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पाकिस्तान (Pakistan) के बनने के बाद से ही उसकी अमेरिका (America) पर निर्भरता किस कदर रही है, इसे इस मुल्क के बारे में प्रचलित एक कहावत से समझा जा सकता है, कि 'पाकिस्तान तीन 'A' के रहमोकरम पर पलता है, अल्लाह, आर्मी और अमेरिका...'
अब जब अमेरिका को लेकर पाकिस्तान में इतनी बड़ी बात प्रचलित हो, और ऐसे में पाकिस्तान के पीएम की कुर्सी पर रहे इमरान खान (Imaran Khan) उसी अमेरिका को आंखें दिखाने लगे, तो ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर वह किसकी शह पर और किसके बल पर यह सब करने की हिम्मत कर रहे हैं. प्रधानमंत्री इमरान खान ने पाकिस्तान में इन दिनों मची राजनीतिक उथल-पुथल और अपनी कुर्सी जाने का आरोप अमेरिका पर मढ़ दिया है. इमरान खान ने एक चिट्ठी दिखाते हुए यह तक दावा कर डाला कि पाकिस्तान में सरकार को गिराने की साजिश अमेरिका ने ही रची है. उनके इस रवैए से हर ओर सवाल उठने लगे हैं कि अमेरिका जैसे बड़े मुल्क से इमरान सीधे जा भिड़े हैं तो जरूर इसके पीछे किसी बड़ी ताकत का बैकअप होगा. इस बारे में सारे इशारे सीधे चीन की शह पर जा रहे हैं. इमरान के इस अमेरिका विरोधी रवैए के कारणाें और उसके पीछे चीनी सपोर्ट की हकीकत को प्रस्तुत करती रिपोर्ट-
जब बात अमेरिका को लेकर पाकिस्तान के तीखे तेवरों की हो रही है तो ऐसे में सबसे पहले अमेरिका के साथ पाकिस्तान के संबंधों पर नजर डाल ली जाए, फिर हम उसे अमेरिका के खिलाफ उकसाने वाली ताकत की बात करेंगे. अपने बनने के शुरुआती सालों में ही पाकिस्तान ने सोवियत संघ से दाेस्ती का विकल्प छोड़कर अमेरिका का साथी बनने का रास्ता चुना. पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने 1950 में अमेरिका की यात्रा की और राष्ट्रपति हैरी एस ट्रूमैन से मुलाकात की. अमेरिका और पाकिस्तान के बीच 1954 में एक रक्षा सहयोग समझौता भी हुआ व इसके तहत पाकिस्तानी सैनिकों ने अमेरिका में प्रशिक्षण लिया और पाकिस्तान के रावलपिंडी में एक अमेरिकन आर्मी हेल्प एंड एडवाइज ग्रुप बनाया गया.
पाकिस्तान शीत युद्ध के दौरान अमेरिका का बड़ा सहयोगी बना रहा. अमेरिका ने भी 1971 के भारत-पाक युद्ध में पाकिस्तान का साथ देते हुए उसे सैन्य सहायता और हथियार देने का एग्रीमेंट किया. अमेरिका-पाकिस्तान की इस जुगलबंदी केा देखते हुए भारत ने रूस के साथ समझौता किया था.
1974 में पाकिस्तान की सत्ता में आए जुल्फिकार अली भुट्टो की अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन से अच्छी छनती थी, पर जब 1976-1979 के दौर में जिमी कार्टर अमेरिकी राष्ट्रपति बने तब अमेरिका और पाकिस्तान के सत्ताप्रमुखों के मतभेद जरूर कुछ समय के लिए उभरे. कार्टर ने पाकिस्तान को अमेरिका से मिलने वाली मदद में कटौती की. जब 80 के दशक में पाकिस्तान में जिया-उल-हक सत्ता में आए तो पाकिस्तान -अमेरिका संबंध फिर परवान चढ़े. अमेरिकी सीक्रेट एजेंसी सीआईए और पाकिस्तान की आईएसआई ने तो अफगानिस्तान से सोवियत सेनाओं केा उखाड़ने के लिए ज्वाइंट मोर्चा तक बनाया.
