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पिच नहीं, क्रिकेट की बेहतरी को लेकर बहस कीजिए

आपको भारतीय कंडीशन में खेलने को तैयार रहना चाहिए, भले बॉल टर्न हो या बाउंस. इससे आगे निकलिए.

निशांत अरोड़ा
स्पोर्ट्स
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पुणे में हार के बाद पिच को लेकर बहस छिड़ गई थी (फोटो: Reuters)
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पुणे में हार के बाद पिच को लेकर बहस छिड़ गई थी (फोटो: Reuters)
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हरेक मैच के पहले सबकी जुबां पर चर्चा का एक ही मुद्दा रहता है, खासकर तब, जब भारत में घरेलू सीरीज हो रही है. ये चर्चा खिलाड़ियों के बारे में नहीं, दोनों प्रतिद्वंद्वी टीमों के बारे में नहीं और टीमें एक–दूसरे के खिलाफ किस तरह जमावट करने वाली हैं, इस पर तो कतई नहीं. सबके लिए बातचीत का सबसे जरूरी मुद्दा होता है पिच.

ये अकेला विषय है, जो हर क्रिकेट मैच के वक्त सबकी बातचीत के केंद्र में होता और बाकी सारी बातें किनारे हो जाती है. पत्रकार के तौर पर तमाम प्रेस कॉन्फ्रेंस देख चुका हूं और भारतीय क्रिकेट टीम के मीडिया मैनेजर रहते कुछ का संचालन भी कर चुका हूं. मैं ये पक्के तौर पर कह सकता हूं कि स्पोर्ट्स मीडिया की सबसे ज्यादा दिलचस्पी पिच का मिजाज जानने पर रहती है.

कप्तान और कोच ये सोचकर ही मीडिया के सामने आते हैं कि पिच को लेकर सवालों की गोलाबारी खूब होने वाली है. पिच अपने आप में किसी विरोधी टीम से कम नहीं होती. इसकी तुलना आप मिशेल स्टार्क की 140 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से होने वाली बॉलिंग से कर सकते हैं.

पिच किसी के भी छक्के छुड़ा सकती है. यहां तक कि इसका शिकार भारतीय कोच अनिल कुंबले तक बन चुके हैं. मीडिया से बातचीत के दौरान पिच को लेकर 3-4 बाउंसर सवालों के बाद अपने धैर्य और संतुलन के लिए मशहूर कुंबले तक को कहना पड़ा, “क्या अब आगे बढ़ सकते हैं.”

पिच को लेकर सवालों से जुड़ा 2006 का भारतीय टीम के पाकिस्तान दौरे का एक क्लासिक वाकया है. हर कोई मान रहा था कि पिच की हरियाली का फायदा शोएब अख्तर और उसके साथियों को मिलेगा. लेकिन लाहौर के गद्दाफी स्टेडियम की पिच ने बल्लेबाजों का साथ दिया. राहुल द्रविड़ और वीरेंद्र सहवाग की ओपनिंग जोड़ी ने 410 रन का भारी-भरकम स्कोर खड़ा कर दिया. खबरें उड़ीं कि पाकिस्तान के बल्लेबाज हरी-भरी पिच नहीं चाहते थे, क्योंकि इससे उनकी कमजोरी खुलकर सामने आ जाती. ये खबर जंगल में आग की तरह फैल गई.

मैच के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस देखने लायक थी. इंजमाम-उल-हक से विकेट को लेकर तमाम सवाल पूछे गए. आखिरकार जब इंजमाम का धीरज चुक गया, तो सीधा जवाब दिया, “देखिए मैं टीम का कप्तान हूं, ग्राउंड्समैन नहीं.”

आखिर कितने लोग हैं, जो लॉर्ड्स या मेलबर्न क्रिकेट ग्राउंड के क्यूरेटर का नाम जानते हैं? लेकिन दलजीत सिंह नाम के एक शख्स, जिसका दिमाग भारत की पिचों को बनाने के पीछे माना जाता है, उन्हें रवि शास्त्री या कपिल देव की तरह पूरा देश जानता है. हर कोई पिच को लेकर उनकी जानकारी की झलक पाना चाहता है. उनका सब जगह हवाला दिया जाता है और अक्सर हर मैच के पहले मीडिया उनसे पिच के बारे में जानना चाहता है. कई बार तो परेशान होकर उन्हें अपना फोन साइलेंट मोड पर डालना पड़ जाता है.

