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COVID-19 महामारी का असर कई सेक्टर पर पड़ा है, जिनमें से एक एजुकेशन सेक्टर भी है. हाल ही में जारी ऑक्सफैम की एक रिपोर्ट ने शिक्षा संकट के कई अहम पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करते हुए इस संकट से बाहर निकलने के उपाय भी सुझाए हैं.
यह रिपोर्ट बताती है कि महामारी के प्रसार को रोकने के लिए विश्व स्तर पर सरकारों ने शिक्षा संस्थानों को कुछ न कुछ समय के लिए बंद किया. स्कूल बंद रहने की चरम स्थिति के समय 190 देशों में 1.6 अरब छात्र इससे प्रभावित थे, जबकि 2 करोड़ 40 लाख छात्रों पर स्कूल छोड़ने की मजबूरी का खतरा मंडरा रहा था.
भारत सरकार ने मार्च 16, 2020 को राष्ट्रीय स्तर पर सभी शिक्षा संस्थानों के लिए लॉकडाउन घोषित किया था. अक्टूबर के अंत तक शिक्षा संस्थानों के बंद होने से प्रभावित छात्रों की संख्या 32 करोड़ थी. इनमें से 70 प्रतिशत सरकारी स्कूलों में थे. स्कूलों के बंद होने से ऑनलाइन शिक्षा क्लासों में पढ़ने की मजबूरी का छात्रों पर गंभीर असर पड़ा, विशेषकर निर्धन परिवारों और हाशिए पर रह रहे सामाजिक समूहों के छात्रों पर प्रतिकूल असर पड़ा. इस स्थिति में आर्थिक स्थिति पर आधारित असमानताएं और लिंग आधारित असमानताएं पहले से और बढ़ सकती हैं और शिक्षा व्यवस्था ज्यादा विषम बन सकती है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि शिक्षा में अल्प-कालीन व्यवधान आने से शिक्षा स्थाई तौर पर छूट जाने का खतरा बढ़ जाता है. अभिजात परिवारों के छात्र महामारी के ज्यादा विकट असर से सुरक्षित रह सकते हैं, लेकिन बहुत से निर्धन और सीमांत परिवारों के बच्चे शायद फिर स्कूल नहीं जा पाएंगे. ऑक्सफैम इंडिया ने पांच राज्यों में सर्वेक्षण किया जिससे पता चला कि सरकारी स्कूलों के लगभग 40 फीसदी अध्यापक आशंकित हैं कि अधिक समय तक स्कूल बंद रहने से संभवतः एक-तिहाई छात्र स्कूल में लौट कर नहीं आएंगे.
विशेषज्ञ कहते हैं कि स्कूल से बाहर रहने की दर एक साल में दोगुनी हो सकती है. सबसे कम संपत्ति वाले परिवारों में यह आशंका सबसे ज्यादा है. ज्यादा छात्रों के स्कूल छोड़ने की आशंका दलित, आदिवासी और मुस्लिम समुदायों में अधिक है. इनमें से बहुत से बच्चे बाल मजदूरी और बाल विवाह में भी फंस सकते हैं.
स्कूलों ने केवल शिक्षा के मुख्य स्रोत की ही भूमिका नहीं निभाई है, बल्कि वे कुछ अन्य समाज कल्याण की स्कीमों का स्रोत या स्थान भी रहे हैं. स्कूलों के बंद रहने से इन स्कीमों के लाभ छात्रों तक पंहुचने में बहुत व्यवधान आया. लगभग 60 लाख उच्चतर स्कूली शिक्षा के छात्र (जो अनुसूचित जाति/जनजाति श्रेणी से है) केन्द सरकार से 100 से 75 प्रतिशत की छात्रवृत्ति प्राप्त करते रहे थे, पर इस संकट के दौरान इसमें बहुत बाधा आई. कुछ राज्यों में यह छात्रवृत्ति नहीं मिली और कुछ में यह कम मिली, हालांकि साल के अंत में केंद्र सरकार ने इस संदर्भ में नए आश्वासन की घोषणा की.
