advertisement
होस्ट, राईटर और साउंड डिजाइनर: फबेहा सय्यद
एडिटर: संतोष कुमार
म्यूजिक: बिग बैंग फज
आजादी, फ्रीडम, स्वतंत्रता - जबान चाहे कोई भी हो, जज्बा एक ही है. इस महामारी ने जिस तरह आज़ादी की क़द्र कराई है वो शायद हम अब उम्र भर न भूल पाएं. आज आलम ये है कि लॉकडाउन की पाबंदियां कम हो गई हैं फिर भी बाहर निकलने में डर लगता है. और फिर कैद जैसी हालत की खीझ और झुंझलाहट - जिन्होंने आजादी से पहले की बेड़ियां नहीं देखीं, उन्हें नए सिरे से इस माहमारी ने बता दिया है कि आज़ादी क्या शय है...ये महज एक जज़्बा नहीं है, बल्कि बहुत बड़ी उपलब्धि है.
आज किसी के पास घर में सारे साधन हैं, लेकिन वो आजाद नहीं है, क्योंकि उसे अपने दोस्तों से मिलने का मन करता है, उन्हें गले लगाने का मन करता है तो ये हो नहीं सकता. किसी को खाना बनाना नहीं आता और वो बाहर से मंगाने से भी डरता है. इनसे पैसे खर्च करने की आजादी छिन गई है. तो कुछ ऐसे हैं जिनके घर में अनाज का एक दाना नहीं है. लॉकडाउन हुआ, कंपनी बंद हुई, नौकरी गई और दो वक्त की रोटी के लाले पड़ गए. इनसे आजीविका कमाने की आजादी छिन गई है.आजादी कम होने की शिकायतें और भी कारणों से बढ़ी हैं. तो इस इंडीपेंडेंस डे स्पेशल पॉडकास्ट में हमने अलग-अलग वर्गों के लोगों से पूछा कि आज उनके लिए आजादी के क्या मायने हैं?
जो जुहा ने परेशानियां गिनवाई हैं, उनके अलावा देश भर के स्टूडेंट्स और भी कई बड़ी वजहों से जूझ रहे हैं. उनकी परेशानियों को परेशानी नहीं बल्कि ट्रेजेडी कहना ठीक रहेगा. कोरोना की वजह से जब सब कुछ ऑनलाइन चला गया तो स्कूल और कॉलेजेस की क्लासेज भी. शहरों तक के स्टूडेंट खराब इंटरनेट और लैपटॉप ना होने की शिकायत करते रहे, तो सोचिए गांव देहात या छोटे शहरों का क्या हाल होगा. खास कर तब जब इन स्टूडेंट्स के माँ बाप लॉकडाउन की वजह से अपनी नौकरियों से हाथ धो बैठे. जो पहले भी या तो बहुत कम तनख्वा कमाते थे.
मजदूरी मशक्कत करने वाली शाहिना घर-घर जाकर लोगों का काम करती हैं. कोरोना की वजह से लोगों ने बुलाना बंद किया, और जो इक्का दुक्का घरों ने लगाया हुआ है, वहां से जो कमाई अब आती है वो ना काफी रहती है. इन्ही से सुनिए इन्हे किस से आज़ादी चाहिए.
शाहिना की बातों में जिस दर्द की तस्वीर खिंच रही है वो लॉकडाउन के समय पूरे देश ने देखी. पैदल, एक सूटकेस में पूरी गृहस्थी समेटे, बिना खाना-पानी शहरों से गांवों की ओर चला जा रहा प्रवासी मजदूरों का रेला... इस मंजर ने उस माइग्रेशन की याद दिला दी जो पार्टीशन के दौरान हुआ था.
इसी ह्यूमन ट्रेजेडी को कमरे में कैद करने निकले पत्रकारों का भी एक ऐसा वर्ग है, जिसने अगर ऐसे कहानियां दिखाईं तो उन पर केस लगाय गए. आज एक भारत में जब असहमति को अपराध बना दिया गया है, ऐसे में पत्रकार को आज कैसी आजादी चाहिए, ये सुनिए इंडिपेंडेंट जर्नलिस्ट सोनिया सरकार से.
द वायर और बीबीसी के साथ रिपोर्टिंग करने वाले महताब आलम का इस पर ये कहना है कि अंग्रेजी भाषा में काम करने वाले पत्रकारों केलिए आजादी फिर ज्यादा है बजाय उनके जो हिंदी या दूसरी भाषा में काम करते हैं.
देश और समाज की सच्चाई एक और तरह से सामने लाई जाती है और वो रास्ता है आंकड़ों का. लेकिन आज एक आम शिकायत ये है कि इकनॉमी से लेकर बेरोजगारी तक पर विश्वसनीय डेटा नहीं मिलता. जब नंबर्स छुपा लिए जाएँ तो पॉलिसियां कैसे बन पाएंगी एक बेहतर भारत के बेहतर कल के लिए? इसी चीज को रेखांकित करके कह रहे हैं डाटा एक्सपर्ट और पालिसी थिंक टैंक ISPIRIT के सीनियर फेलो, तनुज भोजवान.
आजादी का जश्न हम सबको मुबारक. लेकिन वक्त बदला है और आजादी के मायने बदलने चाहिए. जश्न की वजह भी बदलनी चाहिए. कोरोना ने फिर याद दिलाया है देश को चाहिए बेहोश हेल्थ सिस्टम से आजादी, हमें चाहिए आर्थिक मंदी से आजादी, सीमा पर हमारे सैनिकों को अपने इलाके में पेट्रोल करने की आजादी चाहिए, देशवासियों को चाहिए बेरोजगारी-गरीबी से आजादी, लोकतांत्रिक संस्थाओं को चाहिए पूरी आजादी, देश के बहुरंगी रूप को निखरने और संवरने की आजादी.....
फिर दोगुने जोश हम सब कहेंगे...स्वतंत्रता दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएं.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: 15 Aug 2020,07:34 AM IST