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अपने गृहनगर मोहाली में दलजीत अक्सर मैच से पहले मीडिया को पिच टूर पर ले जाते हैं. एक स्पोर्ट्स रिपोर्टर के तौर पर आप से उम्मीद की जाती है कि पिच बनाने से जानकारी जुटाएं. इस 'एक्सक्लूसिव जानकारी' की बेहद मांग रहती है.

पिच को लेकर जब भी बात होती है, तो भारतीय फैन्स को ऑस्ट्रेलिया की उछालदार या इंग्लैंड की घुमावदार पिच सबसे ज्यादा उत्तेजित करती हैं. वो जोर देते हैं कि इस चुनौती को हर भारतीय खिलाड़ी न सिर्फ स्वीकार करना चाहिए, बल्कि जीतना भी चाहिए. लेकिन इसके उलट जब बात भारतीय पिच की होती है, तो चाहते हैं कि विकेट ज्यादा स्पिन न हो. हर वक्त जब बॉल एक्सट्रा टर्न लेती है या बाउंस होती है, तो पिच को बनाने में टीम का हाथ होने को लेकर कानाफूसी शुरू हो जाती है. कमेंटेटर शुरू हो जाते हैं और मीडिया भी सुर में सुर मिलाना शुरू कर देता है.

2015 में ऑस्ट्रेलिया के पर्थ में हो रहे मैच के दौरान विकेट में इतना बड़ा गड्ढा हो गया था कि आधा बैट उसमें घुस जाए. 2015 में ऑस्ट्रेलियाई सीरीज के मैच में हालत ये थी ऑस्ट्रेलिया 5-21 पर था और पूरी टीम 60 रन पर आउट हो गई. मैच तीन दिन के भीतर सिमट गया, लेकिन विकेट को लेकर एक भी कमेंट देखने को नहीं मिला. सारी चर्चा को फोकस मैच की बजाय इंग्लिश सीम बॉलरों की काबिलियत पर मुड़ गया.

अगर ऐसा कुछ भारत में होने की सुगबुगाहट भी दिखती, तो हर तरफ घंटिया बजनी शुरू हो जातीं. विदेशी मीडिया को छोड़िए, भारतीय स्पोर्ट्स रिपोर्टरों ने खुद अपनी टीम और खेल प्रशासकों के खिलाफ तूफान खड़ा कर दिया होता कि ये किस तरह भारतीय क्रिकेट को 80 और 90 के दशक में खींच ले जाएगा.

विदेशी मीडिया सबसे ज्यादा भारतीय पिचों के बारे में हंगामा खड़ा करता. वो स्पिनिंग ट्रैक को लेकर कहानियां गढ़ते. कहा जाता है कि भारतीय पिचें क्रिकेट के लायक नहीं हैं और विदेशी टीमें इस पर अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकते. लेकिन अगर विदेशी टीम जीत जाती, तो यही विदेशी मीडिया भारतीय टीम की काबिलियत पर सवाल खड़े करता. लिखता कि भारतीय इतने नकारा हैं कि अपने घरेलू मैदानों पर भी अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकते. ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ पिछला पुणे टेस्ट मैच इसका आदर्श उदाहरण है.

ये स्वाभाविक है कि भारतीय टीम के खिलाड़ी ऐसी रिपोर्टिंग से परेशानी महसूस करते हैं. जब वो इंग्लैंड जाते हैं, तो बैटिंग ब्यूटी के बारे में बात नहीं होती. जब साउथ अफ्रीका जाते हैं, तो टर्नर की रैंक पर बात नहीं होती.

उनसे ऐसी चुनौतियों पर काबू पाने और क्रिकेटर के तौर पर परिपक्व बनने की उम्मीद की जाती है. तो फिर भारत आई विदेशी टीम पर ये पैमाना क्यों नहीं लागू होता? यहां ग्रीन विकेट, जिसे स्पोर्टिंग विकेट कहा जाता है, तो टर्नर उसे अखाड़ा बताने लगते हैं?

अगर सारे टेनिस मैच पक्के कोर्ट पर खेले जा रहे होते, तो आप कल्पना कीजिए कि हमें किस हद तक बोरियत होती. टेनिस के दिग्गजों ने खुद को क्ले कोर्ट से लेकर नुकीली घास और पक्के कोर्ट तक– हर जगह खेलने के लिए खुद को तैयार किया है. तो फिर क्रिकेट में क्या फर्क पड़ता है?

आपको भारतीय कंडीशन में खेलने को तैयार रहना चाहिए, भले बॉल टर्न हो या बाउंस. इससे आगे निकलिए. आखिर 22 गज की पट्टी ही तो है, जैसा कि कुंबले ने कहा.

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(निशांत अरोड़ा भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व मीडिया मैनेजर हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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