पाकिस्तान ने 1998 में भारत के परमाणु परीक्षण के जवाब में परमाणु परीक्षण किया तो अमेरिका ने दोनों देशों पर प्रतिबंध लगा दिए. पर पाकिस्तान के साथ उसका अंदरूनी प्रेम बना रहा. जब अमेरिका पर 9/11 का आतंकवादी हमला हुआ तो उसके बाद तिलमिलाए अमेरिका को अफगानिस्तान के समूल सफाए के लिए पाकिस्तान ने सैन्य बेस के लिए अपनी जमीन तक दे डाली. तब प्रफुल्लित अमेरिका ने पाकिस्तान को गैर-नाटो साझेदार तक घोषित कर दिया था.
मई 2011 में जब अमेरिकी सेना ने पाकिस्तान के एबटाबाद में ओसामा बिन-लादेन को मार डाला तो उसके बाद अमेरिका के लिए पाकिस्तान की खास जरूरत शेष नहीं रह गई. इसी दौरान 24 पाकिस्तानी सैनिक अमेरिकी सेना के एक हवाई हमले में मारे गए तो पाकिस्तान सरकार ने अमेरिकी सेना से बेस कैंप को खाली करा लिया. साल 2017 में तो अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने पाकिस्तान केा तगड़ी लताड़ लगाई. उन्होंने कहा कि अमेरिका पाकिस्तान को आतंक मिटाने के नाम पर बेवकूफों की तरह 33 अरब डॉलर का अनुदान दे चुका है. लेकिन बदले में पाकिस्तान ने आतंकवादियो को और सुरक्षित पनाह दे रखी है. 2018 में अमेरिका ने एक घोषणा करते हुए पाकिस्तान में चल रहे सारे सुरक्षा सहायता कार्यक्रम को रद्द कर दिया था. और अब इमरान के हालिया रुख के चलते तो इन दो देशों के बीच तनाव काफी बढ़ सकते हैं.
यहां हमें पाकिस्तान के हालिया घटनाक्रम से पहले के कुछ मामलों पर नजर डालें तो मामला कुछ कुछ समझ में आएगा. यूक्रेन युद्ध से पहले से ही पाकिस्तान की चीन से दोस्ती चरम पर पहुंचना, पाकिस्तान को चीन से निवेश, कर्ज और तारीफ तीनों ही हासिल होना और युद्ध से ऐन पहले पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान का चीन के साथी रूस का दौरा... इन सब घटनाओं को यदि हम एक सीक्वेंस में रखकर देखते हैं तो पाकिस्तान के राजनैतिक खेल के पीछे चीनी रोल के मायने समझ में आने लगते हैं.
इमरान खान द्वारा चीन की शह पर अमेरिका को आंखें दिखाने की चेन जनवरी में हुई डेमोक्रेसी समिट से शुरू हुई. जो बाइडेन ने चीन के खिलाफ इस समिट का आयोजन किया और अपनी ताकत दिखाने पाकिस्तान को भी बुलाया. चीन से पींगें बढ़ा रहे इमरान ने इस समिट में जाने से मना कर दिया. फरवरी में चीन के बीजिंग में विंटर ओलंपिक खेल हुए तो उनका अमेरिका सहित कई देशों ने बायकॉट किया, पर पाकिस्तान न केवल इसमें बढ़-चढ़कर पहुंचा बल्कि खुद इमरान खान ही चीन जाकर इन खेलों में शामिल हो गए. इस बात ने भी अमेरिका को तिलमिलाकर रख दिया.
पाकिस्तान के इस सियासी घमासान के बीच चाइना ने खुलेआम इमरान खान का पक्ष लेकर इन दोनों के बीच साठगांठ के कयासों को बल ही दिया है. पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी जब चीन के स्टेट काउंसलर और विदेश मंत्री वांग ही के साथ मिले तो वांग ही की ओर से बयान दिया गया कि यदि पाकिस्तान में उथल-पुथल करने की साजिश किसी विदेशी ताकत की है तो हम मजबूती से नहीं इमरान खान के समर्थन में खड़े रहेंगे.
