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अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी हो रही है, और इसी के साथ हमें पिछले कुछ दशकों में अमेरिका और कई दूसरे देशों की ऐसी ही दूसरी वापसियों की याद आ रही है.
सबसे मशहूर, वियतनाम से अमेरिकी की वापसी को नाम ही दिया गया था- ‘लास्ट हेलीकॉप्टर’. यह साइगॉन में अमेरिकी दूतावास की छत से ऊपर उड़ते हेलीकॉप्टर का प्रतीक था. साइगॉन से कई हेलीकॉप्टर उड़ाए गए थे क्योंकि उन्हें जहाज पर सवार नहीं किया जा सकता था और उन्हें समुद्र में डुबो दिया गया था.
क्या यही वजह है कि अफगानिस्तान में सैन्य अभियान की समाप्ति से पहले ही बगराम एयरबेस को पूरी तरह से खाली कर दिया गया है. अमेरिका ने इसके लिए 31 अगस्त, 2021 का दिन तय किया है.
दरअसल, अमेरिका के सैन्य इतिहास में हेलीकॉप्टर्स बुरे हादसों का प्रतीक हैं. हम 1980 में तेहरान के असफल डेल्टा फोर्स ऑपरेशन (ऑपरेशन ईगल क्लॉ) को याद कर सकते हैं जिसका मकसद अमेरिकी कर्मचारियों को ईरानी आंदोलनकारियों के चंगुल से बचाना था. या फिर हम 1993 में मोगादिशु, सोमालिया के अभियान ऑपरेशन गॉथिक सरपेंट को याद कर सकते हैं जिसे आम तौर पर ब्लैक हॉक डाउन कहा जाता है. इन दोनों अभियानों में हेलीकॉप्टर शामिल थे.
किसी पूर्वाग्रह से बचने के लिए हम 1989 में अफगानिस्तान में सोवियत हार और उसकी सेना की वापसी को भी याद कर सकते हैं. शीत युद्ध की समाप्ति के कई कारणों में से एक कारण यह भी था. विश्लेषकों के लिए सबसे महत्वपूर्ण यह है कि 1980 के दशक में वियतनाम और अफगानिस्तान की लड़ाइयां ताकतवर विरोधियों के खिलाफ थीं और पूरी तरह परंपरागत तरीके से लड़ी गई थीं.
2001 से अमेरिकी सैन्य बल और उसकी सहयोगी सेनाएं अफगानिस्तान में गैर सरकारी गुटों से संघर्ष कर रही हैं. दीगर है कि अफगानिस्तान फिर भी ‘साम्राज्यों का कब्रिस्तान’ ही कहा जा रहा है. इस पर किसी सल्तनत की हुकूमत कायम नहीं रही.
बेशक, आप सिर धुन सकते हैं कि क्या अमेरिकी सेना की वापसी हताशा का संकेत है या फिर उस दौर के अंत में बुद्धिमानी का प्रतीक जिसमें अमेरिका अपने लक्ष्य को हासिल करने का दावा कर रहा है.
इन दोनों बयानों का मतलब यह था कि वे स्थिरता चाहते हैं और चाहते हैं कि अफगानिस्तान में दोबारा किसी किस्म का अतिवाद न पैदा हो जोकि बड़े पैमाने पर पूरी दुनिया, और खास तौर से अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के लिए खतरनाक है.
इसके अलावा इसका मतलब यह भी था कि 9/11 के अपराधियों को हराया जा सके, उनका खात्मा हो. चरमपंथी विचारधाराओं को काबू में रखा जा सके ताकि इतिहास फिर से न दोहराया जाए. विरोधियों पर अपनी सैन्य ताकत का रौब गांठा जा सके. इससे स्थितियों को असामान्य होने से रोका जा सकेगा और एक ऐसी क्षेत्रीय व्यवस्था कायम होगी जिसमें चरमपंथी दोबारा पैर नहीं जमा सकेंगे.
इन कोशिशों और इनके आधार पर बनी रणनीतियां संदेह जगाती हैं. इन्हें सैन्य अभियानों, कूटनीति और राष्ट्र निर्माण के तर्क के साथ पेश किया गया था.
अमेरिकी कामयाबी के रास्ते की एक बड़ी रुकावट था पाकिस्तान. सोवियत सेना के खिलाफ युद्ध में अमेरिका का संगी और अगड़ी पंक्ति का लड़ाका.
पाकिस्तान के इशारे पर ही अस्सी के दशक में अफगान शरणार्थी शिविरों में इस्लाम के चरमपंथी स्वरूप की शुरुआत हुई और वहीं से तालिबान उठ खड़ा हुआ. उसी ने सऊदी अरब और अमेरिका की मदद से सोवियत संघ के खिलाफ विरोध भड़काया. एक से माली मदद ली और दूसरे से असलहा.
