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दिन रात मोबाइल के साथ चिपके बच्चे, अटेंशन डेफिसिट या अवधान के अभाव की दिक्कत, पढ़ाई में दिल कम लगना. बाहर न जाना, खेल-कूद की बात से ही खीझ जाना. बस मोबाइल या इन्टरनेट (Internet) से जोड़ने वाले माध्यमों या साधनों की खोज में लगे रहना. इन दिनों माता-पिता, शिक्षकों और समाज शास्त्रियों के साथ मनोविज्ञान की भी बड़ी चुनौतियों में ये शामिल हैं. जिस मजबूती के साथ मोबाइल फोन, टैब और लैपटॉप बच्चों को अपनी गिरफ्त में ले लेते हैं, और कोई ऐसे नहीं बांध पाता. माता-पिता, शिक्षक अल्पज्ञ और अप्रासंगिक लगते हैं; दोस्त और इन्टरनेट की दुनिया अंतिम सत्य के प्रतीक. बच्चों को मां बाप और अभिभावकों के अलावा इन्टरनेट (Internet) से जुड़ा सब कुछ सही लगता है.
बच्चों का मस्तिष्क एक निश्चित उम्र तक निर्मित होता रहता है. न्यूरोप्लास्टीसिटी (Neuroplasticity) तो कहती है कि ताउम्र दिमाग में बदलाव की गुंजाइश बनी रहती है. पर कम उम्र में बच्चों को इन्टरनेट पर रहने की आदत पड़ जाए तो बाद में मुश्किल से छूट पाती है, यह भी सच है. बच्चों को पालते समय अच्छे-अच्छे मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों का कचरा बन जाता है. हर बच्चा नया होता है, अनूठा होता है. उसके साथ जुड़ी चुनौतियाँ भी अलग होती हैं. ऐसे में कोई सिद्धांत काम नहीं आता. काम आती है माता-पिता की समझ और लगातार बदलती सचाई के साथ उनका सामंजस्य.
जब भी अपने बच्चों को जब सिर्फ दो चार दिन इन्टरनेट (Internet) से दूर रखा, तो उन्होंने अपने से ही खुद को व्यस्त रखने के दूसरे रास्ते ढूंढ़ निकाले. ओरीगामी करने लगे. आपस में बातचीत करने लगे, संगीत सुनने लगे. इन्टरनेट (Internet) इंसान को इंसान से कितना दूर कर देता है; अपनों को पराया और परायों को अपना बना देता है, इसका प्रत्यक्ष, फर्स्ट हैण्ड अनुभव अपने ही बच्चों के जरिये हुआ. पर अब तो यह घरों में, दिलो-दिमाग में अपनी जड़ें जमा चुका है, शायद हर वर्ग के अभिभावकों और शिक्षकों के सामने एक दानव की तरह खड़ा है.
पेरेंट्स को इस बात की भी बहुत फिक्र है कि, इसकी वजह से बच्चों पर उनका नियंत्रण घट गया है! पर फिक्र इस बात की होनी चाहिए कि बच्चों का खुद पर भी नियंत्रण खत्म हो गया है. वे एक मशीन की तरह इन्टरनेट में छिपी जानकारियों की खोज में लगे रहते हैं. यदि उनसे पूछा जाए कि ऐसा क्यों कर रहे हैं, तो वे शायद ही कोई जवाब ढूंढ़ पाएं. सामूहिक चेतना का वेग ऐसा ही होता है. एक अकेला व्यक्ति अपनी सोच और गतिविधि की तह तक नहीं पहुंच पाता. उसे समझ नहीं आता कि वह सामूहिक चेतना के वश में आकर अपना जीवन जी रहा है. एक विशाल पहिया है और वह घूम रहा है; अपने साथ समाज को भी घुमाता चला जा रहा है.
यह पहिया ही समाज है. हम हैं उसकी तीलियां.
लैंडलाइन फोन तो अब म्यूजियम में रखने लायक सामान बन चुका है. पहले अधिकांश घरों में एक फोन होता था, बच्चे बाहर गली-मोहल्ले, सोसाइटी में खेलते थे, या घर में बैठ कर होम वर्क करते थे. वे दिन अब सपना बन गए हैं. विडियो गेम, टी वी चैनल्स और इन्टरनेट ने उनकी नन्ही ज़िन्दगी पर पूरी तरह कब्ज़ा कर लिया है. कोविड के संक्रमण के बाद तो मजबूरी में पढ़ाई की खातिर ही बच्चों को लैपटॉप और फ़ोन देना पड़ा था. और फिर इसका मनोरंजन के लिए भी उपयोग होने लगा. यह एक आवश्यक बुराई बन गया. इसके अलावा कई पेरेंट्स बच्चों को टीवी और मोबाइल में इसलिए भी बझा देते हैं, कि वे अपना काम कर सकें. आर्थिक और सामाजिक दबावों ने काफी कुछ बदल दिया है. बच्चों को हम खुद ही एक आत्मघाती हथियार थमा देते हैं, और फिर हाय-हाय करते हैं. हम भी मजबूर हैं, और बच्चे भी पहले तो खुश होते हैं, पर बाद में इनका शिकार भी बन जाते हैं.
