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वीपी सिंह-मुलायम के बीच खिंचीं तलवारें और ‘युद्ध में अयोध्या’

अयोध्या आंदोलन के पीछे की सियासत का आंखो देखा हाल

क्विंट हिंदी
पॉलिटिक्स
Updated:
अयोध्या आंदोलन से पहले ‘वी.पी.सिंह और मुलायम सिंह के बीच गहरे पाले खिंच गए थे’
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अयोध्या आंदोलन से पहले ‘वी.पी.सिंह और मुलायम सिंह के बीच गहरे पाले खिंच गए थे’
(फोटो: क्विंट हिंदी)

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6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में विवादित ढांचा ढहाए जाने के वक्त आंखों के सामने आए मंजर से पहले पर्दे के पीछे जबरदस्त पॉलिटिक्स हुई. दिल्ली और लखनऊ में बैठे सियासदानों से लेकर साधु-संन्यासियों तक बिखरी इस राजनीति को भीतर से देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा ने उसे किताब की शक्ल दी है. यहां पेश है ‘युद्ध में अयोध्या’ का एक दिलचस्प अंश.

दुनिया का माहौल बदल रहा था. इसी साल अफ्रीकी नेता नेल्सन मंडेला 27 साल जेल में काट बाहर आए थे. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यूरोप के नक्शे पर नासूर बन गए जर्मनी के दो हिस्से इसी साल वापस जुड़ गए. जर्मनी 25 साल बाद एक हो गया. इन दोनों घटनाओं से दुनिया में उम्मीद का माहौल बनने लगा था. लगा, साल 1990 में अयोध्या कांड का भी सुखांत होगा. केंद्र और राज्य में जनता दल की सरकारें बन चुकी थीं.

विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार तो बीजेपी के समर्थन से ही चल रही थी. अब रास्ता निकलने की संभावना दिखने लगी थी. पर हुआ इसका ठीक उलटा. अयोध्या के सवाल पर जितनी दूरी विश्व हिंदू परिषद और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी में थी, उससे ज्यादा दूरी प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के बीच थी. परस्पर अविश्वास, धोखाधड़ी और षड्‍यंत्रों की बुनियाद पर दोनों के संबंध खड़े थे.

उस दौर में मुलायम सिंह यादव से मेरी काफी निकटता थी. वे अकसर निजी और गोपनीय बातों पर भी मेरे साथ चर्चा करते थे. उनका मानना था कि वी.पी. सिंह मंदिर के बहाने मेरी सरकार को गिराने में लगे हैं, हर रोज मेरे खिलाफ नए षड्‍यंत्र करते हैं. वे आशंकित थे कि प्रधानमंत्री साधु-संतों से बातचीत के बहाने उन्हें बुलाते हैं और मुलायम सिंह के खिलाफ भड़काते हैं.

मुलायम सिंह और वीपी सिंह के बीच दूरी बनाने में अजीत सिंह की अहम भूमिका थी. पर वह कहानी कभी और.

अयोध्या को लेकर विश्वनाथ प्रताप सिंह पर बीजेपी का जबर्दस्त दबाव था. क्योंकि इस मुद्दे पर दो सीटों से 85 सीटों तक का उछाल बीजेपी को मिला था. इससे बीजेपी और सहयोगी संगठनों का उत्साह चरम पर था. वी.पी. सिंह सरकार ने जब अयोध्या पर झगड़ रहे कट्टरपंथियों से बातचीत का सिलसिला शुरू किया, तो मुलायम सिंह यादव ने उनसे टकराव की नीति अपना ली.

एक बातचीत में वीपी सिंह ने मुझे बताया था कि एक बार जब वे अयोध्या पर समझौते के पास पहुँचने वाले थे, तब मुलायम सिंह यादव ने उन संतों को गिरफ्तार करवा दिया, जिनसे वे बात कर रहे थे. बाद में उन संतों को वीपी सिंह ने छुड़वाया.

