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यूक्रेन को लेकर इंटरनेट पर कितने लोग सर्च कर रहे हैं? 11 अप्रैल को प्रकाशित ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट के अनुसार यह आंकड़ा गिरकर उस स्तर पर पहुंच गया है, जितना जनवरी की शुरुआत में देखा गया था. यानी रूस के आक्रमण (Russia Ukraine War) शुरू होने से करीब छह सप्ताह पहले के स्तर पर.
यह देख कर ऐसा लगता है कि दुनिया ने रूस-यूक्रेन युद्ध के प्रति धीरे-धीरे अपनी सजगता या रुचि खो दी है,वो भी इसके बावजूद कि यह पहले दिन से आज तक उतना ही भयानक और नाटकीय है.
युद्ध के बीच रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन द्वारा परमाणु हमले की धमकी और मार्च के पहले हफ्ते यूक्रेन के Zaporizhzhia पावर प्लांट पर हमला- इन दोनों के कारण लोगों के बीच संभावित परमाणु युद्ध को लेकर दहशत बढ़ गयी थी.
लेकिन अब ऐसा लगता है कि यह घबराहट कम हो गई है.
इसके अलावा रिपोर्ट के अनुसार लोगों का शुरुआत में मानना था कि रूस का यूक्रेन की राजधानी कीव पर कुछ ही दिनों में कब्जा हो जायेगा और यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की की सत्ता को उखाड़ फेंका जाएगा.
हालांकि ब्लूमबर्ग की इस रिपोर्ट में मानव प्रकृति की भूमिका का जिक्र नहीं है- आखिर दुनिया अब इस युद्ध को उतनी सजगता से फॉलो क्यों नहीं कर रही है जितना दो महीने पहले कर रही थी?
इस मानवीय प्रकृति को बेहतर ढंग से समझने के लिए क्विंट ने दो क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट से बात की- डॉ कामना छिब्बर, जो फोर्टिस हेल्थकेयर में मानसिक स्वास्थ्य और व्यवहार विज्ञान विभाग की प्रमुख हैं, और डॉ समीर पारिख से, जो जो फोर्टिस हेल्थकेयर में मानसिक स्वास्थ्य और व्यवहार विज्ञान विभाग के डायरेक्टर हैं.
डॉ छिब्बर समझाती हैं कि किसी खास तनावपूर्ण स्थिति की लगातार उपस्थिति किसी व्यक्ति को समय की अवधि के बाद बहुत कमजोर बना सकती है.
उनका कहना है कि चाहे हम किसी भी तरह से युद्ध जैसी किसी स्थिति का सामना करें- शरणार्थी बनकर प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हों या मीडिया में खबरें सुनकर अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हों- “यह हमारे दिल-दिमाग-स्वास्थ्य को प्रभावित करेगा, क्योंकि यह हमें इस बात का मूल्यांकन शुरू करने के लिए प्रेरित करता है हमारे आसपास क्या हो रहा है".
उन्होंने आगे बताया कि अगर हम युद्ध जैसी स्थिति का अप्रत्यक्ष रूप से भी सामना करते हैं तो हमारे दिमाग में अपनी सुरक्षा से जुड़े कुछ ऐसे सवाल उठने लगते हैं:
एक आदमी की रक्षा क्या करता है?
पूरे समुदाय की रक्षा क्या करता है?
बच्चों की सुरक्षा के बारे में क्या?
हम यह कैसी दुनिया बना रहे हैं?
डॉ छिब्बर कहती हैं कि हमारे मन में ये लगातार उठने वाले सवाल मानसिक थकान का कारण बनते हैं, चाहे हमारे जीवन पर इस घटना (यहां रूस-यूक्रेन युद्ध) का सीधा असर न हो.
ऐसा इसलिए है क्योंकि जब हम उन खबरों, उन जानकारियों को ग्रहण करते हैं कि कैसे किसी का नुकसान हुआ, किसी ने अपनों को खो दिया, उनके घर अब नष्ट हो गए हैं- हम उन विचारों और भावनाओं का खुद अनुभव भी करते हैं.
डॉ समीर पारिख बताते हैं कि दिन के आखिर में हमें अपनी सबसे अच्छी स्थिति खोजने की जरूरत होती है, जिसे हम कोशिश करते हैं कि सोशल इंटरैक्शन करके या खुद को अपना समय देकर पा सकें.
डॉ छिब्बर कहती हैं कि "इतना सब कुछ होता रहता है कि दिन के आखिर में अधिकांश लोग उसी में खो जाते हैं जो उनकी अपनी जिंदगी में सीधे तौर पर हो रहा होता है. इसलिए लोगों को जो कुछ हो रहा है उसके बारे में बहुत अधिक चिंता, बहुत पीड़ा, क्रोध और निराशा का अनुभव हो सकता है लेकिन जब कोई खास घटना सीधे उनके खुद के जीवन से जुड़ी होती है, तो संभावना है की वे उससे प्रभावित होंगे"
डॉ छिब्बर आगे कहती हैं कि "समाचार से थकान इसलिए होती है क्योंकि हमारे पास उस स्थिति पर नियंत्रण की भावना नहीं होती है. आप उस स्थिति में नहीं होते हैं जहां आप घटना के परिणाम को बदल सकें या उसे नियंत्रण कर सकें, तब भी जब आप ऐसा ही करना चाहें."
डॉ समीर पारिख भी कहते हैं कि यह कहना सच्चाई को बहुत कमतर आंकना होगा कि लोगों की समाचारों में रुचि कम हो रही है या उनके सामने प्रोसेस करने को बहुत अधिक जानकारी है.
उनके अनुसार एक फैक्टर जिस पर "समाचार से थकान" निर्भर करती है, वह यह है कि समाचार को फॉलो कौन कर रहा है.
उन्होंने अपनी बात खत्म करते हुए कहा कि "बहुत से लोग जागरूक होंगे, कुछ चिंतित भी होंगे, कुछ ऐसे होंगे जो जागरूक हो सकते हैं लेकिन वे चिंता नहीं करेंगे तो कुछ ऐसे होंगे जो बहुत जागरूक नहीं हो सकते हैं लेकिन बहुत अधिक चिंता का अनुभव कर सकते हैं. इसलिए आपके सामने एक ही घटना पर विभिन्न प्रतिक्रियाओं के साथ लोगों के समूह हैं”.
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