अपने कार्यकाल में चीन के कर्ज तले दबे होना भी इमरान के अमेरिका के खिलाफ बाेलने का एक कारण हो सकता है. पाकिस्तान पर जितना कर्ज है, उसमें से चीन का हिस्सा 20 फीसदी है. वर्तमान में पाकिस्तान दुनिया के 10 सबसे ज्यादा कर्ज लेने वाले देशों में शुमार है और उस पर 18 अरब डॉलर के आसपास अकेले चीन का ही कर्ज है.
चीन की आधा सैकड़ा कंपनियां पाकिस्तान को मिड ईस्ट, अफ्रीका और बाकी पूरी दुनिया के मार्केट तक पहुंचने का चांस बनाकर देती हैं. चीन की स्टेट ग्रिड कॉरपोरेशन CET इकाई कई हजार करोड़ की लेनदारी बकाया हाेने पर भी पाकिस्तान में काम कर रही है, चीनी कंपनियों के अरबों रुपए इमरान सरकार में फंसे हुए हैं.कुल मिलाकर आर्थिक मदद और सहयोग के नाम पर चीन की पाकिस्तान और इमरान पर जबरदस्त ग्रिप रही है.
चीन पाकिस्तान के मामले में डिप्लोमेटेकली एडवांटेज पाने की तैयारी में है. वह साउथ एशिया के बड़े हिस्से पर यहां से सीधा दखल रखके दुनिया के बड़े हिस्से पर अपनी धाक जमाने की कोशिश कर रहा है और इमरान इस मामले में उसकी कठपुतली नजर आ रहे हैं. कई रिपोर्ट्स से यह उजागर हो चुका है कि व केवल पाकिस्तान ही वह अन्य मुस्लिम देशों को भी अमेरिका के खिलाफ एक मोर्चे के रूप में खड़ा करने की तैयारी में है. यह उसका लॉन्म टर्म प्लान है. ब्रिटेन की न्यूज वेबसाइट मिडिल ईस्ट आई में उल्लेख है कि पाकिस्तान की तरह ही कई मुस्लिम देश चीन से जुड़ रहे हैं.
खाड़ी देशों से वह सबसे ज्यादा तेल खरीद रहा है. पाकिस्तान की तरह ही अन्य मुस्लिम देश भी अब बिजनसे अमेरिका के बजाए चीन से कर रहे हैं. भले ही अमेरिका ने चीनी कंपनी Huawei पर बैन लगाया होगा, पर सऊदी अरब, यूएई और कुवैत जैसे मुल्क इससे बेपरवाह इस कंपनी के साथ अपने 5जी इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए कॉन्ट्रैक्ट साइन कर रहे हैं. पाकिस्तान और सऊदी अरब जैसे देश तो सरकारी और निजी स्कूलों में चीनी को तीसरी भाषा के रूप में पढ़ाने लगे हैं.
इससे पहले भी इमरान अमेरिका को लगातार धता बताते आए हैं. अमेरिका जब अफगानिस्तान से जा रहा था तो उसे उम्मीद थी कि अफगानिस्तान में अमेरिकी पिठ्ठू सरकार बनवाने में पाकिस्तान मदद करेगा, पर पाकिस्तान ने ऐसा कुछ नहीं किया, उल्टे 15 अगस्त 2021 के बाद जब तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा किया तो उसे बधाई व मान्यता देने वालों में पाकिस्तान सबसे अव्वल रहा.
अपनी स्वतंत्र विदेश नीति पर जोर देते हुए इमरान खान ने हर चीज पर अमेरिका के इंस्ट्रक्शन लेने से साफ मना कर दिया. जून 2021 में अमेरिका को अफगानिस्तान पर नजर रखने के लिए अपने सैन्य बेस देने से इमरान ने इनकार कर दिया. वह इस दौरान अमेरिका के खिलाफ लगातार बयानबाजी करते रहे और अमेरिका से सीधे टकराव वाले मुद्दों पर चीन का साथ दिया. इस्लामाबाद में आयोजित इस्लामिक सहयोग संगठन (OIC) की बैठक में पाकिस्तान ने चीनी विदेश मंत्री वांग यी को मेहमान के रूप में बुलाया.
