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अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन (Joe Biden) ने 16 अगस्त को अफगानिस्तान (Afghanistan) से सेना वापसी के फैसले का बचाव किया और काबुल संकट के लिए अफगान नेताओं और डोनाल्ड ट्रंप (Donald Trump) को दोषी ठहराया. बाइडेन का तर्क सही है कि अमेरिका कब तक अफगानिस्तान में गृह युद्ध लड़ेगा, लेकिन जिस तरह से उसकी वापसी के साथ अफगान संकट खड़ा हुआ है वो अमेरिकी विदेश नीति के लिए बुरा ख्वाब बन जाएगा.
'सुपरपावर' अमेरिका अभी तक अफगानिस्तान में 2 लाख करोड़ डॉलर टैक्सपेयर का पैसा खर्च कर चुका था. सवाल उठ रहा है किसलिए? हासिल क्या हुआ?
अमेरिका के लिए अफगानिस्तान के 'फॉरएवर वॉर' से निकलना बिलकुल जरूरी था, पर यूं नहीं जैसे अब हुआ है. वियतनाम, इराक के बाद अफगानिस्तान भी अमेरिकी विदेश नीति के खराब उदाहरणों में शामिल हो गया है. खासकर बाइडेन के राजनीतिक करियर पर ये बड़ा धब्बा बन जाएगा.
अफगानिस्तान में 20 साल बिताने के बाद जब अमेरिका ने वापसी की तो साथ-साथ तालिबान का कब्जा हो गया. बाइडेन और अमेरिकी सरकार कह सकते हैं कि इसके जिम्मेदार अशरफ गनी, अफगान सेना, ट्रंप और तालिबान के बीच हुई दोहा डील है, लेकिन इससे ये तथ्य नहीं बदलेगा कि किसके कार्यकाल में इतना बड़ा ब्लंडर हुआ.
बाइडेन ऑप्टिक्स से कैसे बच पाएंगे जब इसे एक ताकतवर लोकतंत्र की कट्टर धार्मिक संगठन के हाथों हार के रूप में देखा जाएगा. नैरेटिव तो ये भी बन सकता है कि एक गरीब देश के गुरिल्ला लड़ाकों ने अमेरिकी सुपरपावर को मात दे दी, बिना किसी एयर सपोर्ट और आर्टिलरी के.
अफगानिस्तान में तालिबान शासन का आना अमेरिकी वैश्विक ताकत के युग का अंत हो सकता है. द्वितीय विश्व युद्ध में नाजी जर्मनी के चंगुल से यूरोप को छुड़ाने के लिए जिस अमेरिका ने इतना बड़ा अभियान छेड़ा था, 2021 में वही देश एक मामूली गुरिल्ला फोर्स से अफगानिस्तान को नहीं बचा पाया. अगर तालिबान राजनीतिक समझौते के साथ अफगानिस्तान की सत्ता में आता तो शायद अमेरिका की इतनी आलोचना नहीं होती, लेकिन काबुल अमेरिकी सेना की वापसी से पहले ही गिर गया.
अमेरिकी सेना और इंटेलिजेंस के लिए बड़ी हार साबित हो सकता है. इंटेलिजेंस अनुमान थे कि तालिबान को काबुल तक आने में 90 दिन लगेंगे, जबकि ये कुछ दिनों में ही हो गया. अफगान सेना को अमेरिका ने सालों तक ट्रेनिंग दी थी लेकिन वो तालिबान के सामने टिक नहीं पाई. इंटेलिजेंस की इतनी बड़ी चूक और अफगान सेना का सरेंडर अमेरिकी सैन्य ताकत पर सवालिया निशान लगा देगा.
ऑप्टिक्स बाइडेन और अमेरिका को परेशान करता रहेगा. जॉर्ज बुश ने जो 'वॉर ऑन टेरर' शुरू किया था, उसका अंत अगर तालिबान की वापसी के साथ होता है तो इसकी सफलता पर सवाल उठेंगे ही उठेंगे. 20 साल अमेरिका ने अफगानिस्तान में क्या हासिल किया, ये पूछा जाएगा ही. अगर अफगानिस्तान फिर से अल-कायदा, ISIS जैसे आतंकी संगठनों का पनाहगार बनता है तो अमेरिका के 2 लाख करोड़ डॉलर और उसकी साख पर पानी फिर जाएगा.
इराक के बाद अफगानिस्तान ने साबित किया है कि अमेरिका विद्रोह (इंसर्जेन्सी) से नहीं जीत पाता है. साथ ही अमेरिका के राष्ट्र निर्माण जुमले पर यकीन करना लगभग नामुमकिन हो गया है. इराक में भी राष्ट्र निर्माण का नतीजा ISIS रहा था और अफगानिस्तान में तो खुद बाइडेन कह रहे हैं कि अमेरिका का लक्ष्य राष्ट्र निर्माण का नहीं था. अगर ऐसा नहीं था तो अमेरिका ने अफगानिस्तान में 20 साल क्यों बिताए?
अमेरिका को सबसे बड़ा नुकसान विदेश नीति और भू-राजनीति के क्षेत्र में होगा. चीन और रूस तालिबान के साथ काम करने के लिए तैयार दिख रहे हैं. पाकिस्तान और अमेरिका के संबंध पहले से ही खराब चल रहे हैं. मिडिल ईस्ट में भी रूस और चीन बाइडेन को बराबर टक्कर दे रहे हैं. एक के बाद एक क्षेत्र अमेरिका के प्रभाव से निकलते जा रहे हैं.
अमेरिकी कूटनीति और ताकत का सबसे बड़ा मजाक तालिबान ने दोहा में बनाया है. कतर में अफगान शांति प्रक्रिया पर बातचीत करते हुए तालिबान अफगानिस्तान में प्रांत पर प्रांत कब्जा रहा था. डोनाल्ड ट्रंप ने अफगान सरकार को बाईपास कर सीधे तालिबान से डील की और 5000 तालिबानियों को रिहा भी कराया. तालिबान ने बिना कुछ दिए अमेरिका और अफगान सरकार से बहुत कुछ लिया और बदले में पूरे देश पर कब्जा कर लिया. दिलचस्प है कि जिस तालिबान नेता अब्दुल गनी बरादर को ट्रंप प्रशासन के कहने पर पाकिस्तान ने छोड़ा था, वही अब अफगानिस्तान का अगला राष्ट्रपति बन सकता है.
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