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उत्तराखंड में जारी सियासी उठापटक खत्म हो चुकी है और अब तीरथ सिंह रावत ने सीएम पद की शपथ ली है. इससे पहले त्रिवेंद्र सिंह रावत के खिलाफ पार्टी के तमाम विधायकों ने मोर्चा खोल दिया था और आलाकमान को अबकी बार सोचने पर मजबूर कर दिया. आखिरकार त्रिवेंद्र रावत को इस्तीफा देना पड़ा. अब विधानसभा चुनावों से महज 10 या 11 महीने पहले मुख्यमंत्री बने तीरथ सिंह रावत के सिर ताज जरूर सजा है, लेकिन इस ताज में कितने कांटे हैं, ये भी देखना जरूरी है.
अब पहले पिछले 24 घंटों से चल रहे घटनाक्रम की बात करते हैं. सीएम के इस्तीफे की अटकलों के बाद से ही नए मुख्यमंत्री के लिए कई नाम सामने आने लगे. सबसे आगे उच्च शिक्षा मंत्री धन सिंह रावत का नाम था, उनके अलावा राज्यसभा सांसद अनिल बलूनी, नैनीताल से सांसद अजय भट्ट और सतपाल महाराज का नाम भी रेस में था. लेकिन 2017 की तरह इस बार भी बीजेपी ने तमाम राजनीतिक जानकारों और पत्रकारों को चौंका दिया. पौड़ी गढ़वाल से सांसद तीरथ सिंह रावत के नाम का ऐलान होते ही हर किसी के चेहरे पर वो चौंकने वाले भाव देखे जा सकते थे.
हालांकि भले ही तीरथ सिंह रावत के समर्थक इस बात का जश्न मना रहे हों, लेकिन ये याद रखना चाहिए कि अगले 10 या 11 महीने बाद चुनावी आचार संहिता लागू हो जाएगी, जिसके बाद चुनाव होंगे. ऐसे में ये भी मुमकिन है कि बीजेपी आलाकमान की तरफ से टेस्ट क्रिकेट की तरह नाइट वॉचमैन के तौर पर तीरथ सिंह रावत को बैटिंग करने भेजा गया हो. क्योंकि तीरथ सिंह फिलहाल सबसे बड़े जिले पौड़ी गढ़वाल से सांसद हैं और विवादों से ज्यादा नाता नहीं रहा है, ऐसे में पार्टी ने अगले विधानसभा चुनावों तक उन्हें कुर्सी संभालने की जिम्मेदारी दी है.
सीएम तीरथ सिंह रावत के सामने कई ऐसी बड़ी चुनौतियां हैं, जिन्हें पार पाना आसान नहीं है. पिछले 4 सालों की एंटी इनकंबेंसी को सिर्फ 10 महीने में दूर करना तो चमत्कार जैसा होगा. सीएम का पद मिलने के बाद उन्होंने कहा कि,
उत्तराखंड में सीएम तो बदल दिए गए हैं, लेकिन अब माना जा रहा है कि कैबिनेट में भी फेरबदल देखने को मिल सकता है. अगले चुनावों को देखते हुए उत्तराखंड के सबसे अहम मंडल गढ़वाल और कुमाऊं में संतुलन बनाना होगा. हमेशा से ही कैबिनेट में दोनों मंडलों से आए विधायकों को रखा जाता है. कैबिनेट के खाली पड़े तीन पदों को भरने के बाद ये बैलेंस बनाया जा सकता है. जिन नेताओं को पिछले सीएम ने हाशिए पर पहुंचा दिया था, उन्हें भी साधने की कोशिश हो सकती है.
उत्तराखंड ऐसा राज्य है, जहां पर राजनीतिक पार्टियां जातीय समीकरणों का खास खयाल रखती हैं. सीएम तीरथ सिंह रावत के नाम का ऐलान भी इसी का एक हिस्सा है. ये तो लगभग तय हो चुका था कि कोई ठाकुर ही अगला सीएम बनेगा. क्योंकि उत्तराखंड में ठाकुर-ब्राह्मण राजनीति काफी असरदार है. अगर इस वक्त किसी ब्राह्मण जाति के नेता को सीएम बनाया जाता तो ये पार्टी के लिए घातक साबित हो सकता था, इसीलिए राजनीतिक जानकारों ने अपनी लिस्ट से अनिल बलूनी और रमेश पोखरियाल निशंक जैसे नामों को पहले ही हटा लिया था.
उत्तराखंड में जातीय समीकरण का संतुलन बनाने के लिए ज्यादातर पार्टी अध्यक्ष और मुख्यमंत्री में एक ब्राह्मण और एक ठाकुर को चुना जाता है. इस बार भी कुछ ऐसा ही है, जहां सीएम की कुर्सी पर तीरथ सिंह रावत हैं, वहीं बंशीधर भगत प्रदेश अध्यक्ष हैं. इसके अलावा गढ़वाल और कुमाऊं मंडल के लिए भी यही फॉर्मूला सटीक बैठता है. दोनों मंडलों को बड़ा पद जरूर दिया जाता है. इस बार भी समीकरण फिट बैठा है, बंशीधर भगत कुमाऊं से आते हैं और तीरथ सिंह रावत गढ़वाल से सांसद हैं. ऐसे में अगर अनिल बलूनी या निशंक को सीएम बनाया जाता तो ये समीकरण बिगड़ जाते.
अब विरोध का इतिहास तो उत्तराखंड बीजेपी में काफी पहले से रहा है, लेकिन इस बार विरोधी सुर उन नेताओं की तरफ से ज्यादा उठे, जो कुछ साल पहले ही कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए हैं. पिछले विधानसभा चुनावों से पहले जिन 9 विधायकों ने कांग्रेस छोड़ी थी, वो सभी लोग इस विरोधी गुट का हिस्सा थे. अब तमाम लोग सवाल उठा रहे हैं कि इन नेताओं की पार्टी जरूर बदल गई, लेकिन महत्वकांक्षाएं कांग्रेस वाली ही हैं.
अब नए मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत के बारे में भी कुछ बातें आपको बता देते हैं. तीरथ सिंह रावत उत्तराखंड की पहली अंतरिम सरकार में शिक्षा मंत्री बनाए गए थे. लेकिन करीब दो साल के बाद ही चुनाव हो गए. जिसके बाद बीजेपी की हाथों से सत्ता फिसल गई. इसके बाद जब 2007 में चुनाव हुआ तो तीरथ सिंह रावत चुनाव हार गए. हालांकि पार्टी ने उन्हें प्रदेश महामंत्री बना दिया. इस दौरान वो संगठन में लगातार काम करते रहे.
तीरथ सिंह रावत हमेशा लो प्रोफाइल पॉलिटिक्स करते रहे हैं. लगातार संगठन के साथ काम किया है, लेकिन साल 2000 के बाद कभी दोबारा मंत्री पद नहीं मिला. इसीलिए अब कहा जा रहा है कि उनके पास प्रशासनिक अनुभव की कमी है और वक्त कम है. देखना होगा कि वो अपने 10 महीने के कार्यकाल में बीजेपी के खिलाफ नाराजगी को कैसे और कितना कम कर पाते हैं.
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