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18वीं सदी में दो बार ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रहे हेनरी जॉन टेंपल ने कहा था, "देशों के स्थायी दुश्मन या स्थायी दोस्त नहीं होते, सिर्फ स्थायी हित होते हैं." ये बात आज 100 प्रतिशत कहीं लागू होती है, तो वो जगह मिडिल ईस्ट है.
पिछले कुछ महीनों में तीन अरब देशों ने इजरायल के साथ संबंध सुधार लिए हैं, सामान्य कर लिए हैं. तीनों समझौते अमेरिका की मध्यस्थता से हुए हैं.
लेकिन इस समझौते के पीछे UAE, बहरीन और सूडान की प्रेरणा क्या रही? जिस इजरायल को अरब देश रह-रहकर फलीस्तीन के लिए कोसते थे, अब वो उससे रिश्ते सामान्य क्यों कर रहे हैं? इन सब सवालों के जवाब से पहले जानते हैं कि ये समझौते असल में क्या हैं.
UAE: संयुक्त अरब अमीरात और इजरायल के बीच रिश्ते सामान्य करने के समझौते का ऐलान 13 अगस्त 2020 को हुआ था. मिस्र और जॉर्डन के बाद UAE इजरायल के साथ रिश्ते सुधारने वाला चौथा अरब देश और पहला गल्फ देश बन गया है. इस समझौते पर आधिकारिक रूप से हस्ताक्षर 15 सितंबर को व्हाइट हाउस में किए गए. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इस दौरान 'साक्षी' के तौर पर मौजूद रहे.
बहरीन: डोनाल्ड ट्रंप ने बहरीन और इजरायल के बीच शांति समझौते का ऐलान 11 सितंबर को किया था और 15 सितंबर को व्हाइट हाउस में आधिकारिक रूप से इस पर हस्ताक्षर किए गए. ये भी 'अब्राहम समझौता' ही है. बहरीन चौथा अरब देश बन गया है, जिसने इजरायल को मान्यता दे दी है.
सूडान: इजरायल के साथ सूडान के रिश्ते सामान्य होने का ऐलान 23 अक्टूबर को हुआ. असल में ये ऐलान अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने किया था. लेकिन UAE और बहरीन की तरह सूडान, इजरायल के साथ राजनयिक रिश्ते स्थापित नहीं कर रहा है. ट्रंप प्रशासन के अधिकारियों का कहना है कि बातचीत के दौरान राजनयिक संबंध मुद्दा भी नहीं था.
इजरायल के साथ रिश्ते सुधारने का UAE पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा. पहले भी दोनों देशों के बीच रिश्ते अच्छे नहीं, तो खराब भी नहीं रहे हैं. UAE और इजरायल सालों से व्यापर करते आए हैं. 'अब्राहम समझौता' इस अनौपचारिक रिश्ते को सिर्फ औपचारिक बना देगा.
इजरायल ने 1979 में मिस्र और 1994 में जॉर्डन के साथ शांति समझौता किया था. लेकिन फिर भी इन दोनों देशों के साथ ही इजरायल के व्यापारिक संबंध कोई बहुत अच्छे नहीं हैं. दोनों ही देश इजरायल के साथ युद्ध लड़ चुके हैं. लेकिन UAE की बात अलग है. वो आर्थिक सफलता का उदाहरण है और उसने इजरायल के साथ कभी युद्ध नहीं लड़ा है.
UAE की ही तरह बहरीन ने इजरायल से दूरी नहीं बनाई. 2017 में बहरीन के शासक हमाद बिन इसा अल खलीफा ने इजरायल के अरब लीग बॉयकॉट से इनकार कर दिया था. उसके बाद से ही बहरीन और इजरायल के रिश्तों में अनौपचारिक रूप से सुधार आया है. हालांकि, दोनों के बीच में कोई खासा व्यापारिक संबंध नहीं है.
2011 के अरब स्प्रिंग के दौरान जब बहरीन में हमाद बिन इसा अल खलीफा के खिलाफ प्रदर्शन शुरू हुए थे, तो इसका आरोप ईरान पर लगा था. अरब स्प्रिंग के दौरान कई देशों में तख्तापलट हुआ था, लेकिन सऊदी अरब की मदद से खलीफा बहरीन में अपनी सत्ता बचा ले गए.