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वीपी सिंह और मुलायम सिंह के बीच गहरे पाले खिंच गए थे. प्रधानमंत्री ने साधु-संतों से बातचीत के रास्ते इसलिए खोले, क्योंकि बीजेपी से टकराव उनकी सरकार के हित में नहीं था. बीजेपी के समर्थन से ही केंद्र की सरकार चल रही थी. केंद्र सरकार जानती थी कि टकराव से समस्या का समाधान तो नहीं ही होगा. लेकिन माहौल जस-का-तस बना रहा तो सरकार चलाना भी मुश्किल होगा. उधर वीपी सिंह से हिसाब चुकाने के लिए मुलायम सिंह यादव ने अतिवादी लाइन ली, वे बाबरी समर्थकों के पाले में चले गए.

(फोटो : ट्विटर/@hemantsharma360)

बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के तीन संयोजकों में से एक आजम खाँ को उन्होंने राज्य सरकार में मंत्री भी बनाया. दूसरे थे शफीक-उर-रहमान बर्क, जिनको उन्होंने अपनी पार्टी से सांसद बनाया, और तीसरे जफरयाब जिलानी, जिन्हें कानूनी सलाह के लिए उन्होंने अपने साथ रखा. विश्वनाथ प्रताप सिंह के

साथ इस शीतयुद्ध में मुलायम सिंह यादव की पीठ पर हाथ चंद्रशेखर का था. जो प्रधानमंत्री पद की दौड़ में पिछड़ गए थे. चंद्रशेखर खरी-खरी कहने वाले समाजवादी थे, पर वीपी सिंह से उनकी कभी नहीं बनी.

मुलायम सिंह यादव के ‘बाबरी समर्थक स्टैंड’ से उत्तर प्रदेश का मजहबी धुव्रीकरण तेज होता गया. समाज मंदिर और मस्जिद में बंट गया. स्थिति बिगड़ती चली गई. एक बार रास्ता निकालने के लिए बीजेपी की सहमति से केंद्र सरकार ने अयोध्या की विवादित जमीन के अधिग्रहण का अध्यादेश लागू किया, तो मुख्यमंत्री के तौर पर मुलायम सिंह ने ऐलान किया कि वे इसे लागू नहीं होने देंगे. अविश्वास और संवादहीनता दोनों में इस हद तक थी.

विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे सीधे और सपाट दिखते थे, वैसे थे नहीं. वे चालाक नेता थे. वे एक ही साथ विहिप से जुड़े साधु-संतों से भी बात कर रहे थे और दूसरी तरफ उन धर्माचार्यों के भी संपर्क में थे, जो विहिप के खिलाफ थे. और दोनों समूहों से बातचीत वे उ.प्र. के मुख्यमंत्री से छुपाकर कर रहे थे. इन साधुओं से उनके संपर्क का जरिया थे संतोष भारतीय, जो तब पत्रकार से सांसद बन चुके थे. वे प्रधानमंत्री के लिए गैर-बीजेपी रास्ते ढूंढ़ने में लगे थे. साधु-संतों में एक बड़ी जमात थी, जो विश्व हिंदू परिषद के साथ नहीं थी. संतोष भारतीय उन्हीं में संभावनाएं ढूंढ़ रहे थे.

इस बीच 27 और 28 जनवरी को इलाहाबाद में संगम के किनारे विहिप समर्थक संतों का एक सम्मेलन हुआ. इसमें अयोध्या मंदिर निर्माण के लिए 14 फरवरी से कारसेवा का ऐलान हुआ. इस ऐलान से केंद्र सरकार की चिंता बढ़ गई. मंदिर आंदोलन की अगुवाई करने वाले पूर्व न्यायाधीश देवकीनंदन अग्रवाल प्रधानमंत्री से बात करने दिल्ली गए.

