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क्यों शिवाजी तय कर रहे हैं मुंबई और महाराष्ट्र की राजनीति?

शिवाजी के नाम पर करोड़ों का खर्च, 21वीं सदी में भी शिवाजी के सहारे सत्ता की लालसा?

आशीष दीक्षित
पॉलिटिक्स
Updated:
(फोटो: The Quint)
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(फोटो: The Quint)
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‘शिवाजी की नई प्रतिमा लगाने के बदले सरकार उनके किले को संरक्षित करने पर पैसा क्यों नहीं खर्च कर सकती है?’ सोशल मीडिया पर बहुत लोगों ने यह समझदारी भरा सवाल पूछा है. कुछ लोगों ने तो इस खर्चीली प्रतिमा के खिलाफ ऑनलाइन अभियान भी शुरू कर दिया है. अंतत: महाराष्ट्र की फडनवीस सरकार ने इन आलोचकों की उपेक्षा करके अरब सागर स्थित जमीन पर छत्रपति शिवाजी की प्रतिमा स्थापित करने के लिए 3600 करोड़ रुपये खर्च करने का निर्णय ले लिया है.

यह जानना काफी रोचक है कि आखिरकार उन्होंने हजारों करोड़ रुपये खर्च करने का निर्णय क्यों लिया जबकि महाराष्ट्र के ऊपर 3.79 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है. आखिर एक मध्यकालीन शासक शिवाजी आज भी महाराष्ट्र में वोट बैंक का सबसे बड़ा स्रोत बने हुए हैं. हमलोग इसे गहराई से देखेंगे. लेकिन, सबसे पहले यह जानते हैं कि आखिर भारतीय जनता पार्टी ने इस मुद्दे को इतना अधिक महत्व क्यों दिया है?

बीजेपी क्यों शिवाजी की प्रतिमा के लिए परेशान है?- 3 वजहें


पहला, परंपरागत तौर पर महाराष्ट्र में बीजेपी को गुजराती और हिंदी भाषी पार्टी के तौर पर जाना जाता है जबकि मराठी मतदाता शिव सेना के लिए मतदान करते रहे हैं. अगर शिवसेना के साथ भाजपा का गठबंधन टूटता है, तो उसे अपने दम पर मराठी वोट की जुटाने होंगे. और ऐसे में शिवाजी के रास्ते मराठियों के दिल पहुंचा जा सकता है. याद रखें, देश की वित्तीय राजधानी मुंबई में मराठी भाषा बोलनेवाला एक बड़ा वोट बैंक (25 प्रतिशत) हैं.

दूसरा, मुंबई के अलावा महाराष्ट्र के नौ बड़े शहर जैसे ठाणे, पुणे एवं नासिक आदि में दो महीने के अंदर नगर निकाए के चुनाव होने हैं. ठाणे में शिवसेना, पुणे में राकंपा (राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी) और नासिक में एमएनएस (महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना) का शासन है और देखा जाए तो इन शहरों में मराठी और मराठा एक बड़ा मुद्दा है. जबकि शिवसेना, राकंपा और कांग्रेस ने पहले ही शिवाजी की इस प्रतिमा के निर्माण का वादा किया था, भाजपा ने इस मुद्दे को पूरी तरह हड़प लिया है.

तीसरा, महाराष्ट्र में हाल फिलहाल में सरकार विरोधी मराठा रैली हुई है. जाति से ब्राह्मण मुख्यमंत्री फडनवीस को अब 32 प्रतिशत नाराज मराठाओं को किसी भी कीमत पर मनाना है. मराठाओं को आरक्षण देना उनके हाथों में नहीं है लेकिन वह विश्व के मानचित्र पर मराठा शासक शिवाजी को अंकित कराकर उन्हें गौरव का अनुभव तो करा ही सकते हैं.

शिवाजी इतने महत्वपूर्ण क्यों हैं?

ऊपर के तीनों मुद्दे इस ओर इशारा करते हैं कि शिवाजी मराठा वोट को मोड़ सकते हैं. शिवाजी एक मध्यकालीन शासक थे, जिन्होंने हिंदू स्वराज (भारतीय या हिंदू के द्वारा शासन) के लिए मुस्लिम शासकों के खिलाफ जंग लड़ी थी. उनके अंदर अपने शासन को शक्तिशाली बनाने की ताकत थी, जिन्होंने कुछ समय के लिए ही सही लेकिन बाद में अखिल भारतीय स्तर पर शासन की बागडोर मराठाओं के हाथों में दी.

मराठा मानते हैं कि 17वीं और 18वीं शताब्दी महाराष्ट्र के इतिहास का स्वर्णकाल था, जबकि न केवल इसने अपने राज्य पर शासन किया बल्कि भारत के दूसरे क्षेत्रों पर भी शासन किया. जब भाषा के आधार पर नेहरू ने महाराष्ट्र को राज्य बनाने से इनकार कर दिया था, तो मुम्बई में इसके लिए राजनीतिक आंदोलन शुरू हुआ था. इसे संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन कहा गया, जिसकी मांग मुंबई, विदर्भ एवं बेलगाम (जो अभी कर्नाटक में है) के साथ एक एकीकृत महाराष्ट्र राज्य बनाने की थी.

