हर हफ्ते कई फिल्में थिएटर में रिलीज की जाती हैं, जिनमें से कुछ मसाला फिल्में होती हैं, जो लोगों के एंटरटेनमेंट के लिए बनाई जाती हैं. कई फिल्में सोशल मैसेज के साथ आती हैं और समाज को आईना दिखाती हैं. वैसे हमारे देश में कम ही फिल्में महिला अधिकारों और जातिवाद पर बनती हैं. आज हम आपको जातिवाद पर बनी ऐसी ही कुछ शानदार फिल्मों के बारे में बताने जा रहे हैं, जो जातीय भेदभाव पर खुलकर बात करती हैं.

<div class="paragraphs"><p>(फोटोःयूट्यूब)</p></div>

जय भीम: साल 2021 में आई फिल्म जय भीम' इरुलुर आदिवासी समुदाय और उनके साथ सालों से हो रही बर्बरता की कहानी दिखाती है. ये फिल्म 1993 में तमिनलाडु में हुई सच्ची घटना पर आधारित है. जिसमें जस्टिस के चंद्रू का लड़ा गया केस दर्शाया गया है. जय भीम में पुलिस के अत्याचारों को भी दिखाया गया है. साथ ही ये फिल्म सिस्टम पर भी तंज कसती है. इस फिल्म में सूर्या ने वकील चंद्रू और लिजोमोल जोस ने सेनगानी के किरदार को शानदार तरीके से निभाया. वहीं निर्देशक टी जे ज्ञानवेल ने कोर्टरूम ड्रामा को भी काफी अच्छी तरीके से फिल्माया है. फिल्म जय भीम में मणिकंदन, राजीशा विजयन, प्रकाश राज और राव रमेश जैसे कलाकार मुख्य किरदार में नजर आए हैं.

(फोटोःयूट्यूब)

सैराटः 2016 में रिलीज हुई मराठी फिल्म 'सैराट' ने बॉक्स ऑफिस पर तगड़ी कमाई की थी. 4 करोड़ के बजट में बनी इस फिल्म ने ओवरऑल करीब 110 करोड़ रुपए से ज्यादा की कमाई की थी. बता दें कि फिल्म सैराट में दलितों से नाइंसाफी की कहानी है.

(फोटोःयूट्यूब)

मुक्काबाजः अनुराग कश्यप की फिल्म मुक्काबाज जातिवाद की जड़ों को खेलकूद की प्रतियोगिता तक दिखाया गया है. इस फिल्म में एक दलित बॉक्सर श्रवण कुमार (विनीत श्रीनेट) की कहानी दिखाई गई है, जिसे हर रोज अपने कोच और स्थानीय बॉक्सिंग फेडरेशन संचालक के हाथों अपमानित होना पड़ता है, लेकिन श्रवण कुमार अपनी काबिलियत के दम पर बॉक्सिंग में कामयाबी हासिल करता है.

(फोटोःयूट्यूब)

आरक्षणः आरक्षण साल 2011 में रिलीज हुई एक हिंदी फिल्म है. जो देश में व्‍याप्‍त आरक्षण के गंभीर मुद्दे पर बनाई गई थी.  फिल्‍म में अमिताभ बच्‍चन, सैफ अली खान, दीपिका पादुकोण और मनोज बाजपेयी मुख्‍य भूमिका में नजर आये थे. फिल्‍म का निर्देशन प्रकाश झा ने किया था.

(फोटोःयूट्यूब)

शूद्र द राइजिंगः फिल्म निर्माता निर्देशक संजीव जायसवाल की फिल्म शूद्र द राइजिंग देश के उन पच्चीस करोड़ लोगों की कहानी है, जो सदियों से जुल्म सह रहे हैं. इस फिल्म में दलितों को उनके मूल अधिकारों से वंचित किए जाने की समस्या को प्रभावी ढंग से उठाया गया है.

