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कोरोना वायरस महामारी ने पूरी दुनिया को एक तरह से रोक दिया. लाखों प्रवासी मजदूरों ने एक जगह से दूसरी जगह ट्रैवल किया. बड़े से बड़े देशों की अर्थव्यवस्था चरमरा गई और विकसित देशों के हेल्थ केयर सिस्टम में खामियां सामने उभर कर आईं. इस महामारी के सामने आने के बाद से देशों में नेशनल डिजिटल आईडी सिस्टम की जरूरत महसूस की जा रही है. द इकनॉमिस्ट ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि कैसे ज्यादातर देश अब आबादी के डिजिटल आईडी सिस्टम पर काम कर रहे हैं, ताकि दोबारा ऐसी आपदा आने पर लोगों को मदद दी जा सके और इसमें आईआईटी बेंगलुरु द्वारा बनाया गया एक प्रोजेक्ट अहम साबित हो रहा है.
इंटरनेट के जमाने में डिजिटल आईडी लोगों को पहचान देता है. सरकार की तरफ से जनता का रिकॉर्ड रखने में भी ये अहम रोल निभाता है. कोविड के लिए वैक्सीनेशन प्रक्रिया में भी डिजिटल आईडी सिस्टम अहम रोल निभा सकता है.
रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया में करीब 1 बिलियन लोगों के पास पहचान का कोई औपचारिक प्रमाण नहीं है. इनमें से 80% से ज्यादा सब-सहारा अफ्रीका और एशिया के पिछड़े हिस्सों में रहते हैं. पांच साल तक के कुल अफ्रीकी बच्चों में से आधे से भी कम का जन्म रजिस्टर किया गया है. वहीं, गरीब तबका, महिलाएं और ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों के पास आईडी होने की संभावना काफी कम है.
द इकनॉमिस्ट की रिपोर्ट के मुताबिक, मोरक्को और फिलीपींस, वर्ल्ड बैंक की मदद से MOSIP आधारित नेशनल आईडी स्कीम लागू कर रहे हैं. वहीं, इथिओपिया, गिनी और श्रीलंका भी इस दिशा में काम कर रहे हैं. टोगो, ट्यूनीशिया जैसे देश भी MOSIP पर काम करना चाहते हैं. पश्चिम अफ्रीका के देशों के लिए एक शेयर्ड इंटरऑपरेबल आईडी प्लेटफॉर्म की योजना है, जिससे क्रॉस-बॉर्डर ऑथेंटिकेशन की भी अनुमति दी जाएगी. इनका उद्देश्य है कि 2023 तक, कम से कम 10 देश MOSIP- आधारित डिजिटल आईडी प्लेटफॉर्म को ऑपरेट करेंगे और ये एक इंटरनेशनल स्टैंडर्ड बन जाएगा.
मॉड्यूलर ओपन सोर्स आइडेंटिटी प्लेटफॉर्म यानी कि MOSIP को आईआईटी-बेंगलुरु (IIT-B) ने तैयार किया है. इस प्रोजेक्ट में बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन, रतन टाटा ट्रस्ट और ओमिडायर नेटवर्क ने इन्वेस्ट किया है.
MOSIP, संगठनों, जैसे सरकार को, कॉस्ट-इफेक्टिव तरीके से एक डिजिटल, फाउंडेशनल आईडी को लागू करने में मदद करता है. ये एक ओपन सोर्स प्लेटफॉर्म है, जिसे देश फ्री में इस्तेमाल कर सकते हैं और अपना खुद का आईडेंटिटी सिस्टम भी बना सकते हैं.
रिपोर्ट के मुताबिक, MOSIP के इस्तेमाल के लिए आवेदन कर रहे देशों को उसकी गवर्निंग एग्जीक्यूटिव कमेटी को ये सुनिश्चित करना होगा कि उनके पास ये सिस्टम लागू करने के लिए पर्याप्त डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर या इसके लिए फंड हैं, और उनके इरादे उचित हैं. दूसरा ये कि MOSIP ओपन सोर्स होना चाहिए, जिससे इसके सभी प्रोटोकॉल सामूहिक प्रयास से देखे, विकसित और मजबूत किए जा सकें.
प्रोफेसर राजगोपालन MOSIP को एक ऐसा ओपन सोर्स प्रोजेक्ट बनाना चाहते हैं, जिसमें डेवलपर्स और सिस्टम इंटीग्रेटर्स का एक समुदाय प्लेटफॉर्म के विकास और सपोर्ट के लिए योगदान दे.
MOSIP की खास बात है कि इसके मॉड्यूलर डिजाइन से इसके हर प्रोग्राम के फंक्शन इंडिपेंडेंट काम कर सकते हैं. देश अपने डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर के मुताबिक इसका उपयोग कर सकते हैं. जैसे देश ऑथेंटिकेशन के लिए बायोमेट्रिक से लेकर मोबाइल ओटीपी तक का ऑप्शन ले सकते हैं. एक बड़ा फैसला जो MOSIP अपने क्लाइंट्स पर छोड़ता है, वो ये कि वो ये डेटा नेशनल सर्वर पर स्टोर कर सकते हैं या फिर क्लाउड पर.
MOSIP में इन्वेस्टर ओमिडयार में इन्वेस्टिंग पार्टनर, सीवी मधुकर ने द इकनॉमिस्ट को बताया कि MOSIP टीम अगले साल से ये सिस्टम लागू कर रहे देशों को गाइड करने पर मदद करेगी और इसे आगे डेवलप करने के लिए उनसे सीखेगी.
भविष्य में MOSIP की मांग बढ़ने के साथ-साथ चुनौतियां भी सामने आ सकती हैं, जिसमें से आईटी टैलेंट की क्षमता अहम है. नेशनल रजिस्ट्री और सेवाओं के बीच इंटरऑपरेबिलिटी सुनिश्चित करने के लिए डेटा एप्लीकेशन बनाने के लिए आईटी टैलेंट की जरूरत पड़ेगी. स्थानीय प्रोवाइडर्स और सिस्टम इंटीग्रेटर्स को तैयार करना होगा, और डेवलपर्स का एक समुदाय बनाना होगा. बड़ी कंपनियों से फंडिंग नहीं मिलने पर भविष्य में ये एक चुनौती साबित हो सकती है.
टोनी ब्लेयर इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल चेंज में टेक्नोलॉजी और पॉलिसी टीम के प्रमुख, क्रिस यू को हालांकि MOSIP की क्षमताओं पर पूरा यकीन है. यू का कहना है कि कोविड महामारी ने देशों को अपना खुद का मजबूत हेल्थकेयर सिस्टम चलाने के लिए प्रोत्साहित किया है और इसे हासिल करने में डिजिटल आईडी सिस्टम एक अहम प्लेटफॉर्म साबित हो सकते हैं. ये इंस्टीट्यूट, पूरे अफ्रीका में टीकाकरण रजिस्ट्रियां स्थापित करने के लिए अमेरिकी बिजनेस कंप्यूटिंग कंपनी, ओरेकल के साथ काम कर रहा है.
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