प्रधानमंत्री ने विश्व हिंदू परिषद के दूसरे नेताओं को भी दिल्ली बुलाया. सात फरवरी को महंत अवेद्यनाथ, महंत नृत्यगोपालदास, अशोक सिंघल, देवकीनंदन अग्रवाल, विष्णु हरि डालमिया, एस.सी. दीक्षित, गुमानमल लोढ़ा और प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह से मिले.

परिषद नेता कारसेवा करने की अपनी बात पर अड़े रहे. रामचंद्र परमहंस ने विहिप नेताओं से प्रधानमंत्री को और वक्त देने पर राजी किया. वी.पी. सिंह ने इन नेताओं से निवेदन किया कि पहले कारसेवा टालिए. फिर एक कमेटी बनाई जाए, जो आपस में संवाद कायम करे.

(फोटो : ट्विटर/@hemantsharma360)

विहिप ने चार महीने का वक्त विश्वनाथ प्रताप सिंह को दिया. कारसेवा टालने की घोषणा हुई. वी.पी. सिंह ने एक साक्षात्कार में बताया कि जब मैं साधु-संतों से अपने घर 28 लोधी स्टेट में बात कर रहा था, उसी वक्त अंदर जा मैंने अपने हाथ से कारसेवा टालने की एक अपील लिख विहिप नेताओं को दी. मेरी अपील का असर हुआ और संतों से चार महीने का वक्त मिला.

वीपी सिंह ने बताया

पर जिन संतों से मैं बात कर रहा था, उन्हें ही मुलायम सिंह ने बाद में गिरफ्तार करवा लिया. जिससे बात बनने की जगह बिगड़ गई. बड़ी मशक्कत के बाद उन संतों को मुझे ही छुड़वाना पड़ा. मेरे सामने समस्या थी कि मसले का हल कैसे निकले. ऐसे मामले सुलझाने का जरिया अदालत हो सकती थी. पर साधु-संत इस बात पर अड़े थे कि वे अदालत की नहीं सुनेंगे. यह आस्था का सवाल है. जिसका फैसला तर्क से नहीं हो सकता है.
वीपी सिंह, पूर्व प्रधानमंत्री

वीपी सिंह ने उनसे कहा, ‘पर मुझे तो संविधान के दायरे में ही काम करना पड़ेगा. इसलिए मैंने इस मुद्दे पर दोनों पक्षों से बात करने के लिए मधु दंडवते, जॉर्ज फर्नांडीस और मुख्तार अनीस की एक कमेटी बना दी.’

मधुजी और जॉर्ज वी.पी. सरकार में मंत्री थे. जबकि सीतापुर के लोहियावादी नेता मुख्तार अनीस मुलायम सिंह सरकार में स्वास्थ्य मंत्री थे. अनीस शिया नेता थे, इसलिए भी बाबरी कमेटी वाले उनकी गिनती नहीं करते थे.

वीपी सिंह ने कहा

मैंने जानबूझकर इस कमेटी में मुलायम सिंह यादव को नहीं रखा. मैंने गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सर्हद को भी नहीं रखा था, क्योंकि इन दोनों को अंतिम फैसला लेना था. अगर ये दोनों संवाद में उलझ गए तो अंतिम फैसला कौन लेता?

लेकिन मुलायम सिंह ने इसको गलत समझा और मेरे खिलाफ मोर्चा खोल दिया. मुलायम सिंह यादव को मेरे विरोिधयों ने यह समझाया कि प्रधानमंत्री इस मामले में आपको किनारे कर फैसले ले रहे हैं, ताकि आपकी सरकार को गिराने में आसानी हो. वीपी सिंह इस बात से परेशान रहते थे कि मुलायम सिंह ने यह झूठी बात उनके कई सहयोगियों से शिकायत के तौर पर कही.

(‘युद्ध में अयोध्या’ प्रभात पब्लिकेशन से प्रकाशित है)

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Published: 04 Sep 2018,02:26 PM IST

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