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इस हफ्ते इंडोनेशिया के बाली में दुनिया की शीर्ष अर्थव्यवस्था वाले देशों के नेता वार्षिक जी-20 सम्मेलन (G20 summit) में हिस्सा लेने के लिए एकत्रित हुए हैं.
ये सभी कई ऐसे वैश्विक संकटों का सामना कर रहे हैं, जिसमें वे परस्पर जुड़े हुए हैं. रूस द्वारा यूक्रेन पर किया गया हमला, चीन में आर्थिक मंदी, ताइवान को लेकर अमेरिका और चीन के बीच चल रहे तनाव में वृद्धि, वैश्विक जीवन लागत में तेज वृद्धि और वैश्विक स्तर पर खाद्य की कमी में वृद्धि जैसे मुद्दे इस समिट के लिए एक चिंताजनक पृष्ठभूमि तैयार करते हैं.
समिट में एक ही जगह पर, एक मंच पर दुनिया के सबसे शक्तिशाली राजनीतिक नेता मौजूद होकर चर्चा करेंगे, लेकिन इसके बावजूद भी इस बात की संभावना बहुत कम है कि दुनिया इस समय जिन असंख्य, विशाल और जटिल संकटों का सामना कर रही है उसके समाधान के बारे में भी जी-20 नेता कुछ बात करें.
वे वैश्विक नेता ऐसे समय पर मुलाकात कर रहे हैं जब सबसे खतरनाक जियो-पॉलिटिकल फ्लैश प्वाइंट को लेकर टकराव है, इसके साथ ही राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक उथल-पुथल का जवाब कैसे दिया जाए, इसपर इनकी कोई आम सहमति नहीं है.
जी-20 समिट के वैश्विक मंच पर हमेशा से ही प्रतिस्पर्धी एक-दूसरे के साथ मौजूद रहे हैं, जैसे कि इंडोनेशिया के बाली में चीन, रूस और अमेरिका जैसे देश खुले विरोध के साथ मिलेंगे. जी-20 प्रतिद्वंद्वियों के क्लब के रूप में शासन कर सकता है, लेकिन दुश्मनों या विरोधियों के रूप में नहीं.
जी-20 की शुरुआत एक क्राइसिस कमेटी के तौर पर हुई. 1990 के दशक के मध्य में क्षेत्रीय आर्थिक अस्थिरता पर प्रतिक्रिया देने वाले वित्त मंत्रियों के एक समूह के रूप में पहली बार जी-20 का गठन हुआ था. उसके बाद 2008 में इसके स्तर को ऊंचा कर दिया गया, तब इसे वैश्विक वित्तीय संकट को संबोधित करने के लिए नेताओं (लीडर्स) के स्तर पर ले जाया गया था.
कर्ज में कमी, घाटे का उन्मूलन और व्यापार उदारीकरण की प्रतिबद्धता इसके उदाहरण हैं.
यह इस धारणा से भी जुड़ा था कि आर्थिक शासन (इकोनॉमिक गवर्नेंस) को अनिवार्य रूप से अराजनीतिक किया जा सकता है, जैसे कि वित्तीय उथल-पुथल को टेक्नोक्रेटिक (तकनीकी) ढंग से संबोधित किया जा सकता है. कोल्ड वार के बाद की अवधि में वैश्विक अर्थव्यवस्था का प्रबंधन करने वालों का काम काफी हद तक केंद्रीय बैंकरों, सरकार के नौकरशाहों और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के लिए छोड़ा जा सकता है.
नवउदारवादी सर्वसम्मति और नैरो (संकीर्ण) फोकस ने कुछ समय के लिए इस समूह के लिए अच्छा काम किया, लेकिन धीरे-धीरे ये मिशन बाद के वर्षों में आर्थिक और वित्तीय मामलों से परे चला गया.
इस तरह से मुद्दों पर विस्तारित होने से एक प्रमुख समस्या यह है कि जैसे-जैसे समूह विषयों की श्रेणी के तौर पर विस्तार करते हुए प्रबंधन करना चाहता है, वैसे-वैसे नीतिगत अंतर की संभावनाएं बढ़ने लगती हैं.
इसके अलावा, ट्रम्प प्रशासन के दौरान अमेरिका द्वारा नाटकीय तौर पर जो नीतिगत उलटफेर हुआ उससे नवउदारवादी सर्व-सहमति विशेष रूप से कमजोर हुई है. हालांकि ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जो बाइडेन के नेतृत्व में अमेरिका सामान्य स्थिति में लौट रहा है, लेकिन ट्रंप के राष्ट्रवादी संरक्षणवाद को बढ़ावा देने वाली गतिशीलता वैश्विक स्तर पर ज्यादा तेज और मजबूत हो गई है.
जी-20 के सदस्यों में विविधता है, यह बात इसे एक वैश्विक संस्था के रूप में अधिक वैध बनाती है. लेकिन आज जब दुनिया को उसकी क्राइसिस कमेटी (जी-20) की जरूरत है तब जी-20 ने अपने हाथ बांध लिए हैं, क्योंकि इसके प्रमुख सदस्य अब सीधे तौर पर एक-दूसरे के विरोध में खड़े हैं.
इस दौरान, पश्चिमी-केंद्रित जी-7, जो तेजी से पुराना लगने लगा था, अब उसको नए सिरे से उद्देश्य मिल गया है. भले ही जी-20 की तरह जी-7 में वैधता और विविधता का अभाव हो, लेकिन जी-7 सर्वसम्मति से नियम-आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था और लोकतांत्रिक संस्थानों की सुरक्षा के प्रति प्रतिबद्धता साझा करता है.
इसका मतलब यह नहीं है कि इस क्लब के आदर्श श्रेष्ठ हैं, लेकिन यहां पर इस बात को ध्यान में रखा जा सकता है कि यह समूह अगर एक अशांत अंतरराष्ट्रीय डोमेन में नहीं फले-फूले तो यह सहयोगियों के एक छोटे और समान विचारधारा वाले समूह के रूप में कार्य कर सकता है. जबकि एक बहुत बड़े क्लब में जहां काफी विविधता रहती है वहां सबको एक साथ नहीं लाया जा सकता है क्योंकि उनमें बहुत कुछ ऐसा होता है जो उन्हें अलग कर रहा है.
यदि हम वास्तव में गंभीर जियो-पॉलिटिकल प्रतिस्पर्धा के एक नए युग में प्रवेश कर रहे हैं, तो हमें उन संस्थानों को फिर से देखने की जरूरत होगी, जो कोल्ड वार (शीत युद्ध) के बाद एकध्रुवीयता की अवधि के दौरान स्थापित किए गए थे. वे इस दुनिया के लिए नहीं बने हैं.
वैश्विक, विविध प्रतिनिधियों की सहभागिता और वैध शासन के लिए जी-20 की महत्वाकांक्षा सराहनीय है, लेकिन जिस संसार में यह समूह खुद को पाता है वह बदल गया है.
आज की अंतराष्ट्रीय राजनीति की कड़वी सच्चाई का मतलब यह है कि जब तक राजनीतिक रुझानों में अचानक और नाटकीय उलटफेर नहीं होता, जी-20 समूह जल्द ही एक काल्पनिक मौजूदगी (निशानी) के रूप में अतीत की बात हो जाएगी.
(इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है. यह लेख मूल रूप से द कन्वर्सेशन पर प्रकाशित हुआ था. मूल लेख यहां पढ़ सकते हैं.)
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