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चीन (China) और ताइवान (Taiwan) के बीच तनाव एक बार फिर चरम पर है. ताइवान के रक्षा मंत्रालय ने 4 अक्टूबर को कहा कि चीनी सेना ने पिछले चार दिनों में उसके एयर डिफेंस जोन में लगभग 150 फाइटर प्लेन से घुसपैठ की है. इसके जवाब में ताइवान के राष्ट्रपति साई इंग-वेन ने फॉरेन अफेयर्स पत्रिका में लिखकर चेतावनी दी कि ताइवान पर चीनी नियंत्रण का विनाशकारी परिणाम होगा.
इस तनाव का अब 'ग्लोबल' असर दिख रहा है. जहां अमेरिका ने चीन से अपनी उत्तेजक सैन्य गतिविधियों पर लगाम लगाने की मांग की, वहीं चीन के विदेश मंत्रालय ने अमेरिका पर ताइवान को हथियार बेचकर क्षेत्र को अस्थिर करने का आरोप लगाया है.
चीन के साथ ताइवान का पहला संपर्क साल 1683 में हुआ था जब ताइवान, क्विंग राजवंश के नियंत्रण में आया था. लेकिन अंतरराष्ट्रीय राजनीति में इसकी भूमिका पहले चीन-जापान युद्ध (1894-95) में सामने आई, जिसमें जापान ने क्विंग राजवंश को हराया था और ताइवान को अपना पहला उपनिवेश बनाया.
1949 में च्यांग और उनकी पार्टी- कुओमिन्तांग (KMT), माओत्से तुंग के नेतृत्व में कम्युनिस्टों के हाथों गृहयुद्ध हार गए. जिसके बाद शेक ताइवान भाग गए और उस पर प्रशासनिक नियंत्रण बनाए रखा.
जैसे ही माओ ताइवान को चीन में मिलाने के लिए उस पर हमला करने वाले थे, उसी समय 1950 में कोरियाई युद्ध छिड़ गया. युद्ध ने न केवल माओ को उत्तर कोरिया में कम्युनिस्टों की सहायता करने में व्यस्त रखा बल्कि इसने अमेरिका को ताइवान की सुरक्षा और स्वतंत्रता के लिए आगे आने को भी मजबूर किया.
वर्तमान के ताइवान में कुछ ही लोग मेनलैंड चीन के साथ इसको जोड़े जाने का समर्थन करते हैं. इसके दो प्रमुख कारण हैं- जातीय राष्ट्रवाद और इससे भी महत्वपूर्ण, नागरिक राष्ट्रवाद.
इस सर्वे में केवल तीन प्रतिशत लोगों ने ही खुद को केवल 'चीनी' माना. ताइवान के लोगों में पहचान की एक मजबूत भावना इसके चीन में मिलने के प्रतिरोध के मूल में है. यह रिजल्ट प्यू रिसर्च सेंटर के सर्वे में भी दिखता है. ताइवान के भविष्य- लाखों ताइवानी युवा मानते हैं कि वह ऐसे देश में पैदा हुए हैं जो चीन से स्वतंत्र है और उसका मेनलैंड चीन से कोई सांस्कृतिक संबंध नहीं है.
लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि ताइवान के निवासियों में अपनी लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था के प्रति निष्ठा है. चीनी मामलों के विशेषज्ञ रिचर्ड बुश इसे नागरिक राष्ट्रवाद कहते हैं.
सीएफआर रिपोर्ट के अनुसार ताइवान के अधिकांश लोग 'वन कंट्री-टू सिस्टम' मॉडल का विरोध कर रहे हैं. 'वन कंट्री-टू सिस्टम' में हांगकांग और मकाऊ की तरह ताइवान भी चीन के एक विशेष प्रशासनिक क्षेत्र के रूप में कार्य करेगा और चीन अपनी आर्थिक और प्रशासनिक प्रणाली को बनाए रख सकेगा.
ताइवान पर अमेरिका का रुख रणनीतिक रूप से अस्पष्ट रहा है. अमेरिका ने औपचारिक रूप से यह नहीं कहा है कि अगर चीन ताइवान पर आक्रमण करता है तो वह ताइवान की रक्षा के लिए जाएगा, लेकिन फिर भी उसे लगातार सहायता देता आया है.
आमतौर पर अंतरराष्ट्रीय संबंधों में एक वैश्विक शक्ति तीन कारणों से एक छोटे देश को सुरक्षा में सहयोग करना चाहती है और उसकी गारंटी देती है - आर्थिक, रणनीतिक और वैचारिक.
‘द डिप्लोमैट’ के एक विश्लेषण के अनुसार, रणनीतिक रूप से, ताइवान पर चीन के नियंत्रण के बाद चीन की मिसाइल रेंज लगभग 150 समुद्री मील आगे बढ़ जाएगी. यानी अमेरिका के और करीब. साथ ही ताइवान एक अमेरिकी समर्थक एयरक्राफ्ट कैरियर के रूप में भी कार्य करता है और चीन के उभार को रोकने के लिए यह महत्वपूर्ण है.
इंडो-पैसिफिक में हाल के घटनाक्रमों से पता चला है कि चीन, ताइवान और अमेरिका कुछ भी करने को तैयार हैं.
सबसे पहले, ‘क्या चीन ताइवान पर आक्रमण करेगा’ का सवाल. भविष्य में चाहे जो हो, एक आक्रमण की लागत बहुत अधिक है- न केवल वित्तीय बल्कि डिप्लोमैटिक भी. ताइवान पर आक्रमण चीन को दुनिया का सार्वजनिक दुश्मन नंबर एक बना देगा. इस आक्रमण के कारण खुद को एक जिम्मेदार विश्व नेता के रूप में स्थापित करने के लिए चीन के प्रयास बेकार हो जाएंगे.
चीन स्पष्ट रूप से ताइवान से सैन्य मामले में बेहतर है और अमेरिका ने चीनी आक्रमण के समय मदद का कोई भी वादा नहीं किया है. यही कारण है कि हाल की चीनी धमकी के बावजूद भविष्य के लिए सबसे संभावित परिदृश्य है कि दोनों के बीच यथास्थिति बनी रहेगी.
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