(फोटोःयूट्यूब)

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अंकुर (1973): निर्देशक श्याम बेनेगल ने फिल्म 'अंकुर' में एक पूरे वर्ग के साथ हो रहे भेदभाव का मार्मिक रूप से चित्रण किया है. श्याम बेनेगल की ये पहली फीचर फिल्म थी जिसने तीन राष्ट्रीय पुरस्कार भी जीते. श्याम बेनेगल के निर्देशन में बनी इस फिल्म में शबाना ने एक शादीशुदा नौकरानी लक्ष्मी का किरदार निभाया है. लक्ष्मी को गांव में अपने जमींदार पिता का व्यापार आगे बढ़ाने आए कॉलेज के एक छात्र सूर्या से प्रेम हो जाता है. लक्ष्मी गर्भवती हो जाती है, ऐसे समय में सूर्या उसका साथ छोड़ देता है.

(फोटोःयूट्यूब)

मसानः निर्देशक नीरज घेवान की फिल्म मसान 24 जुलाई, 2015 को रिलीज हुई थी. ‘मसान’ की कहानी बनारस के घाटों पर रची-बसी है. इस फिल्म में एक छोटे से कस्बे के चार लोगों की कहानियां दिखाई गई हैं. उन्हीं में से एक कहानी श्मशान घाट में काम करने वाले दीपक (विक्की कौशल) की है, जो निचले वर्ग यानी डोम  जाति से ताल्लुक रखता है. दीपक को मृत शरीर जलाने और क्रिया कर्म के काम से नफरत है और इससे छुटकारा पाना चाहता है. इस फिल्म के जरिए सभी बाधाओं के खिलाफ आशा की कहानी दिखाई गई है. फिल्म में विक्की कौशल, रिचा चड्ढा, संजय मिश्रा, श्वेता त्रिपाठी और विनीत कुमार मुख्य भूमिका में थे.

नीचा नगरः साल 1946 में चेतन आनंद ने 'नीचा नगर' नाम से फिल्म बनाई थी, जिसे कान फिल्म फेस्टिल के बेस्ट फिल्म अवार्ड (पाम डि ओर) से नवाजा गया था. ‘नीचा नगर’ गोर्की की 1902 की रचना ‘द लोअर डेप्थ्स’ पर आधारित है. इस फिल्म में गरीबों के एक इलाके में आने वाली साफ पानी की पाइप लाइन को वहां का एक दबंग बंद कर देता है. जिससे बस्ती में पानी को लेकर हाहाकार मच जाता है और वहां के लोग गंदा पानी पीकर बीमार हो जाते हैं और लोग मरने लगते हैं.

(फोटोःयूट्यूब)

फ्रैंडीः फिल्म में जब्या नाम का एक लड़का कथित नीची जाति से संबंध रखता है. इसलिए वो और उसका परिवार गांव के बाहर रहता है. जब्या के पिता छोटे मोटे काम करते हैं, जिसमें सुअर को पकड़ना भी शामिल है. वहीं जब्या सबसे अपनी पहचान छिपाता फिरता है.  वो अपने स्कूल में पढ़ने वाली एक ऊंची जाति की लड़की शालू से एकतरफा प्यार करने लगता है. फिल्म के आखिरी में समाज की उन लोगों की सोच पर पत्थर फेंककर मारा जाता है, जो आज भी दलितों का शोषण करते हैं और छोटी सोच रखते हैं.

(फोटोःयूट्यूब)

दामुल साल 1984 में आई थी. फ‍िल्म बिहार के गरीब ग्रामीणों के प्रवास के मुद्दे को उजागर करती है.  डायरेक्टर प्रकाश झा की फ‍िल्म दामुल एक ऐसे मजदूर की कहानी है, जिसको अपने भू-स्वामी के लिए चोरी करने के लिए मजबूर किया जाता है. फिल्म में अनु कपूर, श्रीला मजुमदार, मनोहर सिंह, दिप्ती नवल और रंजन कामथ मुख्य भूमिका में है.

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सुजाताः समाज की उस गलत मानसिकता को दिखने की कोशिश करती है जो समाज को खोखला कर रहा है और फिल्म उस मानसिकता को गलत भी साबित करती है. ये फिल्म समाज में एक संदेश देती है कि छुआ छूत आपका भ्रम है. भगवान ने सबको एक जैसा ही बनाया है. फिल्म अंतरजातिय विवाह के लिए भी लोगों को प्रेरित करता है. इस फिल्म का निर्देशन बिमल रॉय ने किया है.

(फोटोःयूट्यूब)

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