अल कायदा की ही तरह पूरा तालिबान नेतृत्व सालों तक पाकिस्तान में जमा रहा है पर अमेरिका पाकिस्तान को फटकार नहीं लगा पाया. उस पर वह सालों तक निर्भर रहा है. कराची तक समुद्री मार्ग और फिर सड़क के जरिए से उसने रसद पहुंचाई है. सीएआर में एयरहेड्स से युद्ध लड़ना काफी महंगा होता. इसी वजह से शायद तालिबान लंबे समय तक टिक सका और उसे दोबारा हुकूमत करने की ताकत मिली.
अगर आपका विरोधी गैर पारंपरिक तरीके की लड़ाई लड़ रहा है तो उसका मुकाबला तभी किया जा सकता है, जब आप अपने लोगों की मौतों के लिए तैयार रहें. वैसे अफगानिस्तान में हताहत होने वाले अमेरिकी सैनिकों की संख्या अपेक्षाकृत कम ही रही.
ऐसा नहीं है कि अमेरिकी सैन्य बल इस बात के लिए तैयार नहीं थे. वे पूरी तरह पेशेवर हैं. लेकिन अगर वतन के लोगों को इस बात का यकीन न दिलाया जा सके और राजनैतिक नेतृत्व में अपनी आवाम को समझाने की हिम्मत न हो तो आला सैन्य अधिकारी पूरे आत्मविश्वास के साथ किसी अभियान को शुरू नहीं कर सकते.
मैं नहीं कहता कि किसी भी सैन्य अभियान में हताहतों की संख्या मायने नहीं रखती लेकिन किसी बड़े अभियान में, जोकि सिर्फ तकनीकी फायदे के लिए नहीं चलाया जाता, यह एक अहम हिस्सा होता है.
अमेरिका ने अफगान नेशनल आर्मी (एएनए) को प्रशिक्षित किया और भारत ने भी इसमें भूमिका निभाई. लेकिन यह उम्मीद करना कि एक मामूली सेना कुछ ही सालों में एक बढ़िया पेशेवर और ताकतवर सैन्यदल बन जाएगी, व्यावहारिक बात नहीं है.
वापसी के चंद रोज पहले अमेरिका ने पाकिस्तान से कहा कि वह सशस्त्र ड्रोन्स और कुछ फिक्स्ड विंग एसेट्स को लॉन्च करने के लिए अपना एयर बेस दे दे ताकि एएनए की मदद की जा सके. लेकिन उसके साथ कोई समझौता नहीं हुआ.
कहा जाता है कि राष्ट्रपति जॉर्ज बुश जूनियर ने कभी पाकिस्तानी नेतृत्व को इस बात की धमकी दी थी कि अगर उसने अमेरिका से सहयोग नहीं किया तो उस पर बम बरसाए जाएंगे और वह पाषाण युग में पहुंच जाएगा. शायद यही वक्त था कि पिछले कई बरसों में पाकिस्तान पर जमाए असर का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए किया जाता. अब हवाई सहयोग के बिना एएनए को अधर में छोड़ देने से अमेरिकी प्रतिष्ठा को बड़ा धक्का लगेगा.
गैर पारंपरिक युद्ध को जीतना, सिर्फ सैन्य प्रभुत्व का मामला नहीं है. इसके लिए समर्थन की जरूरत होती है, और माहौल भी अच्छा होना चाहिए.
जनरल पेट्रेएस के कमांड के दौर में सांस्कृतिक भूभाग को समझने की कोशिश की जाती थी, लेकिन इस रवैये को अपनाना आसान नहीं है. हालांकि किसी भी युद्ध में यह हमेशा जीत दिलाता है.
तालिबान ने जल्द ही यह समझ लिया कि अमेरिका अफगानिस्तान में बदला लेने पहुंचा है पर इसके लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध नहीं होगा. उसने अपने मंसूबों को पूरा करने के लिए अपनी चालाक चालें नहीं बदली हैं. जैसे अफगानिस्तान में औरतों की स्थिति अब भी अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए चिंता का विषय है.
तालिबान नियंत्रण रखना चाहता है और एएनए का नियंत्रण बना हुआ है. ऐसे में विदेशी खिलाड़ियों का असर हालात को दिलचस्प मोड़ देता है.
अफगानिस्तान ग्रेट गेम सिंड्रोम का हिस्सा हमेशा से रहा है. इसीलिए चीन और रूस की सांठ-गांठ की उम्मीद जताई जा सकती है, जबकि अमेरिका और पश्चिमी देश पूरी तरह से रुचि लेने के बावजूद दूरी बनाए रख सकते हैं. इसके अलावा ईरान और पाकिस्तान, दोनों के हित सिर्फ सरहदों तक सीमित नहीं होने वाले.
आखिर में भारत जैसा देश भी है. भले ही उसने अफगानिस्तान में 3 अरब डॉलर का निवेश किया है. लेकिन उसका हित भी इससे अधिक है.
ये सभी आने वाले दिनों का इंतजार कर रहे हैं.
(लेखक भारतीय सेना के 15 कॉर्प्स के पूर्व जीओसी और अब कश्मीर यूनिवर्सिटी के चांसलर हैं. वह @atahasnain53 पर ट्विट करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विट न इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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