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‘क्रिएटिंग ए शेयर्ड फ्यूचर इन ए फ्रैक्चर्ड वर्ल्ड’ की खातिर, इस बार 'वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम' स्विट्जरलैंड के डावोस में मंथन करेगा. 1971 में बने इस संगठन की ये 48वीं बैठक जरूर होगी लेकिन मकसद वही यानी दुनिया के तमाम देशों और उनकी ताकतों के बीच बेहतर तालमेल से मजबूत माहौल बने.
बड़ी राजनीतिक, आर्थिक, और सामाजिक चुनौतियों का सभी मिल जुलकर मुकाबला कर सकें और दुनिया का माहौल सकारात्मक हो. 400 से अधिक बैठकों के होने वाले दौर में 100 से ज्यादा देशों के करीब 3000 प्रतिनिधि हिस्सा लेंगे.
इस बैठक में जहां डोनाल्ड ट्रम्प साल 2000 में बिल क्लिंटन के बाद भाग लेने वाले पहले अमेरिकी राष्ट्रपति होंगे वहीं नरेन्द्र मोदी, 1997 में एचडी देवगौड़ा के बाद शामिल वाले दूसरे प्रधानमंत्री होंगे.
अब शीत युद्ध वाला वो जमाना नहीं रहा जब तमाम देश, दुनिया में पॉवर सेंटर रहे अमेरिका और रूस की ओर निहारते थे. बदले दौर में चीन, जापान, कोरिया, इजरायल जैसे देश बड़ी सैन्य या आर्थिक या दोनों ताकतों के रूप में उभरे हैं वहीं भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक ताकत है.
ये बात अलग है कि गरीबी, बेरोजगारी, सामाजिक एकजुटता की कमी के चलते हमारी तरक्की दिखती नहीं है. वहीं आतंकवाद के चलते कई मुस्लिम देश ईरान, सऊदी अरब और अमेरिका के बीच की राजनीति में झुलस रहे हैं. पड़ोसी पाकिस्तान ही कभी अमेरिका तो कभी चीन की कठपुतली दिखता है.
डावोस में प्रधानमंत्री मोदी भारत की तेज रफ्तार वृद्धि, मौजूदा बेशुमार अवसरों, विश्व बैंक के ईज ऑफ डूइंग बिजनेस में भारतीय रैंकिंग जिसने 30 से 100 की ऊंची छलांग लगाई, दुनिया के निवेशकों के सामने रखेंगे. शायद ये भी बताएं कि भारत में निवेश और व्यवसाय पहले से काफी आसान हुआ है.
नौकरशाही और लालफीताशाही में काफी कमी आई है तथा जीएसटी और दूसरे आर्थिक सुधारों के कारण आने वाले सालों में भारत टॉप 50 देशों में पहुंच जाएगा. वहीं अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प अमेरिकी व्यवसायों, उद्योगों को मजबूत करने के लिए अपने 'अमेरिका फर्स्ट' के एजेंडे को बढ़ावा देंगे.
पहले प्रबंधन के तरीकों पर चर्चा होती थी. जब 1973 में कई देश अलग होने लगे और अरब-इजराइल युद्ध के कारण बैठक का ध्यान आर्थिक और सामाजिक मुद्दों की ओर गया और पहली बार राजनीतिज्ञों को बुलाया गया. 1988 में ग्रीस और तुर्की ने यहीं आपसी युद्ध को टालने की घोषणा की. 1992 में रंगभेद नीति से इतर, पहले अश्वेत दक्षिण अफ्ऱीकी राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला भी जुड़े. 1994 में इजराइल और फिलीस्तीन ने आपसी सहमति के मसौदे पर यहीं मुहर लगाई.
आज ग्लोबल रिलेशन्स के मायने बदल गए हैं. बदले हुए राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिणामों के बीच समावेशी विकास को सुरक्षित रखने, दुर्लभ संसाधनों को बचाने, सामूहिक विफलता से जूझने के खातिर सहयोग के नए मॉडल विकसित करना पहला प्रयास है, जहां संकीर्णता न हो बल्कि पूरी तरह से मानवता के सुखद भविष्य के लिए हो. ऐसे में 'क्रिएटिंग ए शेयर्ड फ्यूचर इन ए फ्रैक्च र्ड वल्र्ड' की परिकल्पना ही बेहद रोमांचित करती है काश हकीकत यही हो जाए तो कितना सुखद और सुन्दर होता!
(इनपुट: IANS)
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