इस आंदोलन ने आधुनिक मुंबई और महाराष्ट्र की राजनीति को बदल दिया. नेहरू सरकार के निर्णय के खिलाफ आंदोलन को जिंदा रखने के लिए महाराष्ट्र के नेताओं ने भड़काऊ भाषण दिए, जिसमें महाराष्ट्र के शासक की चर्चा होती थी और उनके गौरव की बात कही जाती थी. इस आंदोलन के एक बड़े नेता आचार्य अत्रे ने कहा था ‘मेरे महाराष्ट्र के पास महान इतिहास है, जबकि दूसरों के पास केवल भूगोल है.’

<b>संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन में मध्यकालीन स्वप्न का अत्यधिक उपयोग देखा गया. बाद में, जब मुंबई में मराठी भाषियों को अपनी स्थिति कमजोर होने का अहसास हो रहा था, तो बाल ठाकरे ने चालाकी से इसे लोकप्रिय बनाया. शिवसेना ने मुंबई में मराठियों की आर्थिक स्थिति की तुलना की, जो वास्तव में अपनी आदर्शवादी यादों वाले भूमिहीन किसान थे.</b>
सुहास पलशीकर, राजनीतिक विशेषज्ञ

इतिहास 21वीं सदी पर हावी है

बाल ठाकरे के पिता और संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन में एक महत्वपूर्ण नेता प्रबोधनकर ने मराठा राजा के नाम पर एक पार्टी शुरू की. उनका भाषण 17वीं सदी की शब्दावली और किस्सों से भरा रहता था. उनके बेटे और वर्तमान शिव सेवा प्रमुख उद्धव ने अपने पिता का ही अनुसरण किया. उन्होंने इस साल दशहरा रैली के भाषण में शिवाजी या उनके समय या उनके शब्दों को 15 बार दोहराया. उनसे उम्मीद थी कि वह मुंबई के विकास के बारे में बात करेंगे, जिसके लिए उनकी पार्टी ने पिछले तीन दशकों से शासन किया है. क्या एक मध्ययुगीन मानसिकता मुंबई को एक आधुनिक महानगर बनाने में मदद कर सकती है?

<b>भावनाओं की राजनीति करने वाले कुछ नेताओं ने यह तरीका अपना लिया है. लोगों से संवाद की इस रणनीति और नीतियों के गंभीर मुद्दों के बीच कोई बेल नहीं है. महाराष्ट्र के पास शिवाजी महाराज, वरकारी आंदोलन और जाति-विरोधी आंदोलनों की विरासत है. हालांकि, मराठियों को इन चीजों पर गर्व है पर वो नहीं जानते कि इस समृद्ध विरासत से क्या लिया जा सकता है. ऐसे में वे प्रतीकवाद में फंसकर रह जाते हैं. वे उन स्मृतियों को आज की समस्याओं से जोड़ नहीं पाते.ये सीमाएं सभी भारतीय समाजों में पाई जाती हैं. अगर इन क्षेत्रीय विरासतों को 20वीं सदी के दौरान राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के साथ नहीं जोड़ा जाता, तो ऐसा नहीं हो सकता था.</b>
सुहास पलशीकर, राजनीति विशेषज्ञ
(फोटो: PTI)

प्रतीकवाद हर जगह पाया जाता है. एयरपोर्ट से लेकर रेलवे टर्मिनल, आपको मुंबई और पूरे महाराष्ट्र में हर जगह शिवाजी का नाम मिलेगा. विभिन्न दलों के नेताओं का भाषण मराठा राजा और उनके सहयोगियों का जिक्र किए बिना पूरा नहीं होता. इतिहास से प्रेरणा लेने में कुछ गलत नहीं है, इस राजनीतिक खेल ने उनका मत परिवर्तन कर दिया जो इसे मानने लगे थे.

एक आधुनिक महानगर मानसिकता और विचार से होता है और इस मामले में पर हमारा नेतृत्व विफल हो जाता है. यह सपना पहचान की राजनीति के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है क्योंकि हमारे नेता लोगों की जीवन में सुधार का अपना बुनियादा वादा पूरा नहीं कर सकते. तीखी बयानबाजी को हमेशा एक दर्शक मिल जाते हैं. वोट बैंक की राजनीति के प्रभाव में हम एक लोकलुभाव जननेता बना रहा हैं- राजदीप सरदेसाई, वरिष्ठ पत्रकार

यह स्थिति सिर्फ महाराष्ट्र के साथ ही नहीं है. चयनात्मक, आदर्श इतिहास में जीना पूरे भारत और उसके बाहर भी पाया जाता है. हैदराबाद में एमआईएम से लेकर बंगाल में ममता और इंग्लैंड में ब्रैग्जिटर्स से लेकर अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप, हर कोई गौरवशाली अतीत को वापस लाने की बात करता है.

इसलिए, जैसे बीजेपी उत्तर भारत में 'राम राज्य' का वादा करती है, अब वैसे ही महाराष्ट्र में 'शिव राज्य' का वादा करती है. हालांकि, इस वादे में कुछ गलत नहीं है लेकिन समस्या इसके निर्माण में होने वाले भारी—भरकम खर्च की है, जो आदिवासी बच्चों को खिलाने या सूखाग्रस्त क्षेत्रों में बांध बनाने में इस्तेमाल हो सकता था. लेकिन, जब तक लोग भावनाओं के आधार पर वोट देगें तब तक राजनेता विकास निधि को गैरजरूरी स्मारकों को बनाने में लगाते रहेंगे.

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Published: 25 Dec 2016,11:19 AM IST

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