UAE और बहरीन की तरह सूडान, इजरायल के साथ रिश्ते राजनयिक स्तर तक नहीं ले गया है. सूडान ने सिर्फ रिश्ते सामान्य करने का समझौता किया है. लेकिन सूडान का ऐसा करना भी प्रतीकात्मक तौर पर बहुत अहम है. क्योंकि 1967 में सूडान की राजधानी खार्तूम में अरब लीग समिट हुआ था, जिसमें आठ अरब देशों ने इजरायल के साथ 'कोई शांति, समझौता और बातचीत' नहीं करने का फैसला किया था.
सूडान के लिए इजरायल के साथ समझौता करना अपनी अर्थव्यवस्था बचाने के लिए अहम था. सूडान को अमेरिका ने 1993 में आतंकियों की कथित मदद के लिए अपनी 'आतंकवाद के प्रायोजक' लिस्ट में शामिल किया था. इसकी वजह से सूडान आर्थिक रूप से कमजोर हो गया था. वो वर्ल्ड बैंक जैसे संस्थानों से मदद नहीं ले सकता था. हालांकि, इजरायल के साथ समझौते के बाद अमेरिका ने उसे इस लिस्ट से हटा दिया है.
इजरायल ने बहुत छोटी से कीमत पर बहुत कुछ कमा लिया है. तीन अरब देशों के साथ समझौते में इजरायली पीएम बेंजामिन नेतन्याहू की जीत ही जीत है. नेतन्याहू पर भ्रष्टाचार के कई मुकदमे चल रहे हैं और कोरोना वायरस महामारी को संभालने को लेकर उनकी आलोचना हो रही है. ऐसे में तीन अरब देशों के साथ संबंध सुधार लेना नेतन्याहू के लिए बड़ी जीत लगती है.
स्थगित करना और रद्द करने में अंतर होता है. इजरायल योजना पर अभी अमल नहीं करेगा, लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि उसने इसका त्याग कर दिया है. हालांकि, UAE के लिए भी इजरायल का ये कदम मददगार साबित हो सकता है. UAE दावा कर सकता है कि उसने वेस्ट बैंक पर कब्जा नहीं होने दिया है.
अरब देशों और इजरायल के बीच रंजिश, अदावत और दूरी का सबसे बड़ा मुद्दा था- फलीस्तीन. लेकिन अब वो कोई मुद्दा नहीं रहा है. जानकारों का मानना है कि अरब देश फलीस्तीन का मसला लगभग छोड़ ही चुके हैं.
इसकी शुरुआत सालों पहले शुरू हो चुकी थी. जब 1990 में इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने कुवैत पर हमला किया था, तो फलीस्तीन के उस समय सबसे बड़े नेता यासिर अराफात ने सद्दाम का समर्थन किया था. इस कदम से तेल-बहुल अरब देशों ने फलीस्तीन के साथ दूरी बढ़ा दी थी.
इससे पहले 1979 में खोमैनी के आने के बाद से ईरान ने फलीस्तीन में दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया था. ईरान फलीस्तीनी संगठन हमास को समर्थन देता है. इसे अरब देश ईरान का आंदोलन दूसरे देशों तक निर्यात करने के तौर पर देखते हैं. ईरान से फलीस्तीनी नेताओं की करीबी ने अरब देशों को इस मुद्दे से दूर कर दिया है.
मिडिल ईस्ट में इजरायल सबसे आधुनिक तकनीक वाला देश है. साथ ही अमेरिका का समर्थन हासिल करने का आसान रास्ता इजरायल से होकर गुजरता है. ऐसे में अरब देश समझ चुके हैं कि इजरायल का बॉयकॉट करने का कोई मतलब नहीं रह गया है. क्षेत्र में बड़ी ताकत बनना है तो तकनीक और अच्छे संबंध चाहिए होंगे.
इसके अलावा तेल का खेल अब लगभग खत्म हो चुका है. बाकी रही सही कसर कोरोना वायरस महामारी ने पूरी कर दी है. एक्सपर्ट्स का कहना है कि महामारी से पहले की तेल डिमांड पर लौटने में 2022 तक का समय लग सकता है. अब खेल है व्यापार का और व्यापार के लिए रिश्ते अच्छे होना सबसे जरूरी है.
जब भारत में नागरिकता संशोधन कानून (CAA) लाया गया, तो पाकिस्तान और तुर्की ने इसे मुस्लिमों के खिलाफ बताया लेकिन सऊदी अरब या और किसी अरब देश ने कुछ नहीं कहा था.
अगर कुछ समय बाद सऊदी अरब भी इजरायल के साथ रिश्ते सुधार लेता है, तो ये कोई हैरानी की बात नहीं होगी. तीन अरब देश अगर इजरायल के साथ संबंध ठीक कर रहे हैं तो लाजिमी है कि इसमें सऊदी अरब की मंजूरी है.
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