इमरान खान के चीन की ओर झुकाव की चर्चा के साथ ही यह सवाल उठ रहा है कि विपक्ष को पाकिस्तान की सत्ता को उथल पुथल करने की ताकत कहां से मिली. इस प्रश्न के उत्तर में इमरान की अमेरिकी हस्तक्षेप वाली आशंकाओं केा खारिज नहीं किया जा सकता, क्योंकि इतिहास इस बात की पुष्टि करता है कि पाकिस्तान के अधिकतर हुक्मरान अमेरिका के सपोर्ट से ही यहां सरकार चलाते आए हैं. अमेरिका अपनी मर्जी से पाकिस्तानी शासकों पर दबाव बनाता रहा, उसके अनुकूल न चले तो उन्हें कमजोर करके उनके समानांतर दूसरी सत्ता खड़ी कर दी गई.
जनरल अयूब खान, जनरल जिया उल हक, जनरल परवेज मुशर्रफ, नवाज शरीफ जैसे नेताओं को कुर्सी नसीब कराने में अमेरिकी हस्तक्षेप जरूर रहा है. पाकिस्तान के पूर्व पीएम नवाज शरीफ अमेरिका के प्रति झुकाव रखते थे. उनके बड़े बिजनेस यूरोप और अमेरिका में ही थे. जैसे ही उनके रिश्ते चीन से मजबूत होते दिखे, पाकिस्तान में राजनीतिक उठापटक शुरू हो गई और नवाज शरीफ की विदाई हो गई. आज भी यही माना जाता है कि अमेरिका ने ही ऐसे हालात बनवाए. इमरान खान के मामले में भी सेना से टकराव वाली स्थितियां पूर्व पीएम के समय के जैसे ही निर्मित हुईं. 2008 के बाद पाकिस्तान में हुईं कई बड़ी राजनीतिक उठापटक के पीछे कारण पाकिस्तानी सेना और पाकिस्तान के कई बड़े नेताओं का अमेरिका से जुड़ाव ही रहा है.
अमेरिका के खिलाफ नाम लेकर इतना बड़ा स्टैंड लेना इमरान के साथ-साथ पूरे पाकिस्तान को भारी पड़ सकता है. यहां हम अलग-अलग जानते हैं, पाकिस्तान और इमरान केा यह कैसे भारी पड़ सकता है.
पाकिस्तान हथियारों के लिए बहुत हद तक अमेरिका पर डिपेंड करता है. F-16 फाइटर्स प्लेन समेत कई और इंपोर्टेंट वैपंस पाकिस्तान को अमेरिका से ही प्राप्त होते हैं. अमेरिका की नाराजगी मोल लेना यहां की आर्मी कभी नहीं चाहेगी. रूस-यूक्रेन जंग शुरू होने के पहले दिन ही इमरान रूस की यात्रा पर पहुंच गए. इससे अमेरिका तो तिलमिलाया ही साथ ही उसकी सहयोगी वेस्टर्न कंट्रीज भी पाकिस्तान की ओर गुर्राई नजरों से देखने लगीं. इमरान ने भी हाल ही अपनी रैली में बिना सोचे समझे यूरोपियन देशों पर निशाना साधा. उन्होंने गौर ही नहीं किया कि इससे उनका मुल्क तबाही के कगार पर आ सकता है.
पाकिस्तानी मीडिया की रिपोर्ट्स के अनुसार इमरान खान के लगातार अमेरिका विरोधी बयान और रूस के समर्थन की बात से पाकिस्तान सेना की नाराजगी बढ़ती चली गई है. उनके चिट्ठी वाले दांव से तो सेना सिरे से चिढ़ी हुई है. इस चिट्ठी को लहराने से पहले इमरान ने सेना को इसकी भनक तक नहीं लगने दी. पाकिस्तानी फौज के आला अफसरों की अमेरिका से अपने तरह की अलग सेटिंग है. इमरान के तरीके से अमेरिका और पाकिस्तानी आर्मी के बीच की अंडरस्टैंडिंग में गड़बड़ी पैदा हुई है. इसके बाद पाकिस्तानी आर्मी चीफ जनरल बाजवा ने इमरान से तीन मीटिंग्स करके उनके 'एग्टिज रूट' तक पर बात की है. इससे यह भी संभव है कि पाकिस्तानी आर्मी अब इमरान को आगे भी हमेशा के लिए नापसंद करने लगे.
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