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हाल ही में राजस्थान में बिगड़ते राजनीतिक संकट के बीच राजस्थान विधानसभा अध्यक्ष द्वारा बागी विधायकों को दलबदल विरोधी कानून के तहत अयोग्यता नोटिस जारी किया गया. इसको लेकर बागी कांग्रेसी नेता सचिन पायलट और 18 अन्य असंतुष्ट विधायकों ने अयोग्यता नोटिस को उच्च न्यायालय में चुनौती दी है. मामले पर बागी विधायकों का तर्क है कि विधानसभा के बाहर कुछ नेताओं के निर्णयों और नीतियों से असहमत होने के आधार पर उन्हें संसदीय ‘दलबदल विरोधी कानून’ के तहत अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता है, ऐसा करना गलत है.
जवाब में बागी विधायकों ने अपनी रिट याचिका में नोटिस को रद्द करने की मांग करते हुए तर्क दिया है कि उनके द्वारा सदन की सदस्यता का त्याग नहीं किया गया है, इसलिए ‘दल बदल विरोधी कानून’ का उन पर प्रयोग नहीं किया जा सकता. और न ही बैठकों में शामिल न होने में विफल रहने के आधार पर उन्हें दल बदल विरोधी कानून के तहत उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है.
बागी विधायकों के द्वारा रिट याचिका 'राजस्थान विधानसभा सदस्यों की वैधता (पार्टी बदलने के आधार पर अयोग्यता) नियम’, 1989 और संविधान की दसवीं अनुसूची के क्लॉज 2(1)(a) को चुनौती देने के लिये दायर की गई है. जो कहता है कि स्वेच्छा से एक राजनीतिक पार्टी की सदस्यता का त्याग करने पर सदस्य दलबदल कानून के तहत अयोग्यता के लिये उत्तरदायी होगा.
वैसे 10वीं अनुसूची पर बहस बार-बार होती रही है. इसके चैप्टर 2 का पार्ट 1 (ए) कहता है कि सदन में किसी भी दल का सदस्य अयोग्य करार दिया जा सकता है यदि वह स्वेच्छा से वह पार्टी से अपनी सदस्यता छोड़ देता है. कांग्रेस के कानूनी सलाहकारों एवं सत्तापक्ष का मानना है कि विधायक दल की बैठक में शामिल नहीं होना (पायलट ने पार्टी व्हिप को नजरअंदाज करते हुए कांग्रेस विधायक दल की दो बैठकों का बहिष्कार किया) स्वेच्छा से सदस्यता छोड़ने जैसा है, लेकिन कई एक्सपर्ट इससे सहमत नहीं हैं.
दसवीं अनुसूची को 1985 में 52 वें संशोधन अधिनियम द्वारा संविधान में डाला गया था. जिसमें कहा गया है कि विधायकों को सदन के किसी अन्य सदस्य द्वारा याचिका पर आधारित विधायिका के पीठासीन अधिकारी द्वारा दलबदल के आधार पर अयोग्य ठहराया जा सकता है. दलबदल के आधार पर अयोग्यता के रूप में प्रश्न पर निर्णय ऐसे सदन के अध्यक्ष या अध्यक्ष का निर्णय अंतिम होता है. ये कानून संसद और राज्य विधानसभाओं दोनों पर लागू होता है.
यदि किसी राजनीतिक दल से संबंधित सदन का सदस्य स्वेच्छा से अपनी राजनीतिक पार्टी की सदस्यता छोड़ देता है, या अपने राजनीतिक दल के निर्देशों के विपरीत, वोट नहीं देता है या विधायिका में वोट नहीं करता है. और यदि सदस्य ने पूर्व अनुमति ले ली है, या इस तरह के मतदान या परहेज से 15 दिनों के भीतर पार्टी द्वारा निंदा की जाती है, तो सदस्य को अयोग्य घोषित नहीं किया जाएगा.
इसके अलावा ये भी कहा गया है कि पीठासीन अधिकारी का निर्णय न्यायिक समीक्षा के अधीन नहीं है. 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने इस शर्त को समाप्त कर दिया, जिससे उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में पीठासीन अधिकारी के फैसले के खिलाफ अपील की गई. हालांकि, यह माना गया कि जब तक पीठासीन अधिकारी अपना आदेश नहीं देता तब तक कोई न्यायिक हस्तक्षेप नहीं हो सकता है.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने 21 जनवरी 2020 के आदेश में अयोग्यता के निर्णय के लिए उचित समय अवधि के बारे कई बातें कही जब तक कि "असाधारण परिस्थितियां" नहीं हो तो दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्यता याचिकाएं तीन महीने के भीतर तय की जानी चाहिए एक उचित समय अवधि के भीतर स्पीकर द्वारा निर्णय देने में विफलता अदालत को अयोग्यता मामले में हस्तक्षेप करने के लिए मजबूर कर सकती है.
वैसे देखा जाए तो पार्टी निष्ठा सरकार को स्थिरता प्रदान करती है. यह सुनिश्चित करता है कि उम्मीदवार पार्टी के साथ ही नागरिकों के लिए भी उसके प्रति वफादार रहें. पार्टी के अनुशासन को बढ़ावा देता है. विरोधी दलबदल के प्रावधानों को आकर्षित किए बिना राजनीतिक दलों के विलय की सुविधा राजनीतिक स्तर पर भ्रष्टाचार को कम करने की उम्मीद है. एक सदस्य के खिलाफ दंडात्मक उपायों के लिए प्रदान करता है जो एक पार्टी से दूसरे में दोष करता है. ऐसे में एक ही राजनीतिक दल के सदस्यों द्वारा असमान स्थिति या मनमुटाव की एक सार्वजनिक छवि को राजनीतिक परंपरा में वांछनीय स्थिति के रूप में नहीं देखा जाता है.
हालांकि जब सरकार के गठन में अनेक राजनीतिक दल शामिल होते हैं तो वहां दलों के बीच मनमुटाव को उचित ठहराया जा सकता है. ऐसे समय में जब भारत की रैंक 'नवीनतम लोकतंत्र सूचकांक' (2019) में बुरी तरह गिर गई है, आज हमारी संसद से यह अपेक्षा की जाती है कि वह इन सबको को सुधारने और मज़बूत करने के लिये कदम उठाए. समयानुसार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा दलबदल कानून में संतुलन बनाए रखने के लिये कानून में आवश्यक बदलाव किये जाने की पुरजोर आवश्यकता है.
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