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उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ मंत्रिमंडल की शपथ के साथ ही महीने भर चली मैराथन चुनावी प्रक्रिया का एक पड़ाव खत्म हो गया. अगला पड़ाव उपचुनावों का है जहां तेजी से करवट ले रही यूपी की सियासत के दिलचस्प समीकरण देखने को मिल सकते हैं.
उपचुनाव इसलिए क्योंकि सूबे की तीन सबसे अहम कुर्सियों पर बैठने वाले तीनों नेता चुनाव लड़े ही नहीं थे. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ गोरखपुर से सांसद हैं और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या फूलपुर से. एक और उपमुख्यमंत्री दिनेश शर्मा लखनऊ के मेयर हैं. यानी शपथ अपनी जगह लेकिन अगले छह महीने के भीतर इन तीनों को विधानसभा या विधान परिषद के रास्ते विधायक दल का हिस्सा बनना पड़ेगा.
योगी और मौर्या की लोकसभा सीटों पर भी दोबारा चुनाव होंगे. इसके अलावा स्वतंत्र प्रभार वाले स्वतंत्र देव सिंह और योगी मंत्रिमंडल का इकलौता मुस्लिम चेहरा मोहसिन रजा भी विधायक नहीं हैं.
कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश को आने वाले दिनों में सात नए उपचुनावों का एक 20-20 मैच फिर खेलना पड़ेगा, जिसमें दो लोकसभा और पांच विधानसभा सीटें शामिल हैं.
आप सोच सकते हैं कि चुनावों से बचने के लिए बीजेपी सरकार मंत्रियों को विधान परिषद में मनोनीत कर एमएलसी भी तो बना सकती है. लेकिन वो रास्ता फिलहाल बंद है. उत्तर प्रदेश विधान परिषद सचिवालय के शोध अधिकारी डॉ. मुकुल शर्मा के मुताबिक
यानी बिना चुनाव लड़े मंत्री बने नेताओं को विधायक बनने के लिए उपचुनाव लड़ना ही पड़ेगा.
तो क्या विधानसभा चुनावों में हाथ जला चुका विपक्ष उपचुनावों में एकजुट होकर बीजेपी से पंजा लड़ाने की रणनीति बना सकता है? यानी समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस का जो महागठबंधन विधानसभा चुनावों से पहले नहीं बन पाया क्या वो उपचुनावों में कोई शक्ल अख्तियार कर सकता है? विधानसभा सीट के लिए पश्चिमी यूपी की किसी सीट पर चुनाव हुए तो अजित सिंह का राष्ट्रीय लोकदल भी इस गुट का हिस्सा हो सकता है?
विधानसभा चुनावों में दोबारा चुनाव झेलने वाली सीटें कौन सी होंगी ये तो अभी तय नहीं लेकिन लोकसभा के उपचुनाव योगी और मौर्या की गोरखपुर और फूलपुर सीटों पर होने तय हैं. 2014 के लोकसभा चुनावों में सपा, बीएसपी और कांग्रेस पार्टी के अलावा आम आदमी पार्टी ने भी बीजेपी के खिलाफ जमकर ताल ठोकी थी. पंजाब और गोवा के चुनाव नतीजों से हताश ‘आप’ हो सकता है कि इस बार चुनाव ना लड़े. तो अगर ‘आप’ के हिस्से का वोट भी एंटी-बीजेपी ‘महागठबंधन’ के वोट शेयर में मिला दें तो 2014 की तस्वीर कुछ ऐसी बनती है.
साफ है कि सारे प्रमुख विपक्षी दलों के वोट मिला दें तो भी बीजेपी ही आगे है लेकिन जीत का विशाल अंतर कम यानी 78,808 (7.5%) वोट हो जाता है.
गोरखपुर की ही तरह यहां भी सारे प्रमुख विपक्षी दल मिलकर भी बीजेपी से पीछे हैं लेकिन उनके मिलने से जीत का बड़ा अंतर कम यानी 79,087 (8.23%) वोट हो जाता है.
इसका मतलब ये कि अगर सियासी हालात में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया तो कोई अकेली पार्टी या सपा-कांग्रेस का मिनी गठबंधन बीजेपी से मुकाबले में नहीं दिखता. ऐसी सूरत में गैर बीजेपी तमाम पार्टियों के पास एक मंच पर आने के अलावा कोई चारा नहीं बचता. अब सवाल ये है सिर्फ बीजेपी से टक्कर ही इस परिकल्पित महागठबंधन कि वजह बन सकती है या फिर निजी कारण भी हैं?
2017 के यूपी चुनाव ने बीएसपी सुप्रीमो मायावती को हाशिये पर धकेल दिया है. उनके हाथ से यूपी विधानसभा में मुख्य विपक्षी पार्टी की कुर्सी खिसक चुकी है. वो फिलहाल राज्यसभा की सांसद हैं और उनकी ये सदस्यता भी 2 अप्रैल 2018 को खत्म हो रही है.
महज 19 विधायकों के साथ मायावती दोबारा राज्यसभा सांसद नहीं बन पाएंगी. ऐसे में उनके पास महागठबंधन का हिस्सा बनने की ठोस राजनीतिक वजह है क्योंकि समाजवादी पार्टी का सहयोग राज्यसभी की कुर्सी बचा सकता है. हालांकि वो 2019 के लोकसभा चुनावों का इंतजार भी कर सकती हैं लेकिन बीएसपी सूत्रों के मुताबिक 2019 की अनिश्चितता को देखते हुए, अगर हो सके तो, राज्यसभा ही मायावती पहली पसंद होगी.
पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने तो नतीजों से पहले ही बीएसपी के साथ हाथ मिलाने का प्रस्ताव रख दिया था. हालांकि उसकी नौबत ही नहीं आई लेकिन साफ है कि राजनीतिक रास्ते की मुश्किलों को देखते हुए आखिलेश की साइकिल हाथी की सवारी में कोई गुरेज नहीं करेगी. उधर राहुल गांधी की तो जंग ही 2019 के लोकसभा चुनाव हैं.
इस वक्त उत्तर प्रदेश में परसेप्शन और पोजिशन की लड़ाई में बीजेपी जिस बुलंदी पर है वहां उसकी छोटी-मोटी हार भी विपक्ष को नई ताकत दे सकती है. यूपी का उपचुनाव विपक्ष को तमाम दुश्मनी और मनमुटाव भुलाकर एक मंच पर आने का मौका देगा. तो क्या देश में मोदी और प्रदेश में योगी से टक्कर लेने के लिए विपक्ष इस मौके का इस्तेमाल करेगा.
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