देती है. कांग्रेस पर निशाना साधती है. बीजेपी को ऐसा लगता है कि जितनी विपक्षी पार्टियां रहेंगी उसका फायदा पार्टी को मिल सकता है.
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