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जनता कर्फ्यू: लॉकडाउन से पहले जश्न सा माहौल, मोदी है तो मुमकिन है!

जनता कर्फ्यू सामाजिक गोलबंदी की रणनीति या कार्यक्रम के तौर पर यह निस्संदेह पीएम मोदी की बड़ी सफलताओं में से एक है.

नीलांजन मुखोपाध्याय
ब्लॉग
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 लॉकडाउन से पहले जश्न सा माहौल, मोदी है तो मुमकिन है!
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लॉकडाउन से पहले जश्न सा माहौल, मोदी है तो मुमकिन है!
(फोटोः PTI)

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जनता कर्फ्यू जिसे सरकार ने विभिन्न उद्देश्यों के लिए जनता के नाम पर शटडाउन करने में इस्तेमाल किया, इसकी कितनी महत्वपूर्ण भूमिका कोरोनावायरस के फैलने की श्रृंखला को तोड़ पाने में रही, इसका पता बहुत बाद में चलेगा. लेकिन यह बात अभी से कही जा सकती है कि सामाजिक गोलबंदी की रणनीति या कार्यक्रम के तौर पर यह निस्संदेह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बड़ी सफलताओं में से एक है.

यह समझना जरूरी है कि लोग भले ही खतरनाक वायरस के खिलाफ लड़ रहे डॉक्टर, नर्स, दूसरे मेडिकल स्टाफ और हर प्रोफेशनल के लिए तालियां बजा रहे थे और आभार जता रहे थे, लेकिन जितनी बड़ी तादाद में लोग निकले वह प्रभावशाली था और आजादी के बाद के सबसे गंभीर संकट के क्षणों में मोदी की नेतृत्व क्षमता में लोगों के विश्वास का भी इजहार था.

इससे बीजेपी का पुराना नारा- मोदी है तो मुमकिन है- भी जीवंत हुआ. यह बात भुलाई नहीं जा सकती कि करीब आधे घंटे के शोरगुल के बाद कई जगहों पर लोगों ने पटाखे छोड़े. उसमें यह भाव झलकता है.

मोदी के सामने कई चुनौतियां हैं. पहली परीक्षा निश्चित रूप से मेडिकल मोर्चे पर है. दूसरा यह सुनिश्चित करना है कि मेडिकल के क्षेत्र में उठाए गये प्रशासनिक कदमों से कोई सामाजिक अशांति पैदा न हो. तीसरा काम है लंबित आर्थिक संकट का सामना करना. इसे कुछ दिनों के लिए ‘इमर्जेंसी’ कहकर छोड़ दिया जाएगा. मगर, खराब होती आर्थिक स्थिति की जितने लंबे समय तक अनदेखी की जाएगी, यह संकट उतना ही गहरा होता जाएगा.

इन सभी चुनौतियों में मेडिकल की जिम्मेदारी को अपने हाथों में प्रधानमंत्री ले सकें, इसके लिए जनता के समर्थन की जरूरत है. जबरदस्त संसदीय बहुमत के बावजूद मोदी के कई फैसलों से माहौल खराब हुआ है और दिल्ली, झारखंड, महाराष्ट्र और हरियाणा में बीजेपी का प्रदर्शन बुरा रहा है या कम से कम प्रदर्शन शानदार नहीं रहा है. जब भारत कोरोनावायरस के संकट काल में प्रवेश कर रहा था, तब की राजनीतिक पृष्ठभूमि यही थी. इस तरह नये सिरे से राजनीतिक लय हासिल करना निस्संदेह महत्वपूर्ण और अंतिम चुनौती है.

जनता कर्फ्यू जैसे आयोजन को हाथ में लेने की क्षमता ही मोदी को विरोधियों से अलग करती है. आयोजन की सफलता के साथ प्रधानमंत्री ने काफी हद तक अपने खोए हुए राजनीतिक आधार को पा लिया है. कम से कम जहां तक महामारी के खिलाफ युद्ध के वक्त जनता से समर्थन लेने का सवाल है. 

चूकि जनता कर्फ्यू का आयोजन हर किसी की ‘भलाई’ के लिए या राष्ट्रीय हित में सामाजिक अलगाव को उत्साहित करना था, इसलिए किसी भी तरीके से इसकी आलोचना नहीं की जा सकती थी. इसी तरीके से देखभाल में जुटे लोगों के लिए घोषित रूप से तालियां बजायी गयीं, इसलिए इस पर भी सवाल नहीं उठाया जा सकता था. इस कदम से चिकित्सा के नजरिए से क्या फायदा होगा, इसका पता बाद में चलेगा, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इसका तात्कालिक लाभ निश्चित रूप से मिलता नजर आ रहा है. मोदी की सफलता अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को भी एक-दो संदेश दे जाती है जो दोनों मोर्चों पर संघर्ष करते दिख रहे हैं- स्वास्थ्य मोर्चे पर और यहां तक कि उनकी लोकप्रियता गिरने का खतरा भी महसूस किया जा रहा है.

