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दाज्यू, कोसी के घटवार जैसी कहानियों को लिखने वाले हिंदी लेखक शेखर जोशी (Shekhar Joshi) ने गाजियाबाद में अपनी आखिरी सांस ली. उनके बेटे ‘नवारुण प्रकाशन’ के संचालक संजय जोशी ने इस बारे में सूचना देते हुए अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखा 'आज दोपहर 3 बजकर 20 मिनट पर पिता जी श्री शेखर जोशी का वैशाली, गाजियाबाद के पारस हॉस्पिटल में निधन हो गया.
शेखर जोशी का जन्म उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के ओलिया गांव में 10 सितंबर सन 1932 को हुआ था.
बचपन में ही मां की मृत्यु के बाद शेखर जोशी अपने मामा के पास राजस्थान भेजे गए थे. पहाड़ से जाने के बाद भी उनके मन में गांव और वहां की विविध स्मृतियां बनी रही. उनके भीतर साहित्यिक संस्कार स्कूली पढ़ाई के दौरान ही विकसित हो चुके थे. इण्टर के बाद रक्षा मंत्रालय की ‘कोर ऑफ इलेक्ट्रिकल एंड मैकेनिकल इंजीनियर्स’ में प्रशिक्षण के लिए उनका चयन हो गया.
इसी समय उन्होंने लिखना भी शुरू किया. साल 1950-60 के उस समय को हिंदी कहानी के उर्वर दौर के रूप में याद किया जाता है, वह दौर 'नई कहानी' आंदोलन का दौर था. शेखर जोशी ने उस दौर में अपनी कहानियों में ताजापन बनाए रखा और इन कहानियों को जनसंवेदी बनाए रखने के लिए वह सावधान रहे. उनकी कहानी किस्सागोई के रूप में सामने आती थी. इन कहानियों का अंग्रेजी, पोलिश, रूसी और जापानी भाषाओं में अनुवाद हुआ है.
शेखर जोशी को साल 1987 में महावीर प्रसाद द्विवेदी पुरस्कार, 1995 में साहित्य भूषण, 1997 में पहल सम्मान दिया गया था. हाल ही में उन्हें साहित्य के क्षेत्र में दिए जाने वाले विद्यासागर सम्मान 2022 से सम्मानित किया गया था.
मशहूर लेखक नवीन जोशी ने कुछ दिन पहले उनके बारे में फेसबुक पर लिखा था कि, "शेखर जी ने 10 सितंबर 2022 को 91वें वर्ष में प्रवेश कर लिया है. एक लाइलाज बीमारी से आंखों की रोशनी क्षीण हो जाने के बावजूद वे अंगुलियों के सहारे से कलम चलाकर छोटे-छोटे किस्से और कविताएं लिख लेते हैं. आकारवर्धक शीशे की सहायता से थोड़ा-थोड़ा पढ़ते भी हैं. ‘आकाशवाणी’ सुनकर समाचारों से भी अद्यतन रहते हैं."
उनके निधन पर नवीन जोशी फेसबुक पर लिखते हैं-
"बहुत दुख और कष्ट के साथ यह लिख रहा हूं कि हमारे उस्ताद और दाज्यू शेखर जोशी ने कुछ देर पहले देह से मुक्ति पा ली. चंद रोज से वे गाजियाबाद के अस्पताल में थे और बड़े कष्ट में थे. 10 सितंबर को बड़े खुश थे कि बच्चों ने उनका नब्बे वां जन्मदिन बड़े धूमधाम से मनाया. उत्साहित थे और खूब सक्रिय भी. अस्पताल जाते हुए भी अपने शीघ्र प्रकाश्य कथा-समग्र के आवरण चित्र के बारे में संजय से पूछ रहे थे. लिखने और संकलनों की कई योजनाएँ बना रहे थे. सलाम दाज्यू. आप हमारे आसपास ही बने रहेंगे."
हिंदी भाषा के विद्वान डॉ सुरेश पन्त ने अपनी फेसबुक पोस्ट पर लिखा-
"विश्वास नहीं हो रहा कि कथा लेखन को आजीवन दायित्वपूर्ण कर्म मानने वाले सुपरिचित वयोवृद्ध लेखक शेखर जोशी (शेखर-दा) नहीं रहे. हिंदी साहित्य जगत के लिए यह क्षति अपूरणीय है. दो महीने पहले मेरे निवास पर पधारकर दर्शन दिए थे, नब्बे वर्ष में भी स्वस्थ और सजग. इतना कोमल, मधुर और प्रेरक व्यक्तित्व भुलाए नहीं भूला जा सकता. सादर श्रद्धांजलि, शेखर दा"
दाड़िम की छाया में पात-पतेल झाडकर बैठते लछमा ने शंकित दृष्टि से गुसाईं की ओर देखा. कोसी की सूखी धार अचानक जल प्लावित होकर बहने लगती, तो भी लछमा को इतना आश्चर्य न होता, जितना अपने स्थान से केवल चार कदम की दूरी पर गुसाईं को इस रूप में देखने पर हुआ. विस्मय से आंखें फाड़कर वह उसे देखे जा रही थी, जैसे अब भी उसे विश्वास न हो रहा हो कि जो व्यक्ति उसके सम्मुख बैठा है, वह उसका पूर्व-परिचित गुसाईं ही है.
“तुम?” जाने लछमा क्या कहना चाहती थी, शेष शब्द उसके कंठ में ही रह गए.
“हां, पिछले साल पल्टन से लौट आया था, वक्त काटने के लिए यह घट लगवा लिया.” गुसाईं ने ही पूछा, “बाल-बच्चे ठीक हैं?”
आंखें जमीन पर टिकाए, गरदन हिलाकर संकेत से ही उसने बच्चों की कुशलता की सूचना दे दी जमीन पर गिरे एक दाड़िम के फूल को हाथों में लेकर लछमा उसकी पंखुड़ियों को एक-एक कर निरूद्देश्य तोडने लगी और गुसाईं पतली सींक लेकर आग को कुरेदता रहा.
बातों का क्रम बनाए रखने के लिए गुसाई ने पूछा, “तू अभी और कितने दिन मायके ठहरनेवाली है?”
अब लछमा के लिए अपने को रोकना असंभव हो गया. टप्-टप्-टप्, वह सर नीचा किए आंसू गिराने लगी. सिसकियों के साथ-साथ उसके उठते-गिरते कंधों को गुसाईं देखता रहा. उसे यह नहीं सूझ रहा था कि वह किन शब्दों में अपनी सहानुभूति प्रकट करे.
इतनी देर बाद सहसा गुसाईं का ध्यान लछमा के शरीर की ओर गया. उसके गले में चरेऊ (सुहाग-चिह्न) नहीं था. हतप्रभ सा गुसाईं उसे देखता रहा. अपनी व्यावहारिक अज्ञानता पर उसे बेहद झुंझलाहट हो रही थी.
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