रिपोर्ट में बताया गया है कि 12 लाख स्कूलों में 12 करोड़ छात्रों तक मिड-डे मील स्कीम का भोजन पंहुचता रहा है. स्कूलों के बंद हो जाने से यह स्कीम भी बुरी तरह बाधित हुई. लगभग 78 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति के बच्चे और 70 प्रतिशत अनुसूचित जाति के छात्र ऐसे स्कूलों में पढ़ते हैं जहां मिड-डे मील मिलता है, इससे उनके पोषण में योगदान मिलता है. इस कारण कुपोषण बढ़ने की भी आशंका पैदा हुई है, विशेषकर अनुसूचित जाति और जनजाति जैसे कमजोर वर्ग के बच्चों में.
दुनिया के कई देशों की तरह भारत ने अपने स्कूल कोविड दौर में बंद कर दिए और ऑनलाइन और डिस्टेंस शिक्षा के कई तौर-तरीकों से कुछ हद तक शिक्षा जारी रखने का प्रयास किया. सरकार ने इसके लिए ऑनलाइन पोर्टल, खुली शिक्षा संसाधनों के राष्ट्रीय संग्रह, स्वयम, ई-पाठशाला, रेडियो और टीवी के शिक्षा कार्यक्रमों आदि से सहयोग किया.
इन प्रयासों का उद्देश्य अच्छा है, पर विषमता रिपोर्ट ने इस ओर ध्यान दिलाया है कि डिजिटल दूरी की हकीकत के कारण समाज के निर्धन वर्ग तक शिक्षा पंहुचाने में इस माध्यम की क्षमता बहुत सीमित है. महामारी के शुरू होने के समय केवल 4 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के पास कम्प्यूटर और केवल 15 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों को इंटरनेट कनेक्शन उपलब्ध था. सरकार के अधिकांश डिस्टेंस शिक्षण प्रयास डीटीएच (डायरेक्ट टु होम) टीवी के माध्यम से किए गए जबकि मात्र 5.25 परिवारों को डीटीएच ग्राहकी उपलब्ध है. कम या गैर-तकनीकी प्रयासों पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया.
ग्रामीण क्षेत्रों में मात्र 15.5 प्रतिशत महिलाएं कंप्यूटर का उपयोग कर सकती हैं या इंटरनेट का.( लाकडाऊन के दौरान इस स्थिति में कुछ बदलाव संभवतः आया होगा, पर मूल स्थिति तो वहीं है. ए.एस.ई.आर. के एक सर्वेक्षण के अनुसार लाकडाऊन के दौरान 11 प्रतिशत अभिभावकों ने फोन खरीदा ताकि उनके बच्चों की शिक्षा जारी रह सके. फिर भी सर्वेक्षण के एक तिहाई बच्चे ही आनलाईन शिक्षा प्राप्त कर सके.
ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार गरीब परिवारों में कठिनाई केवल तकनीकी की पंहुच तक सीमित नहीं थी, बल्कि निजी जगह की भी समस्या है. भारत में औसत परिवार की सदस्य संख्या 4.45 है जबकि देश की 59.6 प्रतिशत जनसंख्या के पास रहने के लिए मात्र एक कमरा (या इससे भी कम) उपलब्ध है. इस स्थिति में घर पर शिक्षा प्राप्त करना सरल या सुविधाजनक नहीं है.
ऑक्सफैम रिपोर्ट में शिक्षा संबंधी कुछ अहम सुझाव भी दिए गए हैं:
अंत में ऑक्सफैम रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अभिभावकों और छात्रों के अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए. आपदा प्रबंधन अधिनियम की धारा 10(2)(1) के अंतर्गत नोटिफिकेशन जारी कर निजी स्कूलों द्वारा फीस बढ़ाने पर रोक लगानी चाहिए.
(भारत डोगरा एक स्वतंत्र पत्रकार, लेखक, रिसर्चर और एक्टिविस्ट हैं. उन्होंने कई पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखे हैं. इस लेख में दिए गए विचार उनके अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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