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अगले आठ-दस दिन के भीतर झारखंड विधानसभा के लिए चुनाव की तारीखों की घोषणा होने वाली है. झारखंड भी बीजेपी के लिए हरियाणा साबित हो सकता है, अगर बीेजेपी ने हरियाणा के प्रदर्शन से सबक न लिया और यदि कांग्रेस ने अब भी हरियाणा के नतीजों से सबक ले लिया तो झारखंड की राजनीति बदल सकती है.
6 महीने पहले हरियाणा में भाजपा ने लोकसभा की सभी 10 सीटों पर भारी मार्जिन से जीत दर्ज की थी और झारखंड में भी 14 में से 12 सीटें भाजपा व उसके सहयोगी दल ने जीती थीं.
आम चुनाव से पहले झारखंड में आम धारणा बनी हुई थी कि मुख्यमंत्री रघुबर दास की वजह से बीजेपी का विधानसभा चुनाव हारना तय है. उस समय झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम), बाबूलाल मरांडी की झारखंड विकास मोर्चा (जेवीएम), राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और कांग्रेस के बीच मजबूत गठबंधन होता हुआ दिखाई दे रहा था.
महागठबंधन तो बना लेकिन आरजेडी के बड़े नेता पार्टी छोड़कर बीजेपी में चले गये. नतीजा यह हुआ कि झारखंड की 14 में से 11 सीटों पर बीजेपी और एक सीट पर एजेएसयू (बीजेपी की सहयोगी पार्टी) ने जीत दर्ज की. झारखंड के सबसे कद्दावर नेता और जेएमएम सुप्रीमो शिबू सोरेन भी चुनाव हार गये.
2014 में जिस तरह हरियाणा में भाजपा नेतृत्व ने सबको चौंकाते हुए गैर जाट पंजाबी मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री बनाया था, उसी तरह झारखंड में गैरआदिवासी और मूल रूप से छत्तीसगढ़ी रघुबर दास को सरकार की कमान सौंपी गई थी. झारखंड में पहली बार कोई गैर आदिवासी-मूलवासी मुख्यमंत्री बना.
इसके चलते प्रदेश बीजेपी में कशमकश का माहौल तो बना लेकिन केंद्रीय नेतृत्व के कड़क रवैये के चलते एक सीमा तक जाने के बाद असंतुष्ट नेताओं को मजबूरन स्थितियों को स्वीकार करना पड़ा. लेकिन सरकार के कामकाज को लेकर राज्य में कहीं कोई आश्वस्त होने का भाव नहीं दिखाई दिया. ऊपर से, भ्रष्टाचार बढ़ने की बातें जरूर होने लगीं.
विपक्ष इन महत्वपूर्ण मुद्दों पर आंदोलन तो दूर, ढंग से राज्य की भाजपा सरकार को कटघरे में भी नहीं खड़ा कर सका. इसी तरह की स्थितियां हरियाणा में थीं जहां बेरोजगारी, छंटनी, किसान आदि के मुद्दे तो प्रभावी थे लेकिन विपक्ष प्रभावी नहीं दिखा.
हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव नतीजों से एक सबसे महत्वपूर्ण बात उभर कर आई है कि तीन तलाक, आर्टिकल 370, कश्मीर, पाकिस्तान, एनआरसी जैसे मुद्दों पर आर्थिक बदहाली और बेरोजगारी जैसे मसले भारी पड़ सकते हैं.
बिहार में हुए पांच विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव से भी यही संकेत निकलते हैं, जहां दो सीटें आरजेडी, एक सीट औवैसी की पार्टी एआईएमआईएम ने जीती और जेडीयू एक ही सीट जीत पाई. एक सीट पर भाजपा के बागी ने निर्दल के रूप में कब्जा जमाया.
महाराष्ट्र और हरियाणा में 2019 के आम चुनाव में मिले वोट व विधानसभा सीटों पर बढ़त और इस विधानसभा चुनाव में मिले वोट व जीती सीटों का आंकड़ा देखने पर सब स्पष्ट हो जाता है.
इसी तरह महाराष्ट्र में उसे 27.8 फीसदी वोट और 140 सीटों पर बढ़त मिली थी, जबकि इस विधानसभा चुनाव में उसका वोट 25.7 फीसदी रह गया और सीटें 105. यदि 2014 के विधानसभा चुनाव परिणामों से भी तुलना करें तो इस बार हरियाणा में बीजेपी को सात सीटें कम और महाराष्ट्र में एनडीए को 24 सीटें कम मिली हैं.
बीजेपी के इस कमतर प्रदर्शन के पीछे कांग्रेस की मेहनत का हाथ कम, लोगों का बीजेपी से गुस्सा ज्यादा बड़ा कारण लग रहा है. महाराष्ट्र में तो लग ही नहीं रहा था कि कांग्रेस जीतने के लिए लड़ रही है और हरियाणा में चुनाव से ऐन पहले तक कांग्रेस में गुटबाजी चरम पर थी और प्रदेश अध्यक्ष तक पार्टी छोड़ गये.
उधर, राज्य का प्रमुख विपक्षी दल जेेएमएम और उसके नेता हेमंत सोरेन महाराष्ट्र में शरद पवार की तरह पूरा जोर लगाए हुए हैं. यही वजह है कि मुख्यमंत्री रघुबर दास अपनी हर सभा में हेमंत सोरेन को ही निशाना बनाते हैं और वह भी व्यक्तिगत भ्रष्टाचार और सीएनटी के दुरुपयोग के मामले में. लेकिन कांग्रेस ढीली-ढाली है. गठबंधन को लेकर भी कांग्रेस का रवैया ढुलमुल है. अब तक गठबंधन में विभिन्न घटकों द्वारा लड़ी जाने वाली सीटों पर भी सहमति नहीं बन सकी है.
उनका निशाना कांग्रेस भी है और इस बार नेता जी सुभाष चंद्र बोस के सहारे. हर कार्यक्रम में यह बताया जा रहा है कि अविभाजित भारत की पहली स्वतंत्र सरकार नेताजी के नेतृत्व में 21 अक्टूबर 1943 में सिंगापुर में बनी थी, जिसे उस समय जापान और इटली जैसे देशों ने मान्यता भी दी थी, जबकि 15 अगस्त 1947 तो भारत के विभाजन की तारीख है.
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