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चूकि इस कार्यक्रम ने अपने मुख्य मकसद को पूरा किया, मगर आयोजकों के हिसाब से यह थोड़ा अलग भी रहा. सामूहिक सक्रिय भागीदारी में अंधविश्वास का पुट दिखा और वैज्ञानिक मिजाज वाले सिद्धांत से परे यह संचालित होता नजर आया. विरोधाभाष यह है कि श्रेष्ठतम वैज्ञानिक न सिर्फ भारत में बल्कि विश्व स्तर पर चौबीस घंटे मेहनत कर रहे हैं ताकि महामारी को रोका जाए और वायरस को परास्त किया जा सके.

यहां तक कि देशभर में अधीर हो रहे लोग 5 बजने का इंतजार नहीं कर सके. न केवल वे तालियां और घंटियां बजा रहे थे, या फिर तख्तियां लटका रहे थे, बल्कि कई जगहों पर पूरे इवेंट के दौरान ओम का उच्चारण और दूसरी धार्मिक क्रियाएं भी होती दिखीं.

कई शीर्ष टेलीविजन चैनलों ने भी उनके बिट्स सुनाए. इन चैनलों पर विभिन्न कारोबारी लोगों को योग और आध्यात्मिक गुरु का मुखौटा पहनाकर आमंत्रित किया गया, जिन्होंने यह व्याख्या बतायी कि किस तरह ‘वाइब्रेशन्स’ ऐसी बीमारियों को दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है.

जनता कर्फ्यू: लॉकडाउन से पहले जश्न सा माहौल, मोदी है तो मुमकिन है!

निस्संदेह ‘आयोजन’ के हर छोटी-छोटी पहलू की योजना बना ली गयी होगी, जिनमें शाम 4 बजे लोगों को ‘रिमाइंडर’ ट्वीट करना भी शामिल है. यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि रविवार शाम ताली, थाली और शंख बजाना खत्म होने के साथ ही राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की स्थिति साफ हो रही थी. अड़चन यह थी कि सरकार चतुराईपूर्वक ऐसा करते दिखना नहीं चाहती थी, क्योंकि इससे पहले से मौजूद डर का माहौल और बढ़ सकता था.

दिनभर के जनता कर्फ्यू को चालाकी से सामूहिक और भागीदारी वाले समारोह में बदलकर मोदी ने जनता के सामने कठोर होने से खुद को बचा लिया. प्रधानमंत्री ने वायरस से लड़ाई में सरकारी प्रयासों में जनता को भी भागीदार बना लिया. लॉक डाउन के दौर में उनका साथ लेकर ब्रेक के तौर पर एक उत्सव पैदा कर दिया.

यह बहुत कुछ वैसा ही है जब मोदी ने नोटबंदी के समय जनता को यह समझाते हुए भागीदार बना लिया कि जो कठिनाइयां उन्हें झेलनी पड़ेगी वह ‘उनके भले के लिए’ है. 

इस बार मोदी के लिए फायदेमंद बात यह रही कि यह लड़ाई किसी काल्पनिक ‘अन्य’, दुश्मन देश या कालाधन के खिलाफ नहीं है. इसके बदले लड़ाई खतरनाक बीमारी का वाहक बने एक वायरस से है जो दुनिया भर में हजारों लोगों की जान ले रहा है. और, वैश्विक रणनीति के मोर्चे पर सबसे आगे मोदी हैं. दांव पर देश का भविष्य नहीं, बल्कि हर नागरिक का स्वास्थ्य है.

वास्तव में सार्क देशों के नेताओं के साथ वीडियो कान्फ्रेन्स से शायद कुछ बड़ा हासिल नहीं हुआ. इजराइली इतिहासकार और दार्शनिक युवल हरारी की भावना समझें तो वे इसे ‘राष्ट्रवादी अलगाव’ (Nationalist isolation) का पसंदीदा मार्ग बताते हैं, जिसे ज्यादातर अंतरराष्ट्रीय नेताओं ने ‘वैश्विक मजबूती’ पर वरीयता दी है.

लेकिन दूसरे नजरिए से देखें तो इस बातचीत के बाद मोदी एक बार फिर से अंतरराष्ट्रीय पटल पर लौट आए हैं, जिनकी स्थिति सीएए, अनुच्छेद 370 और जम्मू-कश्मीर की परिस्थिति से जुड़े फैसलों के बाद थोड़ी डांवाडोल हो गयी थी.

इस बीच मोदी ने अपने राजनीतिक विरोधियों को अलग-थलग कर दिया है और जनता के बड़े तबके का समर्थन हासिल कर लिया है. ऐसा करते हुए अब उनके सामने कठिनतम चुनौती है. अगर एक बार इस चुनौती से पार पाने में वे सफल हो जाते हैं तो यह सही मायने में लोगों और देश के लिए अच्छा होगा.

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