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क्या ये कोई भ्रम है, या हम सच में चीन के साथ जारी लद्दाख विवाद के हल होने को लेकर कोई आशा की किरण देख रहे हैं? गुरुवार (10 सितंबर) को मॉस्को में एससीओ की बैठक के दौरान भारत(India) और चीन (China) के विदेश मंत्रियों एस जयशंकर और वांग यी की मुलाकात के बाद जारी बयान को ‘शांति का अग्रदूत’ कहा जा रहा है.
बयान की भाषा नीरस है, और ये बहुत से ‘अगर’ पर निर्भर करती है लेकिन ये तथ्य कि एक संयुक्त बयान जारी किया गया था एक अच्छी बात है. पिछले एक हफ़्ते में ये पहली अच्छी खबर है जब ये लगने लगा था कि भारत और चीन पैंगॉन्ग सो इलाके में सशस्त्र संघर्ष की ओर बढ़ रहे हैं. संयुक्त बयान में दोनों देशों के बीच 5 बिंदुओं पर हुए समझौते का उल्लेख है.
‘एलएसी पर चीनी सेना और उपकरणों की संख्या 1993 और 1996 के समझौतों के मुताबिक नहीं’
उन्होंने इस बात पर ध्यान दिलाया कि एलएसी पर मौजूद चीनी सेना की संख्या और उनके पास जो उपकरण हैं वो 1993 और 1996 के समझौते के मुताबिक नहीं हैं. वास्तव में, इस बात पर चीन की कोई सफाई नहीं थी कि वो वहां क्यों थे.
उन्होंने वांग यी से कहा कि सबसे पहला काम ये सुनिश्चित करना था कि तनाव वाली जगहों में दोनों देशों की सेना उचित दूरी बनाए रखे. सेना पीछे हटाने की प्रक्रिया और समय सैन्य कमांडर आपस में बात कर तय कर सकते हैं.
चीन की मीडिया के मुताबिक वांग यी ने जयशंकर से कहा कि दोनों देशों के बीच संबंध चौराहे पर आ खड़े हैं लेकिन उनका मानना है कि मुश्किलों को दूर किया जा सकता है.
लेकिन उन्होंने एक बार फिर चीन का पक्ष दोहराया कि उकसावे की कार्रवाई भारत के जवानों ने की थी और कहा कि फायरिंग की घटना दोबारा होने से रोकी जानी चाहिए और तनाव कम करने के लिए सीमा का उल्लंघन कर आने वाले जवानों और उपकरणों को वापस ले जाया जाए.
किस दौर में भारत-चीन की समस्या अटकी हुई है?
संयुक्त बयान के बाद चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के लड़ाकू अखबार ग्लोबल टाइम्स ने एक टिप्पणी में कहा कि संयुक्त बयान और पांच बिंदुओं पर हुए समझौते “सीमा की मौजूदा स्थिति को शांत करने में महत्वपूर्ण कदम साबित होंगे जो ज्यादातर अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों की उम्मीदों से भी अधिक होंगे.”
टिप्पणी में आगे कहा गया कि ये समझौता “दोनों देशों का नेताओं के बीच भविष्य में संभावित बैठक” की स्थिति भी बना सकता है. लेकिन इसके साथ ही एक चेतावनी भी लगा दी कि- सबकुछ इस बात पर निर्भर करता है कि क्या भारत सच में अपनी ओर से समझौते का पालन करेगा.
अगर दोनों देश पांच बिंदुओं पर हुए समझौते का पालन करें तो अगले कदम जल्द ही होने वाले छठे दौर की उच्च स्तरीय सैन्य स्तर की बातचीत में तय किए जाएंगे.
अब पहला चरण दोनों सेनाओं के बीच उचित दूरी बनाए रखने का होगा और इसका कारगर होने से सेनाओं के पीछे हटने की प्रक्रिया का रास्ता बनेगा. लेकिन गलवान नदी घाटी में सीमित स्तर पर उचित दूरी बनाए रखने के समझौते के बाद से ही यहीं पर मामला अटका हुआ है.
क्या इस चरण में यथास्थिति की परिभाषा बदल नहीं सकती?
पांच सूत्रीय समझौते को सकारात्मक तौर पर लें तो दोनों देशों के बीच संबंधों में गुणात्मक बदलाव आएगा. समझौते का पांचवां प्वाइंट भरोसा बढ़ाने वाले कदम किस तरह के हो सकते हैं? पिछले कुछ समय से लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (LAC) शब्द के इस्तेमाल से बचने की बात हो रही है. दोनों देशों के बीच जिन जगहों को लेकर मतभेद हैं वहां ‘बॉर्डर जोन्स’ बनाने की बात हो रही है.
चीन की जटिल सरकार और प्रशासनिक संरचना को समझना
लेकिन इन सब के पहले बीजिंग में मौजूद कम्युनिस्ट पार्टी के लोगों को भी साथ आना होगा. हम ये मान सकते हैं कि विदेश मंत्री एस जयशंकर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पूरा भरोसा है. लेकिन चीन का सिस्टम काफी जटिल और नौकरशाही से भरा है. उदाहरण के तौर पर वांग यी, जो कि विदेश मंत्री और स्टेट काउंसिलर (कैबिनेट स्तर के मंत्री) हैं वो उस संस्था-सेंट्रल फॉरेन अफेयर्स कमीशन के सदस्य नहीं हैं जो वास्तव में चीन की विदेश नीति बनाती है. इस संस्था की अध्यक्षता शी जिनपिंग करते हैं और निदेशक वांग यी के पहले विदेश मंत्री रहे यांग जिचेई हैं जो कि पोलितब्यूरो के सदस्य भी हैं जबकि वांग यी नहीं हैं.
चीन में दूसरी सबसे मजबूत संस्था पीएलए है. हमारे देश के सिस्टम, जहां विदेश मामलों के लिए विदेश मंत्रालय ही नोडल इकाई है, के उलट चीन में स्थिति अलग है. जब बात सीमा की आती है जहां सेना तैनात है तो पीएलए की ज्यादा सुनी जाती है.
अब निश्चित रूप से शी- विदेश मामलों के कमीशन और केंद्रीय कमीशन, सब के अध्यक्ष हैं. अंतिम फैसला उन्हें ही लेना होता है और समझौते का हश्र क्या होगा ये भी उनपर ही निर्भर करता है.
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