बच्चे जितना समय इन्टरनेट पर बिताते हैं उनके असामाजिक, या समाज विरोधी होने की संभावना बढ़ती है. साथ ही बातचीत करने की क्षमता, भाषा के सही उपयोग और अवधान का समय घटने की दिक्कत भी आती है जिसे आम तौर पर अटेंशन डेफिसिट सिंड्रोम कहते हैं. अटेंशन डेफिसिट के शिकार बच्चे आगे चल कर कितने हिंसक हो सकते हैं, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती. निमहैंस जैसे किसी केंद्र में कभी जाने का मौका मिले और वहां कुछ ऐसे बच्चों को देखने, उनके अभिभावकों से मिलने का अवसर मिल सके तो शायद इस बारे में थोड़ी समझ आ सके.
एक स्तर पर तो समस्या बस आदत की है. अमेरिका (America) में एक रिसर्च किया गया और एक बोर्डिंग स्कूल में बच्चों और शिक्षकों से स्मार्ट फोंस ले लिए गए. उन्हें सामान्य फ़ोन दिए गए जिससे बस वे बुनियादी काम कर सकें. अपने घर वालों और साथियों से कभी-कभी बात-चीत कर पाएं. सिर्फ दो महीने के बाद उन्हें इसकी आदत पड़ गई. बगैर फ़ोन के भी वे उग्र और व्यग्र हुए बगैर सामान्य तरह से जीने लगे. बच्चे अधिक पढ़ाई करने लग गए; खेल कूद में भी उनकी रूचि बढ़ी. इसके बाद यह प्रयोग अमेरिका (America) और ऑस्ट्रेलिया (Australia) के कई स्कूलों में भी किया गया. सजगता के साथ मोबाइल वगैरह का उपयोग करना उन्हें सिखाया गया.
आपने गौर किया होगा कि मोबाइल वगैरह का उपयोग अक्सर आदतन और बगैर किसी सजगता के किया जाता है. यदि पूरे होश में इनका उपयोग किया जाए, तो इनकी आदत नहीं बनेगी. स्मोकिंग और शराब पीने की आदत के बारे में भी यही कहा जाता है. आप झटके में नहीं, बल्कि आहिस्ता आहिस्ता स्मोकिंग करें, पैकेट खोलें, सिगरेट निकालें, जलाएं, उसके धुंए को भीतर जाते हुए महसूस करें, तो यह आदत छूट सकती है. यांत्रिकता आदत को मजबूती देती है. होश उसे कमज़ोर बनाता है. यह काम बहुत ही प्राथमिक स्तर के स्कूलों में होना चाहिए. सजगता बच्चों के पाठ्यक्रम में शामिल की जानी चाहिए. हफ्ते में एक या दो बार उन्हें सिर्फ कक्षा में बैठ कर अपने शरीर और मन की हरकतों के प्रति सजग होना सिखाना चाहिए. इसके बहुत सकारात्मक और दूरगामी लाभ मिलेंगे. एक बार सजगता के बीज चेतना में रोप दिए जाएँ तो वे पूरे जीवन पुष्पित होते रहते हैं. इसमें समस्या बस यही है कि इसके महत्व को समझाने के लिए सही शिक्षक होने चाहिए.
जिस प्रयोग का ऊपर ज़िक्र है उसमें स्कूल जाने से पहले की उम्र वाले बच्चों को आउटडोर या बंद कमरों के बाहर गतिविधियों में शामिल होने की आदत डाली गईं. कुल मिलकर यह बड़ा ही फायदेमंद रहा. बच्चों के लिए बाहर खेलना बहुत जरूरी है. जितना सांस लेना जरूरी है, लगभग उतना ही जरुरी है खेलना कूदना. छोटी जगहों-फ्लैटों में रहने के बावजूद यदि यह कुछ लोगों के लिए संभव हो सके कि बच्चों को बाहर खेलने के लिए भेज सकें, तो उनके और उनके बच्चों के लिए बड़ा अच्छा होगा. जीवन में कई परिवर्तन तो हो ही रहे हैं. पहले की तरह कुछ भी करना आसान नहीं रहा. पर जहाँ तक हो सके, पेरेंटिंग में मनोवैज्ञानिक रास्ते न अपना कर पहले भौतिक, ठोस दैहिक कारणों पर गौर किया जाए, उसी स्तर पर उपाय किये जाएँ तो शायद बेहतर हो. बच्चों की जीवन शैली, उनके भोजन पर ध्यान दिया जाए.
पहले किसी मनोवैज्ञानिक (Psychological) के पास न जाया जाए, जैसा कि इन दिनों फैशन हो चला है. बर्ट्रेंड रसेल (Bertrand Russel) कहते थे कि, यदि कोई इंसान अवसाद में है तो इसकी अधिक संभावना है कि उसे कब्जियत हो, और थोड़ी सी कसरत उसका रोग ठीक कर सके. इसका अर्थ यही है कि पहले जो स्पष्ट है, जो सामने है, जो ठोस है, शुरुआत वहीं से की जाए. जटिल समाधानों को बाद में ढूँढा जाए. इस सोच के मुताबिक, सीधा हमला इन्टरनेट (Internet) पर भी नहीं होना चाहिए. अप्रत्यक्ष रूप से बच्चों को दूसरे, स्वस्थ कामों में लगाकर ही इन्टरनेट (Internet) की, आभासी दुनिया से उनको दूर करना ज्यादा व्यवहारिक लगता है.
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