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26 हफ्ते की गर्भवती की गर्भपात याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने सोमवार, 16 अक्टूबर को फैसला सुनाया कि, "गर्भावस्था की अवधि 24 हफ्ते से अधिक हो गई है. अब गर्भपात की अनुमति नहीं दी जा सकती है."
क्या हुआ है?: सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने 27 वर्षीय विवाहित महिला की गर्भावस्था को समाप्त (गर्भपात) करने की याचिका को खारिज करते हुए कहा:
अदालत ने कहा: चूंकि महिला 26 हफ्ते और पांच दिन की गर्भवती है, इसलिए गर्भावस्था को समाप्त करना कुछ कानूनों का उल्लंघन होगा, जैसे:
मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी एक्ट (एमटीपी) की धारा 3 कहती कि गर्भपात केवल 24 हफ्ते की गर्भधारण अवधि तक ही हो सकता है.
एमटीपी अधिनियम की धारा 5 में कहा गया है कि दो पंजीकृत चिकित्सकों को गर्भपात के लिए अनुमति देनी होगी (इस मामले में एम्स की रिपोर्ट ने इसका विरोध किया है).
मामला क्या है?: यह याचिका एक महिला ने दायर की है जो प्रेग्नेंट है, इस महिला ने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया कि उसे अपने भ्रूण का गर्भपात करने की अनुमति दी जाए (24 हफ्ते की अवधि के बाद, जिसके दौरान इसकी अनुमति है) क्योंकि वह पोस्टपार्टम साइकोसिस से पीड़ित है और पहले से ही कठिन समय से गुजर रही थी क्योंकि वह पहले भी दो बार प्रेग्नेंट हो चुकी है.
बता दें कि, पोस्टपार्टम साइकोसिस एक मानसिक बीमारी है जो जन्म देने के बाद पहले कुछ हफ्तों में महिला को प्रभावित कर सकती है.
कोर्ट का कहना है:
9 अक्टूबर को, जस्टिस हेमा कोहली और बीवी नागरत्ना की शीर्ष अदालत की दो-जजों की बेंच ने गर्भपात की अनुमति दी थी. उसके एक दिन बाद, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) ने एक रिपोर्ट पेश की जिसमें कहा गया कि भ्रूण के जीवित रहने की अच्छी संभावना है.
इसके बाद 11 अक्टूबर को पीठ ने खंडित फैसला सुनाया, जब न्यायमूर्ति कोहली ने कहा कि वह अब याचिका खारिज करने की इच्छुक हैं.
अदालत ने एम्स से गर्भवती महिला की मानसिक और शारीरिक स्थिति का अध्ययन करने को भी कहा और यह भी पूछा कि क्या पोस्टपार्टम साइकोसिस के लिए कोई वैकल्पिक दवा है जो महिला को दी जा सकती है जो भ्रूण को नुकसान नहीं पहुंचाएगी.
इस केस पर इतना विशेष फोकस क्यों? 12 अक्टूबर को, पीठ ने कहा कि वे गर्भवती महिला के अधिकारों की रक्षा के लिए बच्चे (भ्रूण) के अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर सकते - दोनों के बीच "संतुलन" खोजने की आवश्यकता है.
एम्स की रिपोर्ट ने पुष्टि की थी कि भ्रूण जीवित रह सकता है, और 26 सप्ताह के बाद गर्भपात करना भ्रूण हत्या होगी क्योंकि हृदय का विकास हो चुका है. इसके बजाय मेडिकल बोर्ड ने अदालत से अपील की कि वह याचिकाकर्ता को अपनी गर्भावस्था पूरी करने के लिए कहे और फिर बच्चे को गोद लेने के लिए दे दें.
हालांकि, 16 अक्टूबर को याचिकाकर्ता ने अदालत को बताया कि यह एक आकस्मिक और अनियोजित गर्भावस्था थी और उसे नहीं लगता कि वह अपनी गर्भावस्था को अगले तीन महीनों तक जारी रख सकती है... याचिकाकर्ता का मानना है कि अगर ऐसा होता है तो यह उसके अधिकारों